जैविक खेती का मतलब क्या है? जैविक खेती कैसे की जाती है? जैविक खेती कितने प्रकार के होते हैं? जैविक खेती के लाभ क्या है ?
जैविक खेती कृषि की वह पद्धति है, जिसमें पर्यावरण को स्वच्छ प्राकृतिक संतुलन को कायम रखते हुए भूमि, जल एवं वायु को प्रदूषित किये बिना दीर्घकालीन व स्थिर उत्पादन प्राप्त किया जाता है। इस पद्धति में रसायनों का उपयोग कम से कम व आवश्यकतानुसार किया जाता है। यह पद्धति रसायनिक कृषि की अपेक्षा सस्ती, स्वावलम्बी एवं स्थाई है। इसमें मिट्टी को एक जीवित माध्यम माना गया है। भूमि का आहार जीवांश हैं। जीवाशं गोबर, पौधों व जीवों के अवशेष आदि को खाद के रूप में भूमि को प्राप्त होते हैं। जीवांश खादों के प्रयोग से पौधों के समस्त पोषक तत्व प्राप्त हो जाते हैं। साथ ही इनके प्रयोग से उगाई गयी फसलों पर बीमारियों एवं कीटों का प्रकोप बहुत कम होता है जिससे हानिकारण रसायन, कीटनाशकों के छिड़काव की आवश्यकता नहीं रह जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि फसलों से प्राप्त खाद्यान, फल एवं सब्जी आदि हानिकारण रसायनों से पूर्णतः मुक्त होते हैं। जीवांश खाद के प्रयोग से उत्पादित खाद्य पदार्थ अधिक स्वादिष्ट, पोषक-तत्वों से भरपूर एवं रसायनों से मुक्त होते हैं।जैविक खेती के लिए जीवांश जैसे गोबर की खाद (नैडप विधि) वर्मी कम्पोस्ट, जैव उर्वरक एवं हरी खाद का प्रयोग भूमि में किया जाना आवश्यक है। जैविक खेती का मतलब क्या है? जैविक खेती कैसे की जाती है? जैविक खेती कितने प्रकार के होते हैं? जैविक खेती के लाभ क्या है सभी जानकारी इसी पोस्ट में -
नादेप कम्पोस्ट तैयार करने की विधि : कृषक नारायण राव पान्डरी पाडे (नाडेप काका) द्वारा विकसित
कम्पोस्ट बनाने का एक नया विकसित तरीका नादेप विधि है जिसे महाराष्ट्र के कृषक नारायण राव पान्डरी पाडे (नाडेप काका) ने विकसित किया है। नादेप विधि में कम्पोस्ट खाद जमीन की सतह पर टांका बनाकर उसमें प्रक्षेत्र अवशेष तथा बराबर मात्रा में खेत की मिट्टी तथा गोबर को मिलाकर बनाया जाता है। इस विधि से 01 किलो गोबर से 30 किलो खाद चार माह में बनकर तैयार हो जाता है। नादेप कम्पोस्ट निम्न प्रक्रिया द्वारा तैयार किया जाता है।
(1) टांका बनाना-
नादेप कम्पोस्ट का टांका उस स्थान पर बनाया जाये जहां भूमि समतल हो तथा जल भराव की समस्या न हो। टांका के निर्माण हेतु आन्तरिक माप 10 फीट लम्बी, 6 फीट चौड़ी और 3 फिट गहरी रखनी चाहिए। इस प्रकार टांका का आयतन 180 घन फीट हो जाता है। टांका की दीवार 9 इंच चौड़ी रखनी चाहिए। दीवार को बनाने में विशेष बात यह है कि बीच बीच में यथा स्थान छेद छोड़ जायें जिससे कि टांका में वायु का आवागमन बना रहे और खाद सामग्री आसानी से पक सके। प्रत्येक दो ईटों के बाद तीसरी ईंट की जुड़ाई करते समय 7 इंच का छेद छोड़ देना चाहिए। 3 फीट ऊंची दीवार में पहले, तीसरे छठे और नवें रद्दे में छेद बनाने चाहिए। दीवार के भीतरी व बाहरी हिस्से को गाय या भैंस के गोबर से लीप दिया जाता है। फिर तैयार टांका को सूखने देना चाहिए। इस प्रकार बने टांका में नादेप खाद बनाने के लिए मुख्य रूप से 4 चीजों की आवश्यकता होती है।
