मटर की खेती : Matar ki kheti उन्नत मटर की खेती,आधुनिक मटर की खेती की पूरी जानकारी हिंदी में पढ़ें (Pea farming in hindi) मटर की खेती व...
मटर की खेती : Matar ki kheti उन्नत मटर की खेती,आधुनिक मटर की खेती की पूरी जानकारी हिंदी में पढ़ें (Pea farming in hindi)
मटर की खेती
वानस्पतिक नाम : pisum satium
or pisum species
कुल : लेग्यूमिनेसीगुणसूत्र की संख्या : 14
मटर का उपयोग एक मल्टी अनाज
के रूप में किया जाता है | इसके फलियों से निकलने वाले हरे दाने सब्जी के रूप में
तथा सूखे दाने का प्रयोग सब्जी,दाल,सूप व मिक्स रोटी के रूप में किया जाता है |
उत्तर भारत में हरी मटर की दाल चाट बनाने में भी किया जाता है | हरे मटर के दानों
को डिब्बों में परिरक्षित कर लम्बे समय तक उपयोग में लाते हैं |
मटर में पाए जाने वाले पोषक तत्व : (प्रतिशत में)
प्रोटीन – 22.5 कार्बोहाइड्रेट – 62.1 कैल्सियम – 64
आयरन – 4.8 जल – 72.1 वसा-1.8 खनिज लवण- 0.8
मटर का उद्भव स्थान :
वैज्ञानिकों के अनुसार मटर का उद्भव स्थान पश्चिम भारत व एशिया माइनर व इटली के
मध्य माना जाता है |
मटर की उन्नत किस्में :
सब्जी वाली मटर की उन्नत
किस्में : जवाहर मटर 1 व जवाहर मटर
2,अपर्णा मटर,अर्ली दिसंबर,न्यूलाइन परफेक्शन,असौजी,बोनविले,टाइप 19,टाइप
2=36,टाइप 163,आजाद मटर 1,मिटीओर,मधु,पंत उपहार,पूसा प्रगति,
दाल वाली मटर की उन्नत
किस्में : हंस, स्वर्णरेखा,रचना,एल०
116,वीएल 1,पन्त मटर 5, पीजी 3,ईसी 33866,
जलवायु व तापमान : मटर एक
शरद ऋतु वाली व पाले के सहनशील फसल है | मटर की खेती सभी समशीतोष्ण कटिबन्धीय
क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है ,मटर के दानों के अंकुरण के लिए उपयुक्त
तापमान 22 ०C उपयुक्त होता है | मटर के पौधे के सम्पूर्ण विकास के लिए 13 से 18० C
उपयुक्त तापमान होता है |
मटर की खेती के लिए उपयुक्त
भूमि का चयन –
मटर की खेती से अधिकतम उपज
के लिए मिटटी का चयन बेहद आवश्यक कारक है | मटर के पौधों के समुचित विकास के लिए
उचित जल निकास वाली दोमट व मटियार दोमट अच्छी होती है | मटर की खेती के लिए मिटटी
का पीएच 6.5-7.5 होना चाहिए |
भूमि की तैयारी :
मटर की खेती के लिए भूमि की
तैयारी के क्रम में एक बार मिटटी पलटने वाले हल जुताई करके देशी हल से 3 से 4
जुताइयाँ करनी चाहिए,हर जुताई के बाद पाटा चलाकर ढेले फोड़कर मिटटी को भुरभरी व
समतल अवश्य कर लें | किसान भाई अगर संचित क्षेत्र में मटर की बुवाई करने जा रहे
हैं तो भूमि के तैयारी के समय BHC बेंजीन हेक्सा क्लोराइड या हेप्टाक्लोर की 20-25
किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर भूमि में मिला देना चाहिए जिससे फसल पर
लगने वाले दीमक का प्रकोप कम हो जाता है |
बुवाई का समय :
भारत के उत्तरी भाग में तथा
उत्तर प्रदेश के मैदानी भाग में मटर की बुवाई 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक की जाती
है | अक्टूबर माह के शुरुआत में तने की प्रकोप होता है जिससे बचाव हेतु दवा डालकर
मटर की बुवाई किसान भाई अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से भी शुरू कर सकते हैं | समुद्र
