लीची की खेती (Litchi organic farming) लीची की सघन बागवानी वैज्ञानिक विधि से कैसे करें, हिंदी में पूरी जानकारी(How to make litchi intensive horticulture by scientific method)
लीची की खेती
वानस्पतिक नाम –Litchi Chinensis, Sonn.
कुल – Sapindaceae
गुणसूत्रों की संख्या –
उद्भव स्थल – दक्षिणी चीन,
लीची फल मस्तिष्क व हृदय के पोषण के लिए अच्छा है । लीची में प्रोटीन 1.15 शर्करा 15.3,तथा खनिज लवण 4.5 प्रतिशत पाए जाते हैं ।
लीची उत्पादन के मामले में चाइना का पहला व भारत का विश्व में दूसरा स्थान है ।
जलवायु व तापमान :
लीची एक उपोष्ण जलवायु का पौधा है । इसके समुचित वृद्धि व विकास के लिए हल्की नम व गर्म जलवायु उपयुक्त होती है । समुद्र तक से 1000 मीटर ऊंचाई तक लीची को आसानी से उगाया जाता है । लीची के पौधे के लिए न तो अधिक ठंड हो और न ही अधिक गर्मी ऐसी जलवायु बेहद उपयुक्त होती है । वार्षिक वर्षा 90 से 125 सेंटीमीटर वाले क्षेत्रों में लीची की बागवानी की जाती है। 75 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी इसकी खेती होती है । लीची के पौधों के समुचित विकास के लिए 15 से 28०C तापमान उपयुक्त होता है ।
भूमि का चयन –
लीची की बागवानी के लिए 5.5 से 7.0 पीएच वाली उचित जल निकास वाली गहरी जीवांश युक्त दोमट मिट्टी सर्वोत्तम रहती है । लीची में लिए अम्लीय मृदा सर्वोत्तम होती है इसलिए बिहार राज्य में लीची उत्पादक खेतों की मिट्टी में 30 प्रतिशत तक चूना पाया जाता है । लीची के लिए चयनित मृदा में कार्बनिक पदार्थ की प्रचुरता होनी चाहिए ।
लीची की उन्नत किस्में –
● अगेती किस्में – देहरादून, अर्ली लार्ज रेड,रोज सेन्टेड,
● मध्यमी किस्में – सहारनपुर प्याजी,सहारनपुर पिगलिक,शाही,गुलाब,चायना,
● पछेती किस्में – इलायची, कलकतिया, गोला,रामनगर,लेट सीडलेस,
लीची का प्रवर्धन
किसान भाई लीची की बागवानी हेतु प्रवर्धन की निम्न विधियाँ प्रयोग में ला सकते हैं :
● गूटी द्वारा
●भेंट कलम लगाकर
● दाब कलम द्वारा
● मुकुलन द्वारा
● बीज को बोकर
उक्त सभी विधियों में लीची की अधिकतम उपज हेतु गूटी अथवा दाब कलम द्वारा ही लीची का प्रर्वधन करते हैं। बीज के द्वारा उगाए गए पौधों में मातृ वृक्ष के समान पैतृक गुण नही आ पाते जिससे उत्पादन व फलों की गुणवत्ता पर भी बुरा असर पड़ता है । पौधों में फलन भी देर से होती है ।
गूटी विधि द्वारा लीची का प्रवर्धन –
लीची की एक उपयुक्त मोटाई की शाख पर 2.5 से 3 सेंटीमीटर वलय नीचे भाग पर बनाते हैं अब उस छीले हुए भाग को इंडोल ब्यूटारिक अम्ल (रूटोंन) से उपचारित करके उस पर वर्मीकुलाइट और घास का मिश्रण अथवा बिहार राज्य में बनाये गए विशेष मिश्रण जो कि 60 भाग तालाब की मिट्टी+20 भाग बालू + 10 भाग बोर का टुकड़ा+ 10 भाग सड़ी हुई अंडी की खली+1 भाग यूरिया से बनाया जाता है, से ढक देते हैं । एकलाथीन के कपड़े से कसकर बांध देते हैं । इससे छिले हुए भाग पर श्वसन क्रिया तो होती है किंतु वाष्पीकरण की क्रिया बन्द हो जाती है।
एकलाथीन कपड़े से गूटी बांधने से 60 दिन के अंदर पतली जड़े निकल आती हैं । गूटी को सावधानी पूर्वक काटकर अलग करके गमलों में लगाकर नर्सरी में लगाते हैं । इस क्रिया में जड़ें पतली निकलती हैं जो टूटती नही है जिससे पौधे मरते नही है ।
किसान भाई लीची का प्रवर्धन वर्षा ऋतु के आगमन यानी कि जून माह में करें । लीची की एक सुड़ौल व उपयुक्त मोटाई की डाल पर नीचे भाग पर 2 से 2.5 सेंटीमीटर का छिलका हटा दें । अब छल्ले (वलय) के रूप से छीले गए भाग पर इंडोल ब्यूटारिक अम्ल(रूटोंन) से उपचारित कर पर्याप्त नमी वाली मास घास से ढके ।
