गेंहूँ की उन्नत खेती (Gehun ki unnat kheti) – गेंहूँ की वैज्ञानिक विधि से आधुनिक खेती कैसे करें पूरी जानकारी हिंदी में पढ़ें

गेंहूँ की उन्नत खेती (Gehun ki unnat kheti) – गेंहूँ की वैज्ञानिक विधि से आधुनिक खेती कैसे करें पूरी जानकारी हिंदी में पढ़ें

गेंहू की खेती
वानस्पतिक नाम : Triticum aestivam L.
कुल : Poaceae OLD Name – Gramineae
गुणसूत्रों की संख्या : 42

गेंहूं का उद्भव स्थल – उत्तरी भारत दक्षिणी पश्चिमी अफगानिस्तान व भूमध्य सागर है |
गेंहू का क्षेत्रफल व वितरण : विश्व में भारत के अलावा चाइना,संयुक्त राष्ट्र अमेरिका,रूस,कनाडा,तुर्की व आस्ट्रेलिया तथा पकिस्तान हैं | भारत में गेंहू की खेती नागालैंड व केरल के अलावा लगभग सभी राज्यों में की जाती है | भारत में गेंहू उत्पादक राज्यों के रूप में उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश,राजस्थान,बिहार,पंजाब,हरियाणा का सुमार है |
गेंहू में पोषक मूल्य : गेंहू में प्रोटीन 8-10 प्रतिशत,फाइबर – 0.2 प्रतिशत,कार्बोहाइड्रेट 65 -70 प्रतिशत,पाया जाता है | इसके अतिरिक्त विटामिन बी1,बी2,बी6,व विटामिन ई पाया जाती है | लेकिन पिसाई के समय इसके घुलनशील विटामिन नष्ट हो जाते हैं | गेंहू के आटे में ग्लूटिन पाया जाता है | खनिज पदार्थों में जस्ता,मैग्नीशियम,तांबा,लोहा आदि गेंहू में पाए जाते हैं | गेंहू के दानों में 2 से 8 प्रतिशत तक शर्करा पाई जाती है |
गेंहू की खेती के लिए जलवायु व तापमान : गेंहू का पौधा एक शीतोष्ण जलवायु का पौधा है | नम व गर्म जलवायु में इसके पौधों की वृद्धि व विकास नही हो पाती है | इसके बीजों के अंकुरण के लिए 3.5-5.5 – 20-25 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान उपयुक्त होता है | विश्व में गेंहू 25-40 से 33-60 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पर सफलतापूर्वक उगाया जाता है | 
गेंहू की उन्नत किस्में :
गेहूँ की प्रजातियों के प्रमुख गुण/विशेषताएं।
क्र०
प्रजाति
नोटीफिकेशनकी तिथि
उत्पादकताकु०/हे०
पकने की अवधि दिन
पौधे की ऊँचाई से०मी०
रोगों से अवरोधिता
1
2
3
4
5
6
7
असिंचित दशाः
1
मगहर (के०-8027)
31-07-89
30-35
140-145
105-110
कण्डुवा एवं झुलसा अवरोधी
2
इन्द्रा (के०-8962)
01-01-96
25-35
90-110
110-120
3
गोमती (के०-9465)
15-05-98
28-35
90-110
90-100
4
के०-9644
2000
35-40
105-110
95-110
5
मंदाकिनी (के०-9351)
2004
30-35
115-120
95-110
6
एच०डी०आर०-77
15-05-90
25-35
105-115
90-95
7
एच०डी०-2888
2005
30-35
120-125
100-110
रतुआ अवरोधी
सिंचित दशा (समय से बुआई के लिए)
8
देवा (के०-9107)
01-01-96
45-50
130-135
105-110
रतुआ झुलसा एवं करनाल बंट के लिए अवरोधी
9
के०-0307
06-02-07
55-60
125-100
85-95
10
एच०पी०-1731 (राजलक्ष्मी)
04-05-95
55-60
130-140
85-96
तदैव
11
नरेन्द्र गेहूं-1012
15-05-98
50-55
135-140
85-95
तदैव
12
उजियार (के०-9006)
15-05-98
50-55
130-135
105-110
13
एच०यू०डब्लू०-468
09-06-99
55-60
130-140
85-95
14
डी०एल०-784-3 (वैशाली)
17-08-93
45-50
130-135
85-90
15
यू०पी०-2382
06-04-99
60-65
135-140
95-100
16
एच०पी०-1761
09-09-97
45-50
135-140
90-95
17
डीबीडब्लू-17
2007
60-65
125-135
95-100
रतुआ अवरोधी
18
एच०यू०डब्लू०-510
1998
50-55
115-120
19
पी०बी०डब्लू०-443
2000
50-55
125-135
90-95
20
पी०बी०डब्लू०-343
1997
60-65
125-140
90-95
21
एच०डी०-2824
2003
55-60
125-135
90-100
22
सी०बी० डब्लू०-38
2008
57-60
112-129
80-105
23
के०-1006
2014
55-60
120-125
88-90
रतुआ एवं झुलसा अवरोधी
24
के०-607
2014
55-60
120-125
85-88
25
के०402
2013
55-60
120-125
85-88
रतुआझुलसा अवरोधी
26
डी०बी०डब्लू-39
2009
55-60
121-125
80-105
रतुआझुलसा अवरोधी
27
एच०डी०2967
2012
55-60
122-125
90-95
28
पी०बी०डब्लू-502 सिंचित दशा (विलम्ब से बुआई हेतु)
2004
45-60
126-134
80-90
29
डी०बी०डब्लू-14
2002
40-45
108-128
70-95
30
एच०यू० डब्लू-234
14-05-88
35-45
110-120
85-90
31
एच०आई०-1563
2010
40-45
110-115
85-90
रतुआ अवरोधी
32
सोनाली एच०पी०-1633
04-11-92
35-40
115-120
115-120
33
एच०डी०-2643 (गंगा)
19-06-97
35-45
120-130
85-95
34
के०-9162
2005
40-45
110-115
90-95
35
के०-9533
2005
40-45
105-110
85-90
36
एच०पी०-1744
09-09-97
35-45
120-130
85-95
37
नरेन्द्र गेहूं-1014
15-05-98
35-45
110-115
85-100
रतुआ एवं झुलसा अवरोधी
38
के०-9423
2005
35-45
85-100
85-90
39
के०-7903
2001
30-40
85-100