तल से 2500 मीटर से नीचे वाले स्थानों में नवम्बर अथवा फरवरी में तथा पर्वतीय
क्षेत्रों में मार्च अथवा जुलाई तथा अगस्त में मटर की बुवाई की जाती है |
बीज की मात्रा :
सब्जी वाले मटर के लिए – 100-120
किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मटर की बोनविले
में 20 से 30 किलोग्राम कम बीज लगता है |
दाल वाली मटर के लिए – 75-100
किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
बीज को उपचारित करना :
बीज को बुवाई से पूर्व किसी
भी फफूंदनाशक यथा थायरम अथवा केप्टान 0.25 मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की मात्रा
की दर से उपचारित करना चाहिए | मात्र के बीजों पर जड़ें जल्दी आयें इसके लिए
राईजोबियम कल्चर से बीजों को उपचारित करना चाहिए |
अंतरण :
20 से 30 सेंटीमीटर कतार से
कतार की दूरी व पौध से पौध की दूरी 4 से 5 सेंटीमीटर पर मटर की बुवाई करना उत्तम
होता है |
मटर की बुवाई की विधि :
किसान भाई मटर की बुवाई
देशी हल से अथवा सीडड्रिल की मदद से मेड से 20 से 30 सेंटीमीटर अंतराल पर कतारों
में तथा पौधे से पौधे के मध्य दूरी 4 से 5 सेंटीमीटर की दूरी पर करें,मटर की सघन
बुवाई करने से अनावश्यक खरपतवारों को उगने के लिए स्थान कम मिलता है जिससे फसल की
उपज बढ़ जाती है |
खाद व उर्वरक :
मटर की फसल से अच्छी उपज
लेने के लिए कार्बनिक व अकार्बनिक दोनों प्रकार की खादों व उर्वरकों की आवश्यकता
होती है | खेत में 3 ऐ 4 सप्ताह पहले बुवाई से पहले 200 से 250 कुंतल प्रति
हेक्टेयर से सड़ी गोबर की खाद मिला देनी चाहिए |
खेत में उर्वरकों के प्रयोग
से पहले मृदा परीक्षण अवश्य करवा लेना चाहिए | परीक्षण के परिणामों के आधार पर
उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए | फिर भी यदि मिटटी की नही कराई गयी तो –
नाइट्रोजन – 20 से 30
किलोग्राम
फास्फोरस (डाई अमोनियम
फास्फाइड ) - 50 से 60 किलोग्राम
म्यूरेट ऑफ़ पोटाश – 30 से
40 किलोग्राम
सलफर : 10 किलोग्राम प्रति
हेक्टेयर
जिंक सल्फेट : 15 से 20
किलोग्राम/हेक्टेयर
बुवाई के साथ पहले NPK यानि
नाइट्रोजन,फास्फोरस व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा खेत में समानं रूप से फैला देना
चाहिए | यदि FERTI-SEED DRILL की उपलब्धता हो तो 4 से 5 सेंटीमीटर की दूरी पर बीजों को 4
से 5 सेंटीमीटर की गहराई पर उर्वरक के साथ बोयें |
सिंचाई व जल निकास प्रबन्धन
:
अच्छे अंकुरण के लिए मिटटी
में नमी का होना अति आवश्यक है | मटर की फसल को 20 से 25 सेंटीमीटर हल्की बुवाई के
1 से डेढ़ माह बाद सिंचाई की आवश्यकता होती है |
मटर की फसल पर दूसरी सिंचाई
बुवाई के 70 से 75 दिन बाद करनी चाहिए | वैसे तो मटर की फसल के लिए अधिक सिंचाई की
आवश्यकता नही होती, फिर भी मटर में पुष्पावस्था के दौरान हल्की सिंचाई अवश्य करनी
चाहिए |
मटर की फसल पर निराई गुड़ाई
व खरपतवार नियंत्रण :
मटर के पौधे बुवाई के महीने
भर में जमीन में फ़ैल जाते हैं इसलिए इसकी फसल को निराई गुड़ाई की जरुरत नही होती |
बुवाई के माह भर बाद खरपतवार उग आते हैं जिससे उनके नियंत्रण की आवश्यता होती हैं
| मटर की फसल पर हिरनखुरी,जंगली प्याजी,दूब,आदि खरपतवारों का प्रकोप होता है |
