कृषि रक्षा प्रबन्धन ; जैविक एजेंट एवं जैविक कीटनाशकों के प्रयोग द्वारा कृषि रक्षा प्रबन्धन(Agricultural defense management; Agricultural Defense Management by Using Biological Agents and Organic Pesticides)

कृषि रक्षा प्रबन्धन ; जैविक एजेंट एवं जैविक कीटनाशकों के प्रयोग द्वारा कृषि रक्षा प्रबन्धन(Agricultural defense management; Agricultural Defense Management by Using Biological Agents and Organic Pesticides)

प्रदेश में फसलों को कीटों, रोगों एवं खरपतवारों आदि से प्रतिवर्ष 7 से 25 प्रतिशत तक क्षति होती है, जिसमें 33 प्रतिशत खरपतवारों द्वारा, 26 प्रतिशत रोगों द्वारा, 20 प्रतिशत कीटों द्वारा, 7 प्रतिशत भण्डारण, 6 प्रतिशत चूहों द्वारा तथा 8 प्रतिशत अन्य कारण सम्मिलित हैं। यह क्षति दलहन में 7 प्रतिशत, ज्वार में 10 प्रतिशत गेहूँ में 11.4 प्रतिशत, गन्ना में 15 प्रतिशत, धान में 18.6 प्रतिशत, कपास में 22 प्रतिशत तथा तिलहन में 25 प्रतिशत तक होती है। फसलों, फलों एवं सब्जियों पर इनके प्रकोप को कम करने के उद्देश्य से कृषकों द्वारा कृषि रक्षा रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है।

प्रदेश में कीटनाशकों की औसत खपत 279.60 ग्राम प्रति हेक्टर हैं, जो देश के औसत खपत 288 ग्राम प्रति हेक्टर से कम है। इस औसत खपत में 58.7 प्रतिशत कीटनाशक, 22.0 प्रति तृणनाशक, 16.0 प्रतिशत रोगनाशक तथा 3.3 प्रतिशत चूहा विनाशक/धूम्रक सम्मिलित है। इन रसायनों का प्रयोग करने से जहाँ कीटों, रोगों एवं खरपतवारों में सहनशक्ति पैदा होती है और कीटों के प्राकृतिक शत्रु (मित्र कीट) प्रभावित होते हैं, वहीं कीटनाशकों का अवशेष खाद्य पदार्थों, मिट्टी, पानी, एवं वायु को प्रदूषित करने लगते हैं। कीटनाशक रसायनों के हानिकारक प्रभावों से बचने के लिए जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करना नितान्त आवश्यक है।
जैविक एजेन्ट एवं जैविक कीटनाशक
जैविक एजेन्ट तथा जैविक पेस्टीसाइड जीवों यथा कीटों, फफूदों, जीवाणुओं एवं वनस्पतियों पर आधारित उत्पाद हैं, जो फसलों, सब्जियों एवं फलों को कीटों एवं व्याधियों से सुरक्षित कर उत्पादन बढ़ाने में सहयोग करते हैं। ये जैविक एजेण्ट/जैविक कीटनाशक 20-30 दिनों के अंदर भूमि एवं जल से मिलकर जैविक क्रिया का अंग बन जाते है तथा स्वास्थ्य एवं पर्यावरण को कोई भी हानि नहीं पहुंचाते हैं।
नीम एक प्राकृतिक पेस्टीसाइड है, जिसमें एजाडिरेक्टिन एवं सैलानिन तत्व पाये जाते हैं जो फसलों को कीड़ो द्वारा खाने से बचाता है तथा फसलों को सुरक्षा को प्रदान करता है। इसका तेल, खली एवं पत्तियों, पौध संरक्षण एवं कीट नियंत्रण में प्रयोग की जाती है।
जैविक कीटनाशकों से लाभ