85-90
40
नरेन्द्र गेहूं-2036
2002
40-45
110-115
80-85
रतुआ अवरोधी
41
यू०पी०-2425
06-05-99
40-45
120-125
90-95
42
एच०डब्लू०-2045
2002
40-45
115-120
95-100
रतुआ झुलसा अवरोधी
43
नरेन्द्र गेहूं-1076
2002
40-45
110-115
80-90
तदैव
44
पी०बी०डब्लू-373
1997
35-45
120-135
85-90
45
डी०बी०डब्लू-16
2006
40-45
120-125
85-90
46
ए०ए०आई० डब्लू-ऊसरीली भूमि के लिए
2014
35-40
110-115
105-110
लीफ रस्ट अवरोधी
47
के०आर०एल०-1-4
15-05-90
30-45
130-145
90-100
48
के०आर०एल०-19
2000
40-45
130-145
90-100
49
के०-8434(प्रसाद)
2001
45-50
135-140
90-95
50
एन०डब्लू०-1067
25-08-2005
45-45
125-130
90-95
रतुआ अवरोधी
51
के०आर०एल०-210
2009
35-45
112-125
65-70
रतुआ अवरोधी
52
के०आर०एल०-213
2009
35-40
117-125
60-72
रतुआ अवरोधी (रस्ट)
गेहूँ की अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है
  • खेत की तेयारी के लिए रोटावेटर हैरो का प्रयोग किया जायें ।
  • जीवांश खादों का प्रयोग अवश्य किया जाये।
  • यथा सम्भव आधी पोषक तत्व की मात्रा जीवांश खादों से दी जाये।
  • प्रजाति का चयन क्षेत्रीय अनुकूलता एवं समय विशेष के अनुसार किया जाये।
  • शुद्ध एवं प्रमाणित बीज की बुआई बीज शोधन के बाद की जाये।
  • संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर सही समय पर उचित विधि से किया जाये।
  • क्रान्तिक अवस्थाओं (ताजमूल अवस्था एवं पुष्पावस्था) पर सिंचाई समय से उचित विधि एवं मात्रा में की जाये।
  • गेहूँसा के प्रकोप होने पर उसका नियंत्रण समय से किया जाये।
  • अन्य क्रियायें संस्तुति के आधार पर समय से पूरी कर ली जाये।
  • तीसरे वर्ष बीज अवश्य बदल दिये जायें।
  • जीरोटिलेज एवं रेज्ड वेड विधि का प्रयोग किया जाये।
  • कीड़े एवं बीमारी से बचाव हेतु विशेष ध्यान दिया जाये।
गेंहू की खेती के लिए भूमि का चयन : गेंहू की बुवाई हेतु उचित जल निकास वाली दोमट भूमि उपयुक्त होती है | सिंचाई की सुविधा होने पर बलुई दोमट व मटियार दोमट में भी सफलतापूर्वक गेंहू की खेती की जा सकती है | भूमि का पीएच 6 से 7 के बीच होना चाहिए |
गेंहू की बुवाई हेतु खेत की  तैयारी तथा  नमी का संरक्षण : गेंहू के खेत में बुवाई के माह भर पहले 200-300 कुंतल प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद खेत में बराबर बिखेर देना चाहिए | मानसून की अन्तिम वर्षा का यथोचित जल संरक्षण करके खेत की तैयारी करें असिंचित क्षेत्रों में अधिक जुताई की आवश्यकता नहीं हैअन्यथा नमी उड़ने का भय रहता हैऐसे क्षेत्रों में सायंकाल जुताई करके दूसरे दिन प्रातः काल पाटा लगाने से नमी का सचुचित संरक्षण किया जा सकता है। इस प्रकार 4 से 5 जुताई कल्टीवेटर अथवा हैरो या देशी हल से करने के बाद पटेला चलाकर भूमि को समतल व भुरभुरी बना लें | अथवा गेहूं की बुवाई अधिकतर धान के बाद की जाती है। अतः गेहूं की बुवाई में बहुधा देर हो जाती है। हमे पहले से यह निश्चित कर लेना होगा कि खरीफ में धान की कौन सी प्रजाति का चयन करें और रबी में उसके बाद गेहूं की कौन सी प्रजाति बोये। गेहूं की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए धान की समय से रोपाई आवश्यक है जिससे गेहूं के लिए अक्टूबर माह में खाली हो जायें। दूसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि धान में पडलिंग लेवा के कारण भूमि कठोर हो जाती है। भारी भूमि से पहले मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई के बाद डिस्क हैरो से दो बार जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी बनाकर ही गेहूं की बुवाई करना उचित होगा। डिस्क हैरो के प्रयोग से धान के ठूंठ छोटे छोटे टुकड़ों मे कट जाते है। इन्हे शीध्र सड़ाने हेतु 15-20 किग्रा० नत्रजन (यूरिया के रूप में) प्रति हेक्टर खेत को तैयार करते समय पहली जुताई पर अवश्य दे देना चाहियें। ट्रैक्टर चालित रोटावेटर द्वारा एक ही जुताई में खेत पूर्ण रूप से तैयार हो जाता है।
बुआई का समय  : संस्तुत प्रजातियों की बुआई अक्टूबर के द्वितीय पक्ष से नवम्बर के प्रथम पक्ष तक भूमि की उपयुक्त नमी पर करें।गेहूँ की बुआई समय से एवं पर्याप्त नमी पर करना चाहिए। देर से पकने वाली प्रजातियों की बुआई समय से अवश्य कर देना चाहिए अन्यथा उपज में कमी हो जाती है। जैसे-जैसे बुआई में विलम्ब होता जाता हैगेहूँ की पैदावार में गिरावट की दर बढ़ती चली जाती है। दिसम्बर से बुआई करने पर गेहूँ की पैदावार 3 से कु0/ हेएवं जनवरी में बुआई करने पर 4 से 5 कु0/ हेप्रति सप्ताह की दर से घटती है। गेहूँ की बुआई सीडड्रिल से करने पर उर्वरक एवं बीज की बचत की जा सकती है।