पहली :
व्यर्थ पदार्थ या कचरा जैसे सूखे हरे पत्ते,छिलके, डंठल, जड़ें, बारीक टहनियां व व्यर्थ खाद पदार्थ आदि।
इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि इन पदार्थों के साथ प्लास्टिक/पालीथीन, पत्थर व कांच आदि शामिल न हो। इस तरह के कचरे की 1500 किलोग्राम मात्रा की आवश्यकता होती है।
दूसरी :
100 किलोग्राम गाय या भैंस का गोबर या गैस संयंत्र से निकले गोबर का घोल।
तीसरी :
सूखी महीन छनी हुई तालाब या नाले की 1750 किलोग्राम मिट्टी। गाय या बैल के बांधने के स्थान की मिट्टी अति उत्तम रहेगी। मिट्टी का पॉलीथीन/प्लास्टिक से रहित होना आवश्यक है।
चौथी :
पानी की आवश्यकता काफी हद तक मौसम पर निर्भर करती है। बरसात में जहां कम पानी की आवश्यकता रहेगी। वहीं पर गर्मी के मौसम में अधिक पानी की आवश्यकता होगी। कुल मिलाकर करीब 1500 से 2000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। गोमूत्र या अन्य पशु मूत्र मिला देने से नादेप खाद की गुणवत्ता में बढ़ोत्तरी होगी।
(2) टांका का भरना -
टांका भरते समय विशेष ध्यान देना चाहिए कि इसके भरने की प्रक्रिया एक ही दिन में समाप्त हो जाये। इसके लिए आवश्यक है कि कम से कम दो टैंकों का निर्माण किया जाये जिससे कि सभी सामग्री इकट्ठा होने पर एक ही दिन में टैंक भरने की प्रक्रिया पूरी हो सके। टैंक भरने का क्रम निम्न प्रकार है
पहली परत -
व्यर्थ पदार्थों की 6 इंच की ऊंचाई तक भरते हैं। इस प्रकार व्यर्थ पदार्थों की 30 घन फुट में लगभग एक कुन्तल की जरूरत होती है।
दूसरी परत -
गोबर के घोल की होती हैं इसके लिए 150 लीटर पानी में 4 किलोग्राम गोबर अथवा बायोगैस संयंत्र से प्राप्त गोबर के घोल की ढाई गुना ज्यादा मात्रा में प्रयोग में लाती है। इस घोल की व्यर्थ पदार्थों द्वारा निर्मित पहली परत पर अच्छी तरह से भीगने देते हैं।
तीसरी परत-
छनी हुई सूखी मिट्टी की प्रति परत आधा इंच मोटी दूसरी परत के ऊपर बिछा कर समतल कर लेते है।
चौथी परत-
इस परत को वास्तव में परत न कहकर पानी की छींटें कह सकते हैं। इस लिए आवश्यक है कि टैंक में लगायी गयी परतें ठीक से बैठ जायें।