  • जीवों एवं वनस्पतियों पर आधारित उत्पाद होने के कारण, जैविक कीटनाशक लगभग एक माह में भूमि में मिलकर अपघटित हो जाते है तथा इनका कोई अंश अवशेष नहीं रहता। यही कारण है कि इन्हें पारिस्थितकीय मित्र के रूप में जाना जाता है।
  • जैविक कीटनाशक केवल लक्षित कीटों एवं बीमारियों को मारते है, जब कि रासायनिक कीटनाशकों से मित्र कीट भी नष्ट हो जाते हैं।
  • जैविक कीटनाशकों के प्रयोग से कीटों/व्याधियों में सहनशीलता एवं प्रतिरोध नहीं उत्पन्न होता जबकि अनेक रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग से कीटों में प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न होती जा रही है, जिनके कारण उनका प्रयोग अनुपयोगी होता जा रहा है।
  • जैविक कीटनाशकों के प्रयोग से कीटों के जैविक स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता जब कि रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग से ऐसे लक्षण परिलक्षित हुए हैं। सफेद मक्खी अब अनेक फसलो तथा चने का फली छेदक अब कई अन्य फसलों को भी नुकसान पहुंचाने लगा है।
  • जैविक कीटनाशकों के प्रयोग के तुरन्त बाद फलियों, फलों, सब्जियों की कटाई कर प्रयोग में लाया जा सकता है, जबकि रासायनिक कीटनाशकों के अवशिष्ट प्रभाव को कम करने के लिए कुछ दिनों की प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
  • जैविक कीटनाशकों के सुरक्षित, हानिरहित तथा पारिस्थितकीय मित्र होने के कारण विश्व में इनके प्रयोग से उत्पादित चाय, कपास, फल, सब्जियों, तम्बाकू तथा खाद्यान्नों, दलहन एवं तिलहन की मांग एवं मूल्यों में वृद्धि हो रही है, जिसका परिणाम यह है कि कृषकों को उनके उत्पादों का अधिक मूल्य मिल रहा है। ट्राइकोडर्मा, जैविक कीटनाशकों के विषहीन एवं हानिरहित होने के कारण ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में इनके प्रयोग से आत्महत्या की सम्भावना शून्य हो गयी है, जबकि कीटनाशी रसायनों से अनेक आत्म हत्याएं हो रही है। जैविक कीटनाशक पर्यावरण, मनुष्य एवं पशुओं के लिए सुरक्षित तथा हानिरहित हैं। इनके प्रयोग से जैविक खेती को बढ़ावा मिलता है जो पर्यावरण एवं परिस्थितकीय का संतुलन बनाये रखने में सहायक हैं।
1. ट्राइकोग्रामा (ट्राइकोकार्ड)
यह ट्राइकोग्रामा जाति की छोटी ततैया जो अंड परजीवी है, जोकि लैपीडोप्टेरा परिवार के लगभग 200 प्रकार के नुकसानदेह कीड़ों के अंडों को खाकर जीवित रहता है। इस ततैया की लम्बाई 0.4 से 0.7 मिमी. होती है तथा इसका जीवनचक्र निम्न प्रकार है
अंडा देने की अवधि
16-24 घण्टे
लार्वा अवधि
2-3 दिन
प्यूपा पूर्व अवधि
2 दिन
प्यूपा अवधि
2-3 दिन
कुल अवधि
8-10 दिन (गर्मी)
9-12 दिन (जाड़ा)
 