गेंहू की खेती के लिए बीज की मात्रा :
लाइन में बुआई करने पर सामान्य दशा में 100 किग्रा० तथा मोटा दाना 125 किग्रा० प्रति हैतथा छिटकवॉ बुआई की दशा में सामान्य दाना 125 किग्रा० मोटा-दाना 150 किग्रा० प्रति हेकी दर से प्रयोग करना चाहिए। बुआई से पहले जमाव प्रतिशत अवश्य देख ले। राजकीय अनुसंधान केन्द्रों पर यह सुविधा निःशुल्क उपलबध है। यदि बीज अंकुरण क्षमता कम हो तो उसी के अनुसार बीज दर बढ़ा ले तथा यदि बीज प्रमाणित  हो तो उसका शोधन अवश्य करें।
गेंहू के बीजों को उपचारित करना :
बीजों का कार्बाक्सिन,एजेटौवैक्टर  पी.एस.वी. से उपचारित कर बोआई करें। सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों में रेज्ड वेड विधि से बुआई करने पर सामान्य दशा में 75 किग्रा० तथा मोटा दाना 100 किग्रा० प्रति हेकी दर से प्रयोग करें।
अंतरण पंक्तियों की दूरी :
सामान्य दशा में :
18 सेमी० से 20 सेमी० एवं गहराई 5 सेमी० ।
विलम्ब से बुआई की दशा में 
15 सेमी० से 18 सेमी० तथा गहराई 4 सेमी० ।
बुवाई की गहराई – कठिया गेंहू के बीजों को 4 से 5 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए |
गेंहू की बुवाई की विधि 
बुआई हल के पीछे कूंड़ों में या फर्टीसीडड्रिल द्वारा भूमि की उचित नमी पर करें। पलेवा करके ही बोना श्रेयकर होता है। यह ध्यान रहे कि कल्ले निकलने के बाद प्रति वर्गमीटर 400 से 500 बालीयुक्त पौधे अवश्य हों अन्यथा इसका उपज पर कुप्रभाव पड़ेगा। विलम्ब से बचने के लिए पन्तनगर जीरोट्रिल बीज  खाद ड्रिल से बुआई करें। ट्रैक्टर चालित रोटो टिल ड्रिल द्वारा बुआई अधिक लाभदायक है। बुन्देलखण्ड (मार व कावर मृदा) में बिना जुताई के बुआई कर दिया जाय ताकि जमाव सही हो।
गेहूँ की मेंड़ पर बुआई (बेड प्लान्टिग)
इस तकनीकी द्वारा गेहूँ की बुआई के लिए खेत पारम्परिक तरीके से तैयार किया जाता है और फिर मेड़ बनाकर गेहूँ की बुआई की जाती है। इस पद्धति में एक विशेष प्रकार की मशीन (बेड प्लान्टर) का प्रयोग नाली बनाने एवं बुआई के लिए किया जाता है। मेंडों के बीच की नालियों से सिचाईं की जाती है तथा बरसात में जल निकासी का काम भी इन्ही नालियों से होता है एक मेड़ पर 2 या 3 कतारो में गेंहूँ की बुआई होती है। इस विधि से गेहूँ की बुआई कर किसान बीज खाद एवं पानी की बचत करते हुये अच्छी पैदावार ले सकते है। इस विधि में हम गेहूँ की फसल को गन्ने की फसल के साथ अन्तः फसल के रूप में ले सकते है इस विधि से बुआई के लिए मिट्टी का भुरभुरा होना आवश्यक है तथा अच्छे जमाव के लिए पर्याप्त नमी होनी चाहिये। इस तकनीक की विशेषतायें एवं लाभ इस प्रकार है।
  • इस पद्धति में लगभग 25 प्रतिशत बीज की बचत की जा सकती है। अर्थात 30-32 किलोग्राम बीज एक एकड़ के लिए प्रर्याप्त है।
  • यह मशीन 70 सेन्टीमीटर की मेड़ बनाती है जिस पर या पंक्तियों में बोआई की जाती है। अच्छे अंकुरण के लिए बीज की गहराई 4 से 5 सेन्टीमीटर होनी चाहिये।
  • मेड़ उत्तर दक्षिण दिशा में होनी चाहिये ताकि हर एक पौधे को सूर्य का प्रकाश बराबर मिल सके।
  • इस मशीन की कीमत लगभग 70,000 रूपये है।
  • इस पद्धति से बोये गये गेहूँ में 25 से 40 प्रतिशत पानी की बचत होती है। यदि खेत में पर्याप्त नमी नहीं हो तो पहली सिचाई बोआई के 5 दिन के अन्दर कर देनी चाहिये।
  • इस पद्धति में लगभग 25 प्रतिशत नत्रजन भी बचती है अतः 120 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टर पर्याप्त होता है।
मेंड़ पर बोआई द्वारा फसल विविधिकरण
गेहूँ के तुरन्त बाद पुरानी मेंड़ो को पुनः प्रयोग करके खरीफ फसल में मूंगमक्कासोयाबीनअरहरकपास आदि की फसलें उगाई जा सकती है। इस विधि से दलहन एवं तिलहन की 15 से 20 प्रतिशत अधिक पैदावार मिलती है।
गेंहू की फसल पर उर्वरकों का प्रयोग :
उर्वरक की मात्रा :
उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना उचित होता है। बौने गेहूँ की अच्छी उपज के लिए मक्काधानज्वारबाजरा की खरीफ फसलों के बाद भूमि में 150:60:40 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से तथा विलम्ब से 80:40:30 क्रमशः नत्रजनफास्फोरस एवं पोटाश का प्रयोग करना चाहिए। सामान्य दशा में 120:60:40 किग्रा० नत्रजनफास्फोरस तथा पोटाश एवं 30 किग्रा० गंधक प्रति है. की दर से प्रयोग लाभकारी पाया गया है। जिन क्षेत्रों में डी.ए.पी. का प्रयोग लगातार किया जा रहा है उनमें 30 किग्रा० गंधक का प्रयोग लाभदायक रहेगा। यदि खरीफ में खेत परती रहा हो या दलहनी फसलें बोई गई हों तो नत्रजन की मात्रा 20 किग्रा० प्रति हेक्टर तक कम प्रयोग करें। अच्छी उपज के लिए 60 कुन्तल प्रति हेगोबर की खाद का प्रयोग करें। यह भूमि की उपजाऊ शक्ति को बनाये रखने में मद्द करती है।