इस क्रम को क्रमशः टांका के पूरा भरने तक दोहराते हैं। टैंक भर जाने के बाद अन्त में 2.5 फुट ऊंचा झोपड़ी नुमा आकार में भराई करते हैं। इस प्रकार टैंक भर जाने के बाद इसकी गोबर व गीली मिट्टी के मिश्रण से लेप कर देते हैं। प्रायः यह देखा गया है कि 10 या 12 परतों में गड्ढा भर जाता है। यदि नादेप कम्पोस्ट की गुणवत्ता में अधिक वृद्धि करती है तो आधा इंच मिट्टी की परतों के ऊपर 1.5 किलोग्राम जिप्सम 1.5 किलोग्राम राक फास्फेट + एक किग्रा० यूरिया का मिश्रण बनाकर सौ ग्राम प्रति परत बिखेरते जाते हैं। टांका भरने के 60 से 70 दिन बाद राइजोबियन + पी०एस०बी० + एजोटोबैक्टर का कल्चर बनाकर मिश्रण को छेदों के द्वारा प्रविष्ट करा देते हैं।
टांका भरने के 15 से 20 दिनों बाद उसमें दरारे पड़ने लगती हैं तथा इस विघटन के कारण मिश्रण टैंक में नीचे की ओर बैठने लगता है। ऐसी अवस्था में इसे उपरोक्त बताई गई विधि से दुबारा भरकर मिट्टी एवं गोबर के मिश्रण से उसी प्रकार लीप दिया जाये जैसा कि प्रथम बार किया गया था। यह आवश्यक है कि टांका में 60 प्रतिशत नमी का स्तर हमेशा बना रहे। इस तरह से नादेप कम्पोस्ट 90 से 110 दिनों में बनकर प्रयोग हेतु तैयार हो जाती है। लगभग 3.0 से 3.25 टन प्रति टैंक नादेप कम्पोस्ट बनकर प्राप्त होती है तथा इसका 3.5 टन प्रति हैक्टेयर की दर से खेतों में प्रयोग करना पर्याप्त होता है। इस कम्पोस्ट में पोषक तत्वों की मात्रा नत्रजन के रूप में 0.5 से 1.5 फास्फोरस के रूप में 0.5 से 0.9 तथा पोटाश के रूप में 1.2 से 1.4 प्रतिशत तक पायी जाती है। नादेप टांका 10 वर्ष तक अपनी पूरी क्षमता से कम्पोस्ट बनाने में सक्षम रहता है।
नादेप कम्पोस्ट बनाने हेतु प्रति टांका निर्माण में लगभग दो हजार रूपये की लागत आती है। यदि 6 टांका का निर्माण कर अन्तराल स्वरूप एक टांका भरकर कम्पोस्ट बनाई जाये तो गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले व शिक्षित बेरोजगारों को चार हजार रूपये प्रति माह के हिसाब से आर्थिक लाभ हो सकता है।
वर्मी कम्पोस्ट-एक उत्तम जैविक खाद :
वर्मी कम्पोस्ट निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका केचुओं की है जिसके द्वारा कार्बनिक/जीवांश पदार्थों को विघटित करके/ सड़ाकर यह खाद तैयार की जाती है। यही वर्मी कम्पोस्ट या केंचुए की खाद कहलाती है। वर्मी कम्पोस्टिंग कृषि के अवशिष्ट पदार्थ, शहर तथा रसोई के कूड़े कचरे को पुनः उपयोगी पदार्थ में बदलने तथा पर्यावरण प्रदूषण को कम करने की एवं प्रभावशाली विधा है।
वर्मी कम्पोस्ट बनाने में किन-किन कार्बनिक पदार्थों का प्रयोग किया जा सकता है-
(अ) कृषि या फसल अवशेष -
पुवाल, भूसा, गन्ने की खाई, पत्तियां, खरपतवार, फूस, फसलों के डंठल, बायोगैस अवशेष, गोबर आदि।
(ब) घरेलू तथा शहरी कूड़ा कचरा -
सब्जियों के छिलके तथा अवशेष, फलों के छिलके तथा अवशेष, फलों के छिलके तथा सब्जी मण्डी का कचरा, भोजन का अवशेष आदि।
(स) कृषि उद्योग सम्बन्धी व्यर्थ पदार्थ -
वनस्पति तेल शोध मिल, चीनी मिल, शराब उद्योग, बीज तथा खाद्य प्रसंस्करण उद्योग तथा नारियल उद्योग के अवशिष्ट पदार्थ।