मादा ट्राइकोग्रामा अपने अंडे हानि पहुंचाने वाले कीड़ों के अंडों के बीच देती है तथा वहीं पर इनकी वृद्धि होती है एवं ट्राइकोग्रामा का जीवन चक्र पूरा होता है। ततैया अंडो. में छेंदकर बाहर निकलता है। ट्राइकोग्रामा की पूर्ति कार्ड के रूप में होती है, जिसमें एक कार्ड पर लगभग 20000 अंडे होते हैं। धान, मक्का, गन्ना, सूरजमुखी, कपास, दलहन, फलों एवं सब्जियों के नुकसानदायक तनाछेदक, फलवेधक, पत्ती लपेटक प्रकार के कीड़ो का जैविक विधि से नाश करने हेतु ट्राइकोग्रामा का प्रयोग किया जाता है। इससे 80 से 90 प्रतिशत क्षति को रोका जा सकता है।
ट्राइकोकार्ड को विभिन्न फसलों में 10 से 15 दिन के अंतराल पर 3 से 4 बार लगाया जाता है। खेतों में जैसे ही हानिकारक कीड़ों के अंडे दिखाई दें, तुरन्त ही कार्ड को छोट-छोटे समान टुकड़ों में कैंची से काट कर खेत के विभिन्न भागों में पत्तियों की निचली सतह पर या तने पत्तियों के जोड़ पर धागे से बांध दे। सामान्य फसलों में 5 किन्तु बड़ी फसलों जैसे गन्ना में 10 कार्ड प्रति हेक्टेयर का प्रयोग किया जाय। इसे सांयकाल खेत में लगाया जाय किन्तु इसके उपयोग के पहले उपयोग के पहले, उपयोग के दौरान व उपयोग के बाद खेत में रासायनिक कीटनाशक का छि़कावा न किया जाय।
ट्राइकोकार्ड को खेत में प्रयोग करने से पूर्व तक 5 से 10 डिग्री से तापक्रम पर बर्फ के डिब्बे या रेफ्रिजरेटर में रखना चाहिए।
2. ट्राइकोडरमा
ट्राइकोडरमा एक घुलनशील जैविक फफूँदीनाशक है जो ट्राइकोडरमा विरिडी या ट्राइकोडरमा हरजिएनम पर आधारित है। ट्राइकोडरमा फसलों में जड़ तथा तना गलन/सड़न, उकठा (फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम, स्क्लेरोशिया डायलेक्टेमिया) जो फफूंद जनित है, के नियंत्रण हेतु लाभप्रद पाया गया है। धान, गेहूं, दलहनी फसलें, गन्ना, कपास, सब्जियों, फलों एवं फल वृक्षों पर रोगों से यह प्रभावकारी रोकथाम करता है।
ट्राइकोडरमा के कवक तन्तु फसल के नुकसानदायक फफूँदी के कवक तन्तुओं को लपेट कर या सीधे अन्दर घुसकर उनका जीवन रस चूस लेते है और नुकसानदायक फफूंदों का नाश करते हैं। इसके अतिरिक्त भोजन स्पर्धा के द्वारा कुछ ऐसे विषाक्त पदार्थ का स्राव करते हैं जो बीजों के चारो और सुरक्षा दीवार बनाकर हानिकारक फफूंदों से सुरक्षा देते हैं। ट्राइकोडरमा से बीजों में अंकुरण अच्छा होकर फसलें फफूंद जनित रोगों से मुक्त रहती हैं एवं उनकी नर्सरी से ही वृद्धि अच्छी होती है।
ट्राइकोडरमा का प्रयोग निम्न रूप से किया जाना उपयोगी है:-
  • कन्द/कॉर्म/राइजोम/नर्सरी पौध का उपचार 5 ग्राम ट्राइकोडरमा को एक लीटर पानी में घोल बनाकर डुबोकर करना चाहिए तत्पश्चात् बुवाई/रोपाई की जाय।
  • बीज शोधन हेतु 4 ग्राम ट्राइकोडरमा प्रति किलोग्राम बीज में सूखा मिला कर बुवाई की जाय।
  • भूमि शोधन हेतु एक किलोगा्रम ट्राइकोडरमा केा 25 किलोग्राम गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर एक सप्ताह तक छाया में सुखाने के उपरान्त बुवाई के पूर्व प्रति एकड़ प्रयोग किया जाय।