लगातार धान-गेहूँ फसल चक्र वाले क्षेत्रों में कुछ वर्षों बाद गेहूँ की पैदावार में कमी आने लगती है। अतः ऐसे क्षेत्रों में गेहूँ की फसल कटने के बाद तथा धान की रोपाई के बीच हरी खाद का प्रयोग करें अथवा धान की फसल में 10-12 टन प्रति हक्टेयर गोबर की खाद का प्रयोग करें। अब भूमि में जिंक की कमी प्रायः देखने में  रही है। गेहूँ की बुआई के 20-30 दिन के मध्य में पहली सिंचाई के आस-पास पौधों में
 जिंक की कमी के लक्षण प्रकट होते हैंजो निम्न हैः
  • प्रभावित पौधे स्वस्थ पौधों की तुलना में बौने रह जाते है।
  • तीन चार पत्ती नीचे से पत्तियों के आधार पर पीलापन शुरू होकर ऊपर की तरफ बढ़ता है।
  • आगे चलकर पत्तियों पर कत्थई रंग के धब्बे दिखते है।
खड़ी फसल में यदि जिंक की कमी के लक्षण दिखाई दे तो 5 किग्रा० जिंक सल्फेट तथा 16 किग्रा० यूरिया को 800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेकी दर से छिड़काव करें। यदि यूरिया की टापड्रेसिंग की जा चुकी है तो यूरिया के स्थान पर 2.5 किग्रा०बुझे हुए चूने के पानी में जिंक सल्फेट घोलकर छिड़काव करें (2.5 किग्रा० बुझे हुए चूने को 10 लीटर पानी में सांयकाल डाल दे तथा दूसरे दिन प्रातः काल इस पानी को निथार कर प्रयोग करे और चूना फेंक दे)। ध्यान रखें कि जिंक सल्फेट के साथ यूरिया अथवा बुझे हुए चूने के पानी को मिलाना अनिवार्य है। धान के खेत में यदि जिंक सल्फेट का प्रयोग बेसल ड्रेसिंग के रूप में  किया गया हो और कमी होने की आशंका हो तो 20-25 किग्रा०/ हेजिंक सल्फेट की टाप ड्रेसिंग करें।
बारानी गेहूँ की खेती के लिए 40 किग्रा० नत्रजन, 30 किग्रा० फास्फेट तथा 30 किग्रा० पोटाश प्रति हेकी दर से प्रयोग करें। उर्वरक की यह सम्पूर्ण मात्रा बुआई के समय कूंड़ों में बीज के 2-3 सेमी० नीचे नाई अथवा चोगें अथवा फर्टीड्रिल द्वारा डालना चाहिए। बाली निकलने से पूर्व वर्षा हो जाने पर 15-20 किग्रा०/ हेनत्रजन का प्रयोग लाभप्रद होगा यदि वर्षा  हो तो 2 प्रतिशत यूरिया का पर्णीय छिड़काव किया जाये।
गेंहू की फसल पर खाद देने का समय व विधि
उर्वरकीय क्षमता बढ़ाने के लिए उनका प्रयोग विभिन्न प्रकार की भूमियों में निम्न प्रकार से किया जाये
  • दोमट या मटियारकावर तथा मार 
    नत्रजन की आधीफास्फेट  पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय कूँड़ों में बीज के 2-3 सेमी० नीचे दी जाये नत्रजन की शेष मात्रा पहली सिंचाई के 24 घण्टे पहले या ओट आने पर दे।
  • बलुई दोमट राकड़ व पडवा बलुई जमीन में नत्रजन की 1/3 मात्राफास्फेट तथा पोटाश की पूरी मात्रा को बुआई के समय कूंड़ों में बीज के नीचे देना चाहिए। शेष नत्रजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई (20-25 दिन) के बाद (क्राउन रूट अवस्था) तथा बची हुई मात्रा दूसरी सिंचाई के बाद देना चाहिए। ऐसी मिट्टियों में टाप ड्रेसिंग सिंचाई के बाद करना अधिक लाभप्रद होता है जहाँ केवल 40 किग्रा०नत्रजन तथा दो सिंचाई देने में सक्षम होवह भारी दोमट भूमि में सारी नत्रजन बुआई के समय प्लेसमेन्ट कर दें किन्तु जहॉ हल्की दोमट भूमि हो वहॉ नत्रजन की आधी मात्रा बुआई के समय (प्लेसमेंट) कूंड़ों में प्रयोग करे और शेष पहली सिंचाई पर टापड्रेसिंग करे।
गेंहू की फसल पर सिंचाई
क- आश्वस्त सिंचाई की दशा में
1. सामान्यत : बौने गेहूँ अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए हल्की भूमि में सिंचाइयॉ निम्न अवस्थाओं में करनी चाहिए। इन अवस्थाओं पर जल की कमी का उपज पर भारी कुप्रभाव पड़ता हैपरन्तु सिंचाई हल्की करे। 
पहली सिंचाई
क्राउन रूट-बुआई के 20-25 दिन बाद (ताजमूल अवस्था)
दूसरी सिंचाई
बुआई के 40-45 दिन पर (कल्ले निकलते समय)
तीसरी सिंचाई
बुआई के 60-65 दिन पर (दीर्घ सन्धि अथवा गांठे बनते समय) 
चौथी सिचाई
बुआई के 80-85 दिन पर (पुष्पावस्था)
पॅचावी सिंचाई 
बुआई के 100-105 दिन पर (दुग्धावस्था)
छठी सिंचाई
बुआई के 115-120 दिन पर (दाना भरते समय)
2. दोमट या भारी दोमट भूमि में निम्न चार सिंचाइयाँ करके भी अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है परन्तु प्रत्येक सिंचाई कुछ गहरी (8 सेमी० ) करें।
  • पहली सिंचाई बोने के 20-25 दिन बाद।