केचुओं की प्रजातियां -
कम्पोस्ट बनाने की सक्षम प्रजातियों में मुख्य रूप से ‘इसेनिया फोटीडा‘ तथा ‘इयू ड्रिल्स इयूजीनी‘ है जिन्हें केचुयें की लाल प्रजाति भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त ‘पेरियानिक्स एक्सवकेटस‘, ‘लैम्पीटो माउरीटी,‘ डावीटा कलेवी‘ तथा डिगोगास्टर बोलाई प्रजातियां भी है जो कम्पोस्टिंग में प्रयोग की जाती हैं परन्तु ये लाल केचुओं से कम प्रभावी है |
वर्मी कम्पोस्ट बनाने की विधि -
किसी ऊंचे छायादार स्थान जैसे पेड़ के नीचे या बगीचे में 2 मीटर ×2 मीटर ×2 मीटर क्रमशः लम्बाई, चौड़ाई तथा गहराई का गड्ढा बनायें। गड्ढे के अभाव में इसी माप की लकड़ी या प्लास्टिक की पेटी का भी प्रयोग किया जा सकता है। जिसके निचले सतह पर जल निकास हेतु 10-12 छेद बना देने चाहिए।
क- सबसे नीचे ईंट या पत्थर की 11 सेमी० की परत बनाइये फिर 2.0 सेमी० मौरंग या बालू की दूसरी तह लगाइये। इसके ऊपर 15 सेमी० उपजाऊ मिट्टी की तह लगाकर पानी के हल्के छिड़काव से नम कर दें। इसके बाद अधसड़ी गोबर डालकर एक किलो प्रति गड्ढे की दर से केचुएं छोड़ दें।
ख- इसके ऊपर 5-10 सेमी० घरेलू कचरे जैसे सब्जियों के अवशेष, छिलके आदि कटे हुए फसल अवशेष जैसे पुवाल, भूसा, जलकुंभी पेड़ पौधों की पत्तियां आदि को बिछा दें। 20-25 दिन तक आवश्यकतानुसार पानी का हल्का छिड़काव करते रहें इसके बाद प्रति सप्ताह दो बार 5-10 सेमी० सडने योग्य कूड़े कचरे की तह लगाते रहें जब तक कि पूरा गड्ढा भर न जाये। रोज पानी का छिड़काव करते रहें। कार्बनिक पदार्थ के ढेर पर लगभग 50 प्रतिशत नमी होनी चाहिए। 6-7 सप्ताह में वर्मी कम्पोस्ट बनकर तैयार हो जाता है। वर्मी कम्पोस्ट बनने के बाद 2-3 दिन तक पानी का छिड़काव बन्द कर देना चाहिए। इसके बाद खाद निकाल कर छाया में ढेर लगाकर सुखा देते हैं। फिर इसे 2 मिली० छन्ने से छानकर अलग कर लेते हैं। इस तैयार खाद में 20-25 प्रतिशत नमी होनी चाहिए। इस तैयार खाद को आवश्यक मात्रा में प्लास्टिक की थैलियों में भर देते है।
इसके अतिरिक्त वर्मी कम्पोस्ट का निर्माण वायु पंक्ति (विन्डरो)। विधि से भी किया जा सकता है जिसमें जीवांश पदार्थ का ढ़ेर किसी छायादार जमीन की सतह पर लगाकर किया जाता है वर्मी कम्पोस्ट का निर्माण ‘रियेक्टर‘ विधि से किया जाता है जो अधिक खर्चीला तथा तकनीकी है। ऊपरी बतायी गयी विधि अत्यन्त सरल है तथा किसान आसानी से अपना सकता है।
केंचुए का कल्चर या इनाकुलम तैयार करना -
केंचुए कूड़े कचरे के ढेर के नीचे से कम्पोस्ट बनाते हुए ऊपर की तरफ बढ़ते हैं पूरे गड्ढे भी कम्पोस्ट तैयार होने के बाद ऊपरी सतह पर कूड़े कचरे की एक नयी सतह लगा देते हैं तथा पानी छिड़क कर नम कर देते है। इस सतह की ओर सभी केंचुए आकर्षित हो जाते हैं। इन्हें हाथ या किसी चीज से अलग कर इकट्ठा कर लेते है जिसे दूसरे नये गड्ढे में अन्तः क्रमण के लिए प्रयोग करते है।