  • बहुवर्षीय पेड़ों के जड़ के चारो ओर गड्ढा खोदकर 100 ग्राम ट्राइकोडरमा पाउडर केा मिट्टी में सीधे या गोबर/कम्पोस्ट की खाद के साथ मिला कर दिया जाय।
  • खड़ी फसल में फफूंदजनित रोग के नियंत्रण हेतु 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से 400-500 लीटर पानी में घोलकर सायंकाल छिडकाव करें। जिससे आवश्यकतानुसार 15 दिन के अन्तराल पर दोहराया जा सकता है।
यह एक जैविक उत्पाद है किन्तु खुले घावों, श्वसन तंत्र एवं आंखों के लिए नुकसानदायक है। अतः इसके प्रयोग समय सावधानियां बरतनी चाहिए। इसके प्रयोग से पहले या बाद में किसी रासायनिक फफूँदनाशक का प्रयोग न किया जाय। ट्राइकोडरमा की सेल्फ लाइफ एक वर्ष है।
3. एन.पी.वी (न्यूक्लियर पॉलीहेड्रासिस वायरस)
न्यूक्लियर पॉलीहेड्रासिस वायरस (एन.पी.वी.) पर आधारित हरी सूंडी़ (हेलिकोवर्पा आर्मीजे़रा) अथवा तम्बाकू सूंड़ी (स्पोडाप्टेरा लिटूरा) का जैविक कीटनाशक है जो तरल रूप में उपलब्ध है। इसमें वायरस कण होते हैं जिनसे सूंडी द्वारा खाने या सम्पर्क में आने पर सूंडियों का शरीर 2 से 4 दिन के भीतर गाढ़ा भूरा फूला हुआ व सड़ा हो जाता हे, सफेद तरल पदार्थ निकलता है व मृत्यु हो जाती है। रोग ग्रसित तथा मरी हुई सूंडियां पत्तियों एवं टहनियों पर लटकी हुई पाई जाती हैं।
एन.पी.वी. कपास, फूलगोभी, टमाटर, मिर्च, भिण्डी, मटर, मूंगफली, सूर्यमुखी, अरहर, चना, मोटा अनाज, तम्बाकू एवं फूलों को नुकसान से बचाता है। प्रयोग करने से पूर्व 1 मिली एन.पी.वी. को 1 लीटर पानी में घोल बनाये तथा ऐसे घोल को 250 से 500 मिली प्रति हेक्टेयर की दर से 12 से 15 दिनों के अंतराल पर 2 से 3 छिड़काव फसलों के लिए उपयोगी हैं। छिड़काव सांयकाल को किया जाय तथा ध्यान रहे कि लार्वा की प्रारम्भिक शैशवावस्था में अथवा अंडा देने की स्थिति में प्रथम छिड़काव किया जाय। एन.पी.वी. की सेल्फ लाइफ 01 माह है।
4. ब्यूवेरिया बैसियाना
यह एक फफूंदी जनित उत्पाद है, जो विभिन्न प्रकार के फुदकों को नियंत्रित करता है। यह लेपीडोप्टेरा कुल के कैटरपिलर, जिसमें फली छेदक (हेलियोथिस), स्पोडाप्टेरा, छेदक तथा बाल वाले कैटरपिलर सम्मिलित हैं, पर प्रभावी है तथा छिड़काव होने पर उनमें बीमारी पैदा कर देता है जिससे कीड़े पंगु हो जाते है और निष्क्रिय होकर मर जाते हैं। यह विभिन्न प्रकार के फसलों फलों एवं सब्जियों में लगने वाले फली बेधक पत्ती लपेटक, पत्ती खाने वाले कीट, भूमि में दीमक एवं सफेद गीडार आदि की रोकथाम के लिए लाभकारी है।
प्रयोग विधि
  • भूमि शोधन हेतु ब्यूवेरिया बैसियान की 2.5 किग्रा० प्रति हे० लगभग 25 किग्रा० गोबर की खाद् में मिलाकर अन्तिम जोताई के समय प्रयोग करना चाहिये।
  • खाई फसल में कीट नियंत्रण हेतु 2.5 किग्रा० प्रति हे० की दर से 400-500 लीटर पानी में घोलकर सायंकाल छिड़काव करें। जिस आवश्यकतानुसार 15 दिन के अन्तराल पर दोहराया जा सकता है। इसकी सेल्फ लाईफ 1 वर्ष है।