ऊपर से एल्काथीन के टुकड़े से लपेटकर कसकर बांधने से छीले गए वलय का वाष्पीकरण रुक जाता है। इस क्रिया के करीब 60 से 70 दिन में छीले गए साख से जड़ें निकल आती हैं । मुख्य साख से काटकर इन्हें किसी गमले में रोपकर छाया वाले स्थान पर रख देते हैं । रोपाई से पहले शाखाओं की पत्तियां कम कर देना चाहिए । जिससे वाष्पन कम हो ।
किसान भाइयों इस प्रकार साल भर बाद खेत में रोपाई में लिए लीची के पौधे तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार तैयार पौधों की जड़ें मोटी होती हैं जो रोपाई के समय टूट जाती हैं जिससे रोपे गए पौधे के मरने की संभावना अधिक होती है । किसान भाई उपरोक्त विधि को ही अपनाएं ।
लीची की रोपाई का समय :
अगस्त से सितम्बर तक ।
सिंचाई की सुविधा होने पर फरवरी से मार्च में भी कर सकते हैं ।
लीची की रोपाई :
लीची की रोपाई के लिए किसान भाई माह अप्रैल से मई में आवश्यकता के अनुसार भूमि में 10×10 की दूरी पर 90 सेंटीमीटर व्यास के 90 सेंटीमीटर गहराई के गड्ढे खोद लेते हैं । गड्ढों को करीब 30-35 दिन तक सूर्य के प्रकाश में तपने के लिए खुला छोड़ देना चाहिए । एक बारिश के बाद प्रति गड्ढों में 15 से 20 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद,10 किलोग्राम लीची के बाग की मिट्टी,व 250 ग्राम फफूंदी रोगों से बचाव हेतु एल्ड्रिन धूल व 2 किलोग्राम चूना सभी को मिलाकर गड्ढों में भर दें । पूरी वर्षा तक गड्ढे खुला छोड़ दें । वर्षा के पानी से गड्ढे की मिट्टी अच्छी प्रकार से बैठ जाएगी ।
माह अगस्त में शाम के समय लीची के पौधों की रोपाई गड्ढों के बीचोबीच में कर देनी चाहिए । रोपाई करते समय तनो की ओर ऊंचा करते हुए मिट्टी की ढाल बना देना चाहिए जिससे सिंचाई करते समय तने में पानी न पड़े । अन्यथा जड़ों की सड़ने की सम्भवना बनी रहेगी । रोपाई के बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए ।
लीची में सिंचाई व पौधों की देखभाल –
लीची के पौधों को पाले व लू से बचाव के लिए सिंचाई करनी चाहिए । तेज लू व पाले से बचाव में लिए पौधों के ऊपर घास फूस की पूरब की ओर से मुंह खुला कर पौधों को ढक देते हैं । सामान्यतः लीची में पुष्पन के पूर्व व फलन तक 2 से 3 सिंचाइयाँ करनी चाहिए ।
निराई – गुड़ाई
लीची के पेड़ों की जड़ों के आस पास निराई गुड़ाई कर खरपतवार निकाल देने चाहिए ताकि पोषक तत्व सीधे पौधों तक पहुंच सकें । व खरपतवार में ही कीड़े-मकोड़े छिपे होते हैं जो पौधों को नुकसान पहुचाते हैं । इसलिए नियमित रूप से निराई गुड़ाई कर खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए ।
काट-छांट व पौधों की देखभाल –
लीची के पौधों में पौधे में अनावश्यक कमजोर व अविकसित शाखाओं को काट छाँट कर अलग कर देना चाहिए । पौधे बड़े होने के बाद उनमें काट छाँट संभव नही हो पाता ।
लीची में पुष्पन व फलन :
लीची में पुष्पन फरवरी माह में शुरू हो जाती है । पौधे लगाने के 5 से 6 वर्ष में लीची से फल मिलना आरम्भ हो जाते हैं । वैसे तो लीची में फलन 100 साल तक होती है किंतु लीची के पेड़ से अच्छी फलन 10 से 12 वर्ष के बाद ही प्रारम्भ होती है ।
लीची के फलों की तुड़ाई :
लीची के फल जब हल्की लाल रंग व गद्दर अवस्था में हों लीची के फलों को 20-25 सेंटीमीटर की टहनियों के साथ गुच्छे में तोड़कर 25 से 30 सेंटीमीटर गहरी टोकरियों में भरकर रख दिया जाता है ।
लीची का भंडारण :
लीची को सामान्यतः ताजी ही प्रयोग में लाएं । तथा ताजी लीची ही मंडियों में भेजें । यदि भंडारण करने की आवश्यकता पड़ जाए तो 4.4०C से 6.1०C तापमान व 90 प्रतिशत सापेक्षित आर्दता पर शीत ग्रहों में भंडारित कर देना चाहिये ।
उपज :
लीची से प्रति पेड़ औसतन 1.5 से 2 कुंतल उपज प्राप्त होती है । 1 हेक्टेयर से औसतन 150 से 200 कुन्तल उपज प्राप्त होती है ।