वर्मी कम्पोस्ट के पोषक तत्व -
वर्मी कम्पोस्ट के अन्य जीवांश खादों की तुलना में अधिक पोषक तत्व उपलब्ध है। इसमें नाइट्रोजन 1-1.5 प्रतिशत, फास्फोरस 1.5 प्रतिशत तथा पोटाश 1.5 प्रतिशत होता है। इसके अतिरिक्त इसमें द्वितीयक तथा सूक्ष्म तत्व भी मौजूद होते है।
वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग -
धान्य फसलों, तिलहन तथा सब्जियों के लिए 5.0 से 6.0 टन वर्मी कम्पोस्ट प्रति हे० की दर से प्रयोग करना चाहिए। बुवाई के पहले इसे खेत में बिखेर कर जुताई करके भूमि में मिला देना चाहिए। फलदार वृक्षों में 200 ग्राम प्रति पौधा तथा घास के लान में 3 किग्रा०/ 10 वर्ग मीटर की दर से प्रयोग करें।
वर्मी कम्पोस्ट के लाभ -
- मृदा के भौतिक तथा जैविक गुणों में सुधार होता है।
- मृदा संरचना तथा वायु संचार में सुधार हो जाता है।
- नाइट्रोजन स्थरीकरण करने वाले जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है।
- कूड़े कचरे से होने वाले प्रदूषण पर नियंत्रण होता है।
- वर्मी कम्पोस्ट एक लघु कुटीर उद्योग के रूप में रोजगार के नये अवसर प्रदान करता है।
- फलों सब्जियों तथा खाद्यान्नों की गुणवत्ता बढ़ती है तथा उनके उपज में भी वृद्धि होती है।
- यह रसायनिक उर्वरक की खपत कम करके मृदा स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने का प्रभावी उपाय है ।
जैव उर्वरक :
जैव उर्वरक विशिष्ट प्रकार के जीवाणुओं का एक विशेष प्रकार के माध्यम, चारकोल, मिट्टी या गोबर की खाद में ऐसा मिश्रण है जो कि वायु मण्डलीय नत्रजन को चागिकीकरण द्वारा पौधों को उपलब्ध कराती है या मिट्टी में उपलब्ध अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित करके पौधों को उपलब्ध कराता है। जैव उर्वरक रसायनिक उर्वरकों का विकल्प तो नहीं है परन्तु पूरक अवश्य है। इनके प्रयोग से रासायनिक उर्वरकों की 1/3 मात्रा तक की बचत हो जाती है।
जैव उर्वरकों का वर्गीकरण :
1. नाइट्रोजन पूर्ति करने वाले जैव उर्वरक
अ. राइजोबियम जैव उर्वरक
ब. एजोटोवैक्टर
स. एजोस्पाइरिलम
द. नील हरित शैवाल
2. फास्फोरसधारी जैव उर्वरक (पी०एस०बी०)
अ) राइजोबियम जैव उर्वरक
यह जीवाणु सभी दलहनी फसलों व तिलहनी फसलों जैसे सोयाबीन और मूंगफली की जड़ों में छोटी-छोटी ग्रन्थियों में पाया जाता है जो सह जीवन के रूप में कार्य करें वायु मण्डल में उपलब्ध नाइट्रोजन को पौधों को उपलब्ध कराता है। राइजोबियम जीवाणु अलग-अलग फसलों के लिए अलग-अलग होता है। इसलिए बीज उपचार हेतु उसी फसल का कल्चर प्रयोग करना चाहिए।
ब) एजोटोवैक्टर