  • दूसरी सिंचाई पहली के 30 दिन बाद।
  • तीसरी सिंचाई दूसरी के 30 दिन बाद।
  • चौथी सिंचाई तीसरी के 20-25 दिन बाद।
ख- सीमित सिंचाई साधन की दशा में
यदि तीन सिंचाइयों की सुविधा ही उपलब्ध हो तो ताजमूल अवस्थाबाली निकलने के पूर्व तथा दुग्धावस्था पर करें। यदि दो सिंचाइयॉ ही उपलब्ध हों तो ताजमूल तथा पुष्पावस्था पर करें। यदि एक ही सिंचाई उपलबध हो तो ताजमूल अवस्था पर करें।
गेहूँ की सिंचाई में निम्नलिखित बातों पर ध्यान दें
  • बुआई से पहले खेत भली-भॅाति समतल करे तथा किसी एक दिशा में हल्का ढाल देंजिससे जल का पूरे खेत में एक साथ वितरण हो सके।
  • बुआई के बाद खेत को मृदा तथा सिंचाई के साधन के अनुसार आवश्यक माप की क्यारियों अथवा पट्टियों में बांट दे। इससे जल के एक साथ वितरण में सहायता मिलती है।
  • हल्की भूमि में आश्वस्त सिंचाई सुविधा होने पर सिंचाई हल्की (लगभग 6 सेमी० जल) तथा दोमट व भारी भूमि मे तथा सिंचाई साधन की दशा में सिंचाई कुछ गहरी (प्रति सिंचाई लगभग 8 सेमी० जल) करें।
नोट: ऊसर भूमि में पहली सिंचाई बुआई के 28-30 दिन बाद तथा शेष सिंचाइयां हल्की एवं जल्दी-जल्दी करनी चाहिये। जिससे मिट्टी सूखने  पाये।
ग- सिंचित तथा विलम्ब से बुआई की दशा में
गेहूँ की बुआई अगहनी धान तोरियाआलूगन्ना की पेड़ी एवं शीघ्र पकने वाली अरहर के बाद की जाती है किन्तु कृषि अनुसंधान की विकसित निम्न तकनीक द्वारा इन क्षेत्रों की भी उपज बहुत कुछ बढ़ाई जा सकती है।
  • पिछैती बुआई के लिए क्षेत्रीय अनकूलतानुसार प्रजातियों का चयन करें जिनका वर्णन पहले किया जा चुका है।
  • विलम्ब की दशा में बुआई जीरों ट्रिलेज मशीन से करें।
  • बीज दर 125 किग्रा० प्रति हेक्टेयर एवं संतुलित मात्र में उर्वरक (80:40:30) अवश्य प्रयोग करें।
  • बीज को रात भर पानी में भिगोकर 24 घन्टे रखकर जमाव करके उचित मृदा नमी पर बोयें।
  • पिछैती गेहूँ में सामान्य की अपेक्षा जल्दी-जल्दी सिंचाइयों की आवश्यकता होती है पहली सिंचाई जमाव के 15-20 दिन बाद करके टापड्रेसिंग करें। बाद की सिंचाई 15-20 दिन के अन्तराल पर करें। बाली निकलने से दुग्धावस्था तक फसल को जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहे। इस अवधि में जल की कमी का उपज पर विशेष कुप्रभाव पड़ता है। सिंचाई हल्की करें। अन्य शस्य क्रियायें सिंचित गेहूँ की भॉति अपनायें।
असिंचित अथवा बारानी दशा में गेहूँ की खेती
प्रदेश में गेहूँ का लगभग 10 प्रतिशत क्षेत्र असिंचित है जिसकी औसत उपज बहुत कम है। इसी क्षेत्र की औसत उपज प्रदेश की औसत उपज को कम कर देती है। परीक्षणों से ज्ञात हुआ है कि बारानी दशा में गेहूँ की अपेक्षा राई जौ तथा चना की खेती अधिक लाभकारी हैऐसी दशा में गेहूँ की बुआई अक्टूबर माह में उचित नमी पर करें। लेकिन यदि अक्टूबर या नवम्बर में पर्याप्त वर्षा हो गयी हो तो गेहूँ की बारानी खेती निम्नवत् विशेष तकनीक अपनाकर की जा सकती है।
  गेहूँ में फसल सुरक्षा प्रबन्धन 
विशेष बिन्दु : अनाज को धातु की बनी बखारियों अथवा कोठिलों या कमरे में जैसी सुविधा हो भण्डारण कर लें। वैसे भण्डारण के लिए धातु की बनी बखारी बहुत ही उपयुक्त है। भण्डारण के पूर्व कोठिलो तथा कमरे को साफ कर ले और दीवालो तथा फर्श पर मैलाथियान 50 प्रतिशत के घोल (1: 100) को 3 लीटर प्रति 100 वर्गमीटर की दर से छिड़कें। बखारी के ढक्कन पर पालीथीन लगाकर मिट्टी का लेप कर दें जिससे वायुरोधी हो जाये।
(क) प्रमुख खरपतवार व उनका नियंत्रण –
सकरी पत्ती
गेहुँसा एवं जंगली जई।
चौड़ी पत्ती
बथुआसेन्जीकृष्णनीलहिरनखुरीचटरी-मटरीअकरा-अकरीजंगली गाजरज्याजीखरतुआसत्याशी आदि।
नियंत्रण के उपाय
1. गेहुँसा एवं जंगली जई के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित खरपतवार नाशी में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को लगभग 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेबुआई के 20-25 दिन के बाद फ्लैटफैन नाजिल से छिड़काव करना चाहिए। सल्फोसल्फ्यूरॉन हेतु पानी की मात्रा 300 लीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए।
आइसोप्रोट्यूरॉन 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 1.25 किग्रा० प्रति हे0
सल्फोसल्फ्यूरॉन 75 प्रतिशत डब्लू.जी. की 33 ग्राम (2.5 यूनिट प्रति हे0) 
फिनोक्साप्राप-पी इथाइल 10 प्रतिशत ई.सी. की 1 लीटर प्रति हे0
क्लोडीनाफॅाप प्रोपैरजिल 15 प्रतिशत डब्लू.पी. की 400 ग्राम प्रति हे0