खरपतवार नियंत्रण हेतु बुवाई से पूर्व भूमि की तैयारी के समय मिटटी में
फ्लूक्लोरेलिन (बेसालिन ) की 1 किलोग्राम मात्रा को 800-1000 लीटर पानी में घोलकर
खेत में छिड़काव कर मिटटी में मिला देना चाहिए | बुवाई के 30 से 40 दिन बाद प्रति
हेक्टेयर 2.4 डीबी अथवा एमसीबीपी शुद्ध रासायनिक पदार्थ की 0.75 किलोग्राम मात्रा
को 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव कर्णं चाहिए | इसके बावजूद भी खरपतवार उग आते हैं तो निराई कर
नष्ट कर देना चाहिए |
मटर की फसल पर लगने वाले
रोग व उनका नियत्रण :
गेरुई अथवा किट्ट रोग : यह रोग एक फफूंदजनित रोग है | जो Uromydces यूरोमाइसीज नामक कवक
के कारण होता है | इस रोग का प्रभाव पौधे के तने,पत्तियों व फलियों पर होता है |
इस रोग से प्रभावित पौधे के भागों पर पीले,गोल अथवा लम्बे धब्बे समूहों में पड़
जाते हैं | शुरुआत में ये हल्के भूरे रंग के होते हैं बाद में ये गहरे भूरे होकर
काले पड़ जाते हैं |
बचाव व रोकथाम : सबसे पहले तो रोगी पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए | ताकि
संक्रमण अन्य पौधों पर न फैले | डायथेन एम् 45 की ढाई किलो मात्रा को 1000 लीटर
पानी में घोलकर फसल पर 3 से 4 बार छिड़काव करना चाहिए |
म्रदुरोमिल आसिता Downey mildew : यह भी फंफूद के कारण होने वाला रोग है | इस रोग
का प्रकोप पौधे के शुरूआती अवस्था में होता है यानी 3 से 4 पत्तियां आने पर इस रोग
का प्रभाव शुरू हो जाता है | पत्तियों की निचली पर रुई के जैसे पदार्थ सुबह दिखाई
देता है | इस रोग के प्रभाव से पत्तियां पीली पड़कर सूख जाती है | इस रोग से मटर की
पैदावार कम हो जाती है |
बचाव तथा रोकथाम : खेत से मटर से रोगी पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए ताकि
दूसरे पौधों पर संक्रमण डायथेन एम् 45 की ढाई किलो मात्रा को 1000 लीटर पानी में
घोलकर फसल पर 3 से 4 बार छिड़काव करना चाहिए |
बीज व जड़ विगलन (Seed and Root Rot) : यह एक फंफूँदी से होने वाला
रोग है | यह रोग phythium वर्ग की फफूँदी के कारण होता है | इस रोग के प्रकोप से बीज
व पौधे की कोमल जड़ें सड़ जाती है जिससे बीजों का अंकुरण नही होता और जड़ों के सड़ने
से छोटे-छोटे पौधे मर जाते हैं | भारी और अधिक नमी वाली भूमि पर इस रोग का प्रभाव
अधिक होता है |
बचाव व रोकथाम :
खेत में जल निकासी
के लिए उपयुक्त प्रबंध होना चाहिए ताकि खेत में अनावश्यक जल न भरा रहे | बुवाई से
पहले बीजों को किसी भी फफूंदनाशक यथा थायराम अथवा केप्टान 0.25 मात्रा प्रति
किलोग्राम बीज की मात्रा की दर से उपचारित करना चाहिए |
चूर्णिल आसिता : यह एक फफूंदजनित रोग है | इस रोग से प्रभावित पौधों की
पत्तियों में सफेद चूर्ण जैसा पदार्थ जम जाता है | पौधे के पत्तियों व डंठल पर
भूरे रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं | इसके कुप्रभाव से पत्तियों का हरा रंग
खतम हो जाता है और पत्तियां पीली पड़कर सूख जाती है |
बचाव व रोकथाम :
इस रोग के बचाव हेतु सबसे
पहले रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये | साथ ही रोकथाम हेतु 3
किलोग्राम घुलनशील गंधक सल्फैक्स अथवा इलोसाल को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव
करें |
मटर की फसल पर लगने वाले
कीट व नियंत्रण :
माहूँ या थ्रिप्स अथवा
चेंपा (Aphid ) आकाश में बादल छाने अथवा
मौसम में नमी होने से माहू का प्रकोप बढ़ जाता है | इसके छोटे-छोटे कीट झुण्ड में
पौधों तने,पत्तियों तथा फलियों पर आक्रमण कर पौधे का रस चूस लेते हैं | जिससे
पौधों सुख जाते हैं जो रोगी पौधे बचते भी हैं उनमें फलियाँ नही लगती है |
बचाव व रोकथाम :
जैसे ही मटर के फसल पर माहू
का प्रकोप दिखाई पड़े 1.50 लीटर साइपरम्रेथिन को 1000 को पानी में घोलकर फसल पर
छिड़काव करें अथवा 1000 मिलीलीटर मेटासिस्टाक्स 25 EC को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल पर
छिड़काव करे |
तना छेदक : मटर के पौधों की शुरूआती अवस्था में इस कीट की मादा पौधे
के कोमल तनों में अंडे देती है | अंडे से निकले हए गिडार तने के कोमल भागों को
अन्दर-अन्दर खाते हुए जड़ की ओर जमीन के नीचे चली जाती है | पौधे का भाग
क्षतिग्रस्त होने से पानी व पोषक तत्व की कमी से पौधा सूख जाता है |
बचाव व रोकथाम :
इस रोग से बचाव हेतु मटर की
बुवाई से पहले 10 किलोग्राम थीमेट ग्रेन्यूल्स की मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर
से मिटटीमें मिला देना चाहिए | इसी प्रकार फ्यूराडॉन रसायन की 30 किलोग्राम मात्रा
को बुवाई से पहले खेत में बराबर मिला देना चाहिए |
जैसे ही मटर के पौधे 10-15
सेंटीमीटर ऊंचे हो जाएँ इन्डोसल्फान 35
EC के 0.15 को प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए |
फली छेदक :
इस कीट की हरे रंग की
सूंडिया मुलायम फलियों के अंदर घुसकर दाने खाती हैं | जिससे फलियाँ दाना रहित व
कमजोर हो जाती है |
बचाव व रोकथाम :
इस कीट से बचाव के लिए
सुमिसीडीन की 1.5 लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें अथवा 50
प्रतिशत घुलनशील सेविन की 2 किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव
करें |
पत्ती में सुरंग बनाने वाला
कीट LEAF MINOR : इस कीट के लार्वा मटर के
पौधों की पत्तियों पर सुरंग बनाकर पत्तियों का हरा पदार्थ खाते हैं | यह कीट मटर
की फसल को काफी हानि पहुचाता है | इसके प्रभाव से पत्तियों पर टेढ़ी-मेढ़ी लाइनें
जैसी बन जाती हैं |
बचाव व रोकथाम :
जैसे ही मटर के फसल पर
पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीट LEAF
MINOR का प्रकोप दिखाई पड़े 1.50 लीटर साइपरम्रेथिन को
1000 को पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें अथवा 1000 मिलीलीटर मेटासिस्टाक्स 25 EC को 1000 लीटर पानी में घोल
बनाकर खड़ी फसल पर छिड़काव करे |
मटर की फलियों की तुड़ाई व
फसल की कटाई ;
मटर की उन्नत किस्मों के
आधार पर मटर की फलियां अलग अलग समय पर तुड़ाई हेतु तैयार होती हैं | फलियाँ तैयार
होने पर तुड़ाई 10 से 20 दिन के अंतर पर 3 से 4 बार तोड़ें | मार्च माह में पकी हुई
मटर की कटाई समय से करें जिससे फलियाँ फटकर गिरने न पायें |
उपज :
मटर की उन्नत किस्मों के 80
से 100 कुंतल फलियों की उपज प्राप्त हो जाती हैं | वहीं 20 से 30 कुंतल मटर का
प्राप्त हो जाता है | पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीट LEAF MINOR