यह भी एक प्रकार का जीवाणु है जो भूमि में पौधे की जड़ की सतह पर स्वतंत्र रूप में रहकर आक्सीजन की उपस्थिति में वायुमण्डलीय नत्रजन को अमोनिया में परिवर्तित करके पौधों को उपलब्ध कराता है। इसके प्रयोग से फसलों की उपज में 10-15 प्रतिशत तक वृद्धि हो जाती है। इसका प्रयोग सभी तिलहनी, अनाजवाली, सब्जी वाली फसलों में किया जा सकता है।
स) एजोस्पाइरिलम
यह भी एक प्रकार का जीवाणु है जो पौधों की जड़ों के पास रहकर, वायुमण्डल में उपलब्ध नाइट्रोजन पौधों को उपलब्ध कराता है इसका प्रयोग अनाज की चौड़ी पत्ती वाली फसलों जैसे ज्वार, गन्ना तथा बाजरा आदि में किया जाता है।
द) नील हरित शैवाल
नील हरित शैवाल भारत जैसे गर्म देशों की क्षारीय तथा उदासीन मिटि्टयों में अधिकता से पाई जाती है। इसकी कुछ प्रजातियों वायुमण्डल में उपलब्ध नाइट्रोजन को अमोनिया में परिवर्तित करके पौधों को नत्रजन उपलब्ध कराती है। नील हरित शैवाल का प्रयोग केवल धान की फसल में किया जा सकता है। रोपाई के 8-10 दिन बाद दस किलोग्राम प्रति हे० हिसाब से खड़ी फसल में छिड़का जाता है। तीन सप्ताह तक खेत में पानी भरा रहना आवश्यक है। इसके प्रयोग से धान की खेती में लगभग 25-30 किग्रा० नाइट्रोजन अथवा 50-60 किग्रा० यूरिया प्रति हेक्टेयर की बचत की जा सकती है।
फास्फोरसधारी जैव उर्वरक :
यह जीवित जीवाणु तथा कुछ कवकों का चारकोल, मिट्टी अथवा गोबर की खाद में मिश्रण है जो मिट्टी में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील सभी प्रकार की फसलों में किया जा सकता है और लगभग 15-20 किग्रा० प्रति हे० फास्फोरस की मात्रा की बचत की जा सकती है।
जैव उर्वरकों की प्रयोग विधि :
1). बीज उपचार विधि -
जैव उर्वरकों के प्रयोग की यह सर्वोत्तम विधि है।1/2 लीटर पानी में लगभग 50 ग्राम गुड़ या गोंद उबालकर अच्छी तरह मिलाकर घोल बना लेते है इस घोल को 10 किग्रा० बीज पर छिड़क कर मिला देते हैं जिससे प्रत्येक बीज पर इसकी परत चढ़ जाये। तब जैव उर्वरक को छिड़क कर मिला दिया जाता है। इसके उपरान्त बीजों को छायादार जगह में सुखा लेते हैं। उपचारित बीजों की बुवाई सूखने के तुरन्त बाद कर देनी चाहिए।
2). पौध जड़ उपचार विधि :
धान तथा सब्जी वाली फसलें जिनके पौधों की रोपाई की जाती है जैसे टमाटर, फूलगोभी, पातगोभी, प्याज इत्यादि फसलों में पौधों की जड़ों को जैव उर्वरकों द्वारा उपचारित किया जाता है। इसके लिए किसी चौड़े व छिछले बर्तन में 5-7 लीटर पानी में एक किलोग्राम जैव उर्वरक मिला लेते है। इसके उपरान्त नर्सरी से पौधों को उखाड़कर तथा जड़ों से मिट्टी साफ करने के पश्चात् 50-100 पौधों को बण्डल में बांधकर जीवाणु खाद के घोल में 10 मिनट तक डुबो देते हैं। इसके बाद तुरन्त रोपार्इ कर देते है।
3). कन्द उपचार विधि :