2. चौड़ी पत्ती के खरपतवार बथुआसिंजीकृष्णनीलहिरनखुरीचटरी-मटरीअकरा-अकरीजंगली गाजरगजरीप्याजीखरतुआसत्यानाशी आदि के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित खरपतवारनाशी रसायनों में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को लगभग 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेबुआई के 25-30 दिन के बाद फ्लैटफैन नाजिल से छिड़काव करना चाहिए –
2-4 डी सोडियम सॉल्ट 80 प्रतिशत टेक्निकल की 625 ग्राम प्रति हे0
2-4 डी मिथइल एमाइन सॉल्ट 58 प्रतिशत डब्लू.एस.सी. की 1.25 लीटर प्रति हे0
कार्फेन्ट्राजॉन इथाइल 40 प्रतिशत डी.एफ. की 50 ग्राम प्रति हे0
मेट सल्फ्यूरॉन इथाइल 20 प्रतिशत डब्लू.पी. की 20 ग्राम प्रति हे0
3. सकरी एवं चौड़ी पत्ती दोनों प्रकार के खरपतवारों के एक साथ नियंत्रण हेतु निम्नलिखित खरपतवारनाशी रसायनों में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्र को लगभग 300 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेअर फ्लैक्टफैन नाजिल से छिड़काव करना चाहिए मैट्रीब्यूजिन हेतु पानी की मात्रा 500-600 लीटर प्रति हेहोनी चाहिए –
पेण्डीमेथलीन 30 प्रतिशत ई.सी. की 3.30 लीटर प्रति हेबुआई के दिन के अन्दर।
सल्फोसल्फ्यूरॉन 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 33 ग्राम (2.5 यूनिट) प्रति हेबुआई के 20-25 दिन के बाद।
मैट्रीब्यूजिन 70 प्रतिशत डब्लू.पी. की 250 ग्राम प्रति हेबुआई के 20-25 दिन के बाद।
सल्फोसल्फ्यूरॉन 75 प्रतिशत + मेट सल्फोसल्फ्यूरॉन मिथाइल 5 प्रतिशत डब्लू.जी. 400 ग्राम (2.50 यूनिट) बुआई के 20 से 25 दिन बाद।
4. गेहूँ की फसल में खरपतवार नियंत्रण हेतु क्लोडिनोफाप 15 प्रतिशत डब्लू.पी. + मेट सल्फ्यूरान प्रतिशत डब्लू.पी. की 400 ग्राम मात्रा
प्रति हेक्टेयर की दर से 1.25 मिली० सर्फेक्टेंट 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
(ख) गेंहू की फसल को नुक्सान पहुँचाने वाले प्रमुख कीट व उनकी रोकथाम –
दीमक
यह एक सामाजिक कीट है तथा कालोनी बनाकर रहते है। एक कालोनी में लगभग 90 प्रतिशत श्रमिक, 2-3 प्रतिशत सैनिकएक रानी  एक राजा होते है। श्रमिक पीलापन लिये हुए सफेद रंग के पंखहीन होते है जो फसलों को क्षति पहुंचाते है।
गुजियावीविल
यह कीट भूरे मटमैले रंग का होता है जो सूखी जमीन में ढेले एवं दरारों में रहता है। यह कीट उग रहे पौधों को जमीन की सतह काट कर हानि पहुँचता है।
माहूँ
हरे रंग के शिशु एवं प्रौढ़ माहूँ पत्तियों एवं हरी बालियों से रस चूस कर हानि पहुंचाते है। माहूँ मधुश्राव करते है जिस पर काली फफूँद उग आती है जिससे प्रकाश संश्लेषण में बाधा उत्पन्न होती है।
नियंत्रण के उपाय
  • बुआई से पूर्व दीमक के नियंत्रण हेतु क्लोरोपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. अथवा थायोमेथाक्साम 30 प्रतिशत एफ.एस. की 3 मिली० मात्रा प्रति किग्रा० बीज की दर से बीज को शोधित करना चाहिए।
  • ब्यूवेरिया बैसियाना 1.15 प्रतिशत बायोपेस्टीसाइड (जैव कीटनाशी) की 2.5 किग्रा० प्रति हे0 60-70 किग्रा०गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छिंटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से दीमक सहित भूमि जनित कीटों का नियंत्रण हो जाता है।
  • खड़ी फसल में दीमक/गुजिया के नियंत्रण हेतु क्लोरोपायरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. 2.5 ली० प्रति हेकी दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करना चाहिए।
  • माहूँ कीट के नियंत्रण हेतु डाइमेथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. अथवा मिथाइल-ओ-डेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी. की 1.0 ली० मात्रा अथवा थायोमेथाक्साम 25 प्रतिशत डब्लू.जी. 500 ग्राम प्रति हेलगभग 750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। एजाडिरेक्टिन (नीम आयल) 0.15 प्रतिशत ई.सी. 2.5 ली० प्रति हेक्टेयर की दर से भी प्रयोग किया जा सकता है।
(ग) गेंहू की फसल पर लगने वाले प्रमुख रोग व उनका नियंत्रण –
गेरूई रोग (काली भूरी एवं पीली)
गेरूई कालीभूरे एवं पीले रंग की होती है। गेरूई की फफूँदी के फफोले पत्तियों पर पड़ जाते है जो बाद में बिखर कर अन्य पत्तियों को प्रभावित करते है। काली गेरूई तना तथा पत्तियों दोनों को प्रभावित करती है।
करनाल बन्ट
रोगी दाने आंशिक रूप से काले चूर्ण में बदल जाते है।
अनावृत कण्डुआ
इस रोग में बालियों के दानों के स्थान पर काला चूर्ण बन जाता है जो सफेद झिल्ली द्वारा ढका रहता है। बाद में झिल्ली फट जाती है और फफूँदी के असंख्य वीजाणु हवा में फैल जाते है जो स्वस्थ्य बालियों में फूल आते समय उनका संक्रमण करते है।