5. स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स
यह जीवाणु चने की फसल में उपयोगी पाया गया है। यह जीवाणु पौधों में लगने वाले तीन रोगकारक कवाकों फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम प्रजाति साइसेरी, राइजोक्टोनिया वटारीकोला व पाइथियम को रोकने में सक्षम हैं।
प्रयोग करने की विधि
  • बीज उपचार
    500
    ग्राम सूखी गोबर की खाद केा 2.5 लीटर पानी में डालकर गाढ़ा घोल (स्लरी) बनाने के बाद 500 ग्राम स्यूडोमोनास को डाल कर इस गाढ़े घोल में पौधों की जड़ को डुबो कर उपचारित करने के उपरान्त लगाना चाहिए। इस प्रकार के उपचारकण अधिकांशतः सब्जियों वाली फसलों यथा फूलगोभी, टमाटर बैंगर, मिर्चा व प्याज मे तथा धान की पौधों की जड़ों पर करना चाहिए।
  • पौधों की जड़ का उपचार
    सवा एक लीटर पानी में 115 ग्राम गुड़ अथवा 55 ग्राम चीनी को गरम करके चिपचिपा घोल तैयार करने के उपरान्त उसमें 500 ग्राम स्यूडोमोनास का संवर्धन डाल कर गाढ़ा घोल तैयार कर लेना चाहिए, यह गाढ़ा घोल 10 किग्रा० बीज को उपचारित करने के लिए पर्याप्त होता है। बीज में घोल अच्छी तरह से मिलाने के बाद छाया में सुखाकर ही बुवाई करना चाहिए।
  • मृदा उपचार
    स्यूडोमोनास के संवर्धन की 800 ग्राम मात्रा विभिन्न फसलों के अनुसार 10-20 किग्रा० महीन पिसी हुई मृदा या बालू में मिलाकर प्रति हैक्टेयर की दर से खेतों में फसलों की बुवाई के पूर्व उर्वरकों की तरह छिड़काव करना लाभप्रद होता है।
6. क्राइसोपर्ला
क्राइसोपर्ला नामक हरे कीट जिनकी लम्बाई 1 से 1.3 सेमी० ०, पंख लम्बे हल्के रंग के पारदर्शी, सुनहरी आंखे तथा 5 एन्टिना धारक होते है, के लार्वा सफेद मक्खी, माहूँ जैसिड थ्रिप्स आदि के अंडो तथा लार्वा को खा जाते है, को प्रभावित खेतों में डाला जाता है, इनका जीवन चक्र निम्न प्रकार है:-
अंडा अवधि
3-4 दिन
लार्वा अवधि
11-13 दिन
प्यूपा अवधि
5-7 दिन
व्यस्कता
35 दिन
अंड क्षमता
300-400 अंडे
क्राइसोपर्ला के अंडों को कोरसियरा के अंडों के साथ लकड़ी के बुरादे में बाक्स में आपूर्ति किया जाता है। इनके लार्वा कोरसियरा के अंडो को खाकर वयस्क बनते है। विभिन्न फसलों में क्राइसोपर्ला के 50000 से 100000 लार्वा या 500 से 1000 वयस्क प्रति हेक्टर डालने से कीटो का नियंत्रण भली प्रकार से होता है। सामान्यतः दो बार इन्हें छोड़ना चाहिए।
क्राइसोपर्ला के अंडों को 10 से 15 डिग्री से पर रेफ्रीजेरेटर में 15 दिनों तक रखा जा सकता है। सामान्य तापमान पर इनका जीवन चक्र प्रारम्भ हो जाता है।
7. एजाडिरेक्टिन (नीम का तेल)
यह नीम के बीच एवं गूदा के तत्वो पर आधारित तरल वानस्पतिक कीटनाशक है। इसकी गंध एवं स्वाद कीड़ों को भगाती है, खाने की अनिच्छा उत्पन्न करती है एवं जीवन चक्र को धीमा एवं प्रजननशीलता को कमजोर बनाकर अंडे तथा बच्चों की संख्या में कमी लाती है।