गन्ना, आलू, अदरक, घुइया जैसे फसलों में जैव उर्वरकों के प्रयोग हेतु कन्दों को उपचारित किया जाता है। एक किलोग्राम जैव उर्वरक को 20-30 लीटर घोलकर मिला लेते हैं। इसके उपरान्त कन्दों को 10 मिनट तक घोल में डुबोकर रखने के पश्चात बुवाई कर देते है।
4). मृदा उपचार विधि :
5-10 किलोग्राम जैव उर्वरक 70-100 किग्रा० मिट्टी या कम्पोस्ट का मिश्रण तैयार करके अन्तिम जुताई पर खेत मिला देते है।
जैव उर्वरकों के प्रयोग में सावधानियां-
- जैव उर्वरक को हमेशा धूप या गर्मता से बचा कर रखना चाहिए।
- कल्चर पैकेट उपयोग के समय ही खोलना चाहिए।
- कल्चर द्वारा उपचारित बीज, पौध,मिट्टी या कम्पोस्ट का मिश्रण छाया में ही रखना चाहिए।
- कल्चर प्रयोग करते समय उस पर उत्पादन तिथि, उपयोग की अन्तिम तिथि फसल का नाम आदि अवश्य लिखा देख लेना चाहिए
- निश्चित फसल के लिए अनुमोदित कल्चर का उपयोग करना चाहिए।
जैव उर्वरकों के उपयोग से लाभ :
- रासायनिक उर्वरक एवं विदेश मुद्रा की बचत।
- लगभग 25-30 किग्रा०/हे० नाइट्रोजन एवं 15-20 किग्रा० प्रति हेक्टर पर फास्फोरस उपलब्ध कराना तथा मृदा की भौतिक एवं रासायनिक दशाओं में सुधार लाना।
- विभिन्न फसलों में 15-20 प्रतिशत उपज में वृद्धि करना।
- इसके प्रयोग से अंकुरण शीघ्र होता है तथा कल्लों की संख्या में वृद्धि होती है।
- इनके प्रयोग से उपज में वृद्धि के अतिरिक्त गन्ने में शर्करा की तिलहनी फसलों में तेल की तथा मक्का एवं आलू में स्टार्च की मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है।
- किसानों को आर्थिक लाभ होता है।
हरी खाद :
हरी खाद एवं उसकी उपयोगिता :
मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि हेतु पौधों के हरे वानस्पतिक को उसी खेत में उगाकर या दूसरे स्थान से लाकर खेत में मिला देने की क्रिया को हरी खाद देना कहते है।
हरी खाद प्रयोग करने की विधियां :
उसी खेत में उगाई जाने वाली हरी खादः जिस खेत में खाद देनी होती हैं, उसी खेत में फसल उगाकर उसे मिट्टी पलटने वाले हल से जोतकर मिट्टी में मिलाकर किया जाता है। इस विधि से हरी खाद तैयार करने के लिए सनई, ढैंचा, ग्वार,मूंग, उर्द आदि फसलें उगाई जाती हैं।खेत में दूर उगाई जाने वाली हरी खादः जब फसलें अन्य दूसरे खेतों में उगाई जाती हैं और वहां से काटकर जिस खेत में हरी खाद देना होता है, उसमें मिट्टी पलटने वाले हल से जोतकर दबा देते हैं। इस विधि में जंगलों या अन्य स्थान पर उगे पेड़ पौधों एवं झाड़ियों की पत्तियों टहनियों आदि को खेत में मिला दिया जाता हैं। हरी खाद हेतु प्रयोग की जाने वाली फसलें सनई, ढैंचा,मूंग, उर्द, मोठ, ज्वार, लोबिया, जंगली, नील बरसीम एवं सैंजी आदि।
हरी खाद से लाभ :