पत्ती धब्बा रोग
इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में पीले  भूरापन लिये हुए अण्डाकार धब्बे नीचे की पत्तियों पर दिखाई देते है। बाद में इन धब्बों का किनारा कत्थई रंग का तथा बीच में हल्के भूरे रंग के हो जाते है।
सेहूँ रोग 
यह रोग सूत्रकृमि द्वारा होता है इस रोग में प्रभावित पौधों की पत्तियों मुड कर सिकुड जाती है। प्रभावित पौधें बोने रहे जाते है तथा उनमें स्वस्थ्य पौधे की अपेक्षा अधिक शाखायें निकलती है। रोग ग्रस्त बालियाँ छोटी एवं फैली हुई होती है और इसमें दाने की जगह भूरे अथवा काले रंग की गॉठें बन जाते हैं जिसमें सूत्रकृमि रहते है।
नियत्रण के उपाय
1. बीज उपचार
  • अनावृत कण्डुआ एवं करनाल बन्ट के नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत डब्लू.एस. की 2.5 ग्राम अथवा कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.5 ग्राम अथवा कार्बाक्सिन 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.0 ग्राम अथवा टेबूकोनाजोल प्रतिशत डी.एस. की 1.0 ग्राम प्रति किग्रा०बीज की दर से बीज शोधन कर बुआई करना चाहिए।
  • अनावृत कण्डुआ एवं अन्य बीज जनित रोगों के साथ-साथ प्रारम्भिक भूमि जनित रोगों के नियंत्रण हेतु कार्बाक्सिन 37.5 प्रतिशत+थीरम 37.5 प्रतिशत डी.एस./डब्लू.एस. की 3.0 ग्राम मात्रा प्रति किग्रा०बीज की दर से बीजशोधन कर बुआई करना चाहिए।
  • गेहूँ रोग के नियंत्रण हेतु बीज को कुछ समय के लिए 2.0 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोये (200 ग्राम नमक को 10 लीटर पानी घोलकर) जिससे गेहूँ रोग ग्रसित बीज हल्का होने के कारण तैरने लगता है। ऐसे गेहूँ ग्रसित बीजों को निकालकर नष्ट कर दें। नमक के घोल में डुबोये गये बीजों को बाद में साफ पानी से 2-3 बार धोकर सुखा लेने के पश्चात बोने के काम में लाना चाहिए।
2. भूमि उपचार
  • भूमि जनित एवं बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु बायोपेस्टीसाइड (जैव कवक नाशी) ट्राइकोडरमा बिरडी प्रतिशत डब्लू पी.अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.5 किग्रा० प्रति हे0 60-75 किग्रा० सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से अनावृत्त कण्डुआकरनाल बन्ट आदि रोगों के प्रबन्धन में सहायता मिलती है।
  • सूत्रकृमि के नियंत्रण हेतु कार्बोफ्यूरान जी 10-15 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करना चाहिए।
3. पर्णीय उपचार
  • गेरूई एवं पत्ती धब्बा रोग के नियंत्रण हेतु थायोफिनेट मिथाइल 70 प्रतिशत डब्लू.पी. की 700 ग्राम अथवा जिरम 80 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा०अथवा मैकोजेब 75 डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा०अथवा जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा०प्रति हे0लगभग 750 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
  • गेरूई के नियंत्रण हेतु प्रोपीकोनाजोल 25 प्रतिशत ई.सी. की 500 मिली० प्रति हेक्टेयर लगभग 750 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
  • करलान बन्ट के नियन्त्रण हेतु वाइटर टैनाल 25 प्रतिशत डब्लू.पी. 2.25 किग्रा०अथवा प्रोपीकोनाजोल 25 प्रतिशत ई.सी., 500 मिली० प्रति हैक्टर लगभग 750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये ।
(घ). प्रमुख चूहे
खेत का चूहा (फील्ड रैट) मुलायम बालों वाला खेत का चूहा (साफ्ट फर्ड फील्ड रैट) एवं खेत का चूहा (फील्ड माउस)।
नियंत्रण के उपाय
गेहूँ की फसल को चूहे बहुत अधिक क्षति पहुँचाते है। चूहे की निगरानी एवं जिंक फास्फाइड 80 प्रतिशत से नियंत्रण का साप्ताहिक कार्यक्रम निम्न प्रकार सामूहिक रूप से किया जाय तो अधिक सफलता मिलती है
पहला दिन
खेत की निगरानी करे तथा जितने चूहे के बिल हो उसे बन्द करते हुए पहचान हेतु लकड़ी के डन्डे गाड़ दे।
दूसरा दिन
खेत में जाकर बिल की निगरानी करें जो बिल बन्द हो वहाँ से गड़े हुए डन्डे हटा दें जहाँ पर बिल खुल गये हो वहाँ पर डन्डे गड़े रहने दे। खुले बिल में एक भाग सरसों का तेल एवं 48 भाग भूने हुए दाने का बिना जहर का बना हुआ चारा बिल में रखे।
तीसरा दिन
बिल की पुनः निगरानी करे तथा बिना जहर का बना हुआ चारा पुनः बिल में रखें।
चैथा दिन
जिंक फास्फाइड 80 प्रतिशत की 1.0 ग्राम मात्रा को 1.0 ग्राम सरसों का तेल एवं 48 ग्राम भूने हुए दाने में बनाये गये जहरीले चारे का प्रयोग करना चाहिए।
पॉचवा दिन