नीम का तेल कपास, चना, धान, अरहर, तिलहन तथा टमाटर में नुकसान पहुंचाने वाले गोलवर्म, तेलाचेंपा (माहूँ), सफेद मक्खियां भृंग, फुदका, कटुआ सूंडी तथा फल बेधक सूंडी पर प्रभावशाली है। खड़ी फसल में कीट नियंत्रण हेतु एजाडिरेक्टिन (नीम का तेल) 0.15 प्रतिशत ई.सी. की 2.5 ली० मात्रा प्रति हे० की दर से 15 दिन के अन्तराल पर सायंकाल छिडकाव करना चाहिये। इसकी सेल्फ लाइफ एक वर्ष है।
8. बी. टी. (बेसिलस थ्यूनिरजिएन्सिस)
5 प्रतिशत डब्लू.पी. बी.टी. एक बैक्टिरिया आधारित जैविक कीटनाशक है जो सूंडियों पर तत्काल प्रभाव डालता है। इससे सूंड़ियों पर लकवा, आंतों का फटना, भूखापन तथा संक्रमण होता है तथा वे दो से तीन दिन में मर जाती है। यह पाउडर एवं तरल दोनों रूपों में उपलब्ध है। इसका प्रयोग मटर, चना, कपास, अरहर, मूंगफली, सुरजमुखी, धान फूलगोभी, पत्ता गोभी, टमाटर, बैंगन, मिर्च तथा भिण्डी में उपयोगी एवं प्रभावशाली है।
बी.टी. का प्रयोग छिड़काव द्वारा किया जाता है। प्रति हेक्टर 0.5 से 1.0 किग्रा० मात्रा को 500 से 700 लीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल पर दो से तीन बार छिड़काव लाभकारी है। इसकी सेल्फ लाइफ 1 वर्ष है।
9. फेरोमोन ट्रेप (गंध पाश)
फेरोमोन ट्रेप फसलों को नुकसान करने वाली सूंडियों के नर पतंगों के फंसाने के लिए चमकीले प्लास्टिक का बना होता है। इसमें कीप के आकार के मुख्य भाग पर लगे ढक्कन के मध्य में मादा कीट की गंध (ल्योर) लगाया जाता है, जो नर पतंगों को आकर्षित करता है। कीप के निचले भाग पर पालीथीन की थैली लगायी जाती है, जिसमें पतंगे जाते है। थैली के निचले मुख पर से रबर बैंड हटाकर फंसे पतंगे निकाल कर मार दिये जाते है।
फेरोमोन ट्रेप को खेत में पतंगों की उपस्थिति पता करने के लिए 5-6 ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से तथा अधिक संख्या में पकड़ने के लिए 15 से 20 ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाया जाता है। इसे खेत में कीप पर लगे हत्थे द्वारा डंडे पर फसल की ऊंचाई से 1-2 फुट ऊपर लगाया जाता है।
ल्यूर (गंध रबर) में गंधक रहित रबर पर मादा पतंगों की विशेष गंध (फेरोमोन) भरी होती है। विभिन्न प्रकार के पतंगों के लिए अलग-अलग ल्यूर उपयोग किये जाते है। ल्यूर थैली में बंद मिलता है। जिसे खोल कर ट्रैप के ढक्कन में बने स्थान पर लगाया जाता है। कपास, चना, अरहर, टमाटर, गोभी, बन्दगोभी, मूंग, उर्द, भिण्डी तथा धान के लिए विभिन्न प्रकार के ल्यूर का प्रयोग करते हुए फेरोमोन ट्रैप लगाये जाते है। ल्यूर 3-4 सप्ताह तक कार्य करता है।
10. जैविक एजेन्ट/कीटनाशक की उपलब्धता