हरी खाद से मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा से भौतिक दशा में सुधार होता है। नाइट्रोजन की वृद्धि हरी खाद के लिए प्रयोग की गई दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रन्थियां होती है। जो नत्रजन का स्थिरीकरण करती हैं। फलस्वरूप नत्रजन की मात्रा में वृद्धि होती है। एक अनुमान लगाया गया है कि ढैंचा को हरी खाद के रूप में प्रयोग करने से प्रति हेक्टेयर 60 किग्रा० नाइट्रोजन की बचत होती है तथा मृदा के भौतिक रासायनिक तथा जैविक गुणों में वृद्धि होती है, जो टिकाऊ खेती के लिए आवश्यक है।
एकीकृत कीट एवं व्याधि नियंत्रण :
जैविक खेती का लक्ष्य कीड़ों का विनाश करना नहीं है किन्तु उनका आर्थिक स्तर पर नियंत्रण करना है। इसके लिए स्वस्थ कृषि, परजीवी कीड़ों, फिरोमोन व प्रकाश प्रपंच कीट भक्षी पक्षियों, कीट विनाशक रोगों, मेढ़क आदि का उपयोग समन्वित रूप से किये जाने के प्रयोग सफल हुए है। नीम की पत्ती, बीजों की खली एवं तेल का प्रयोग कीटनाशक के रूप में किया जा सकता है। वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि गोमूत्र एवं नीम की पत्ती का अर्क बनाकर भी कीटनाशक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
बायो एजेण्ट्स/ बायो पेस्टीसाइड्स :
महत्व व उपयोगिता व प्रयोग :
एकीकृत नाशीजीव प्रबन्धन के अन्तर्गत बायो एजेण्ट्स/ बायो पेस्टीसाइड्स का समावेश हो जाने के कारण विभिन्न फसलों को कीट/ रोग से सुरक्षा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हो रही है। जिन क्षेत्रों में इनका प्रयोग हो रहा है वहॉ न केवल उत्पादन में वृद्धि हुई है, अपितु मानव एवं पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने में पर्याप्त सफलता मिली है।\
तना/फली छेदक कीट से फसलों की रोकथाम हेतु ट्राइकोकार्ड एवं एन०पी०वी० के प्रयोग से काफी लाभ मिला है इससे न केवल खाद्यान दलहनी एवं तिलहनी फसलों को लाभ हुआ है अपितु गन्ना एवं सब्जियों पर भी इसका प्रयोग लाभप्रद रहा है। उकठा, जड़–गलन, तना गलन तथा अन्य फफूँदीजनित रोगों के उपचार हेतु ट्राइकोडरमा का प्रयोग व्यापक स्तर पर प्रारम्भ हुआ है तथा बीज शोधन में भी इसका उपयोग दिनो दिन बढ़ रहा है।
प्रदेश की विभागीय आई०पी०एम० प्रयोगशालाओं में ट्राइकोडरमा, ब्यूवेरिया, बैसियाना, सूडोमोनास, मेन्टाराइजियम तथा एन०पी०वी० आदि बायोएजेन्ट्स उत्पादित किये जा रहे है। जिनका उपयोग विभाग द्वारा संचालित योजनाओं के अर्न्तगत आयोजित प्रदर्शनों तथा विकास कार्यों में किया जाता है। नीम का तेल एवं बी०टी० बायोपेस्टीसाइड्स के रूप में उपलब्ध है तथा इनका प्रयोग विभिन्न कीट/रोगों के नियंत्रण/प्रबन्धन करने के लिए किया जाता है। प्रदेश में इनकी पर्याप्त उपलब्धता है। विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत इनका प्रयोग सुनिश्चित कराया जाये। बायो एजेण्ट्स/बायो पेस्टीसाइड्स के व्यापक प्रचार पर समुचित बल दिया जाये।