बिल की निगरानी करे तथा मरे हुए चूहों को जमीन में खोद कर दबा दे।
छठा दिन
बिल को पुनः बन्द कर दे तथा अगले दिन यदि बिल खुल जाये तो इस साप्ताहिक कार्यक्रम में पुनः अपनायें।
ब्रोमोडियोलोन 0.005 प्रतिशत के बने बनाये चारे की 10 ग्राम मात्रा प्रत्येक ज़िन्दा बिल में रखना चाहिए। इस दवा से चूहा 3-4 बार खाने के बाद मरता है।
मुख्य बिन्दु परिस्थिति अनुसार व प्रजातिवार
  • समय से बुआई करे।
  • क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत प्रजाति का चयन करके शुद्ध एवं प्रमाणित शोधित बीज का ही प्रयोग करें।
  • मृदा परीक्षण के आधार पर संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग किया जाय। बोते समय उचित मात्रा में उर्वरक का प्रयोग अवश्य करें।
  • सिंचन क्षमता का भरपूर उपयोग करते हुए संस्तुति अनुसार सिंचाइयॉ करें।
  • यदि पूर्व फसल में या बुआई के समय जिंक प्रयोग न किया गया हो तो जिंक सल्फेट का प्रयोग खड़ी फसल में संस्तुति के अनुसार किया जाय।
  • खरपतवारों के नियंत्रण हेतु रसायनों को संस्तुति के अनुसार सामायिक प्रयोग करे।
  • रोगों एवं कीड़ों पर समय से नियन्त्रण किया जाये।
एकीकृत प्रबन्धन
  • पूर्व में बोई गयी फसलों के अवशेषों को एकत्र कर कम्पोस्ट बना देना चाहिए।
  • हो सके तो दिमकौलों को खोदकर रानी दीमक को मार दें।
  • दीमक प्रकोपित क्षेत्रों में नीम की खली 10 कु0/ हेकी दर से प्रयोग करना चाहिए।
  • दीमक प्रकोपित खेतों में सदैव अच्छी तरह से सड़ी गोबर की खाद का ही प्रयोग करें।
  • दीमक ग्रसित क्षेत्रों में क्लोरोपाइरीफास 20 ई.सी. मिली० प्रति किग्रा०की दर से बीज शोधन के उपरान्त ही बुआई करें।
  • समय से बुआई करने से माहूँसैनिक कीट आदि का प्रयोग कम हो जाता है।
  • मृदा परीक्षण के आधार पर ही उर्वरकों का प्रयोग करें। अधिक नत्रजनित खादों के प्रयोग से माहूँ एवं सैनिक कीट के प्रकोप बढ़ने की सम्भावना रहती है।
  • कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं का संरक्षण करें।
  • खड़ी फसल में दीमक का प्रकोप होने पर क्लोरोपाइरीफास 20 ई.सी.2-3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचाई के पानी के साथ अथवा बालू में मिला कर प्रयोग करें।
  • वेवेरिया वेसियाना की किग्रा०मात्रा को 20 किग्रा० सड़ी गोबर की खाद मे मिलाकर 10 दिनों तक छाये में ढ़क कर रख दे तथा बुआई करते समय कूड़ में इसे डालकर बुआई करे।
प्रदेश में जीरो टिलेज’ द्वारा गेहूँ की खेती की उन्नत विधियाँ
प्रदेश के धान गेहूँ फसल चक्र में विशेषतौर पर जहॉ गेहूँ की बुआई में विलम्ब हो जाता हैंगेहूँ की खेती जीरो टिलेज विधि द्वारा करना लाभकारी पाया गया है। इस विधि में गेहूँ की बुआई बिना खेत की तैयारी किये एक विशेष मशीन (जीरों टिलेज मशीन) द्वारा की जाती है।
लाभ : इस विधि में निम्न लाभ पाए गए है
  • गेहूँ की खेती में लागत की कमी (लगभग 2000 रूपया प्रति हे0)
  • गेहूँ की बुआई 7-10 दिन जल्द होने से उपज में वृद्धि।
  • पौधों की उचित संख्या तथा उर्वरक का श्रेष्ठ प्रयोग सम्भव हो पाता है।
  • पहली सिंचाई में पानी न लगने के कारण फसल बढ़वार में रूकावट की समस्या नहीं रहती है।
  • गेहूँ के मुख्य खरपतवारगेहूंसा के प्रकोप में कमी हो जाती है।
  • निचली भूमि नहर के किनारे की भूमि एवं ईट भट्ठे की जमीन में इस मशीन समय से बुआई की जा सकती है।
विधि : जीरो टिलेज विधि से बुआई करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है
  • बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए। यदि आवश्यक हो तो धान काटने के एक सप्ताह पहले सिंचाई कर देनी चाहिए। धान काटने के तुरन्त बाद बोआई करनी चाहिए।
  • बीज दर 125 किग्रा०प्रति हेरखनी चाहिए।
  • दानेदार उर्वरक (एन.पी.के.) का प्रयोग करना चाहिए।
  • पहली सिंचाईबुआई के 15 दिन बाद करनी चाहिए।
  • खरपतवारों के नियंत्रण हेतु तृणनाशी रसायनों का प्रयोग करना चाहिए।
  • भूमि समतल होना चाहिए।
नोट : गेहूँ फसल कटाई के पश्चात फसल अवशेष को न जलाया जाये।
गेंहू की कटाई : जब गेंहू की फसल पक जाएँ,गेंहू के पौधे सूख जाएँ व बाली को दोनों हाथों की हथेली के बीच रखकर मीसने पर निकले दाने को दांत पर रखकर काटने से कट की आवाज आये तब गेंहू के खेत की कटाई कर लेनी चाहिए |
गेंहू की उपज या पैदावार : सिंचित क्षेत्रों में वैज्ञानिक विधि से खेती करने पर उपज – 55-60 कुंतल प्रति हेक्टेयर,असिंचित क्षेत्रों में वैज्ञानिक विधि से खेती करने पर उपज 20-30 कुंतल प्रति हेक्टेयर