प्रदेश में जैविक एजेन्ट-ट्राइकोकार्ड, ट्राइकोडरमा तथा एन.पी.वी. का उत्पादन कृषि विभाग की नौ आई.पी.एम. प्रयोगशालाओं हरदोई, आजमगढ़, वाराणसी, उरई (जालौन), बरेली, मथुरा, मुरादाबाद, सैनी (कोशाम्बी) एवं कैराना (मुजफ्फजरनगर) कृषि विश्वविद्यालयों की तीन प्रयोगशालाओं कानपुर, मोदीपुरम (मेरठ) एवं फैजाबाद तथा भारत सरकार की दो प्रयोगशालाओं लखनऊ एवं गोरखपुर में किया जा रहा है। क्राइसोपर्ला का उत्पादन कृषि विश्वविद्यालय, मेरठ की प्रयोगशाला में हो रहा है। इसी प्रकार जैविक एजेन्ट एवं जैविक कीटनाशकों का उत्पादन/विक्रय प्रदेश में अनेक फर्मो द्वारा भी किया जा रहा है। इनकी उपलब्धता में कठिनाई नहीं है।
इस प्रकार जैविक एजेन्ट एवं जैविक कीटनाशकों के प्रयोग से शुद्ध एवं मितव्ययी तथा अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है तथा स्वस्थ पर्यावरण में कृषि का सतत् विकास सुनिश्चित हो सकता है।
भूमि शोधन
क्र०सं०
कीट का नाम
प्रभावित फसल
रोकथाम
मात्रा/हे०
भूमिगत कीट
1
दीमक
समस्त फसल
ब्यूवेरिया बैसियाना अथवा दानेदार कीटनाशी अथवा क्लोरोपायरीफास 20 % ई०सी०
2.5 किग्रा०  10-20 किग्रा० 2.5 लीटर
2
सफेद गिडार
समस्त फसल
ब्यूवेरिया बैसयाना अथवा मेटाराइजियम अथवा क्लोरोपायरीफास 20% ई०सी० अथवा दानेदार कीटनाशी
 2.5 किग्रा० 2.5 किग्रा०/ 500 मिली०     2.5 लीटर 10-20 किग्रा०
3
सूत्रकृमि
समस्त फसल
तदैव
तदैव
4
जड़ की सूड़ी
धान
तदैव
तदैव
5
कटवर्म
सब्‍जियॉ
तदैव
तदैव
6
कद्दू का लालकीट
कद्दू वर्गीय सब्‍जियॉ
क्लोरोपायरीफास 20% ई०सी० अथवा ब्यूवेरिया बैसियाना अथवा मेटाराइजियम
2.5 लीटर 2.5 लीटर 2.5 किग्रा०/500 मिली० 
7
अर्ली सूट बोरर
गन्ना
दानेदार कीटनाशी अथवा क्लोरापायरीफास 20 % ई०सी० अथवा मेटाराइजियम
10-20 किग्रा० 2.5 किग्रा०  2.5 किग्रा०/500 मिली०
8
लेपीडोप्टेरस कीट
खरीफ की
दानेदार कीटनाशी समस्त फसल ब्यूवेरिया बैसियाना अथवा मेटाराइजियम
10-20 किग्रा० 2.5 किग्रा० अथवा 2.5 किग्रा०/500 मिली०
9
मिलीबग
भिण्डीकपास ब्यूवेरिया बैसियाना आमकटहल अथवा मेटाराइजियम अथवा क्लोरोपायरीफास 1.5 %डी०पी०
 2.5 किग्रा० अथवा 2.5 किग्रा०/500 मिली० 20-25 किग्रा०/150-200 ग्राम/पेड़
भूमिजनित रोग
1
खैरा
धान
जिंक सल्फेट
20-25 किग्रा०
2
जीवाणु झुलसा/पत्तीधारी रोग 
धान
स्यूडामोनास
2.5 किग्रा०/250 मिली०
3
फाल्स स्मट/शीथ ब्लाइट
धान
ट्राईकोडरमा अथवा स्यूडोमोनास
2.5 किग्रा० 2.5 किग्रा०/250 मिली०
4
उकठा
दलहनी फसलेंतिल गन्नासब्‍जियॉ औद्यानिक व वन वृक्ष
तदैव
तदैव
5
रूटरॉट स्टम्पकॉलर रॉट
दलहनी फसलेंमूँगफली एवं सब्‍जियॉ
तदैव
तदैव
6
बैक्टीरियल विल्ट
दलहनीतिलहनी
स्यूडामोनास औद्यानिक फसलें एवं सब्‍जियों
2.5 किग्रा०/250 मिली०
7
डैम्‍पिंग ऑफ डाउनी मिल्ड्यू
सब्‍जियॉ
ट्राईकोडरमा अथवा स्यूडोमोडरमा
2.5 किग्रा० 2.5 किग्रा०/250 मिली० 
8
डाउनी मिल्ड्यू
ज्वार‚                    बाजरा        मक्का
ट्राइकोडरमा अथवा स्यूडोमोनास
2.5 किग्रा०/250 मिली०