भांग (वानस्पतिक नाम – Cannabis indica) एक प्रकार का पौधा है । जिसकी पत्तियों को पीस कर भांग तैयार की जाती है। कहीं-कहीं इन्हें गनरा-भांग, बण भांग, जंगली भांग भी कहते हैं। यह हिमालय के उत्तर-पूर्व जनपदों में उगायी जाती है। भांग की खेती प्राचीन समय में ‘पणि’ कहे जाने वाले लोगों द्वारा की जाती थी । उत्तर भारत में इसका प्रयोग बहुतायत से स्वास्थ्य, हल्के नशे तथा दवाओं के लिए किया जाता है। भारतवर्ष में भांग के अपने आप पैदा हुए पौधे सभी जगह पाये जाते हैं। भांग विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल में प्रचुरता से पाया जाता है । होली के अवसर पर मिठाई और ठंडाई के साथ इसका प्रयोग करने की परंपरा है।
एक वर्ष में 3 से 14 फीट लम्बाई तक बढ़ जाने वाले भांग के लम्बे-लम्बे गोल डन्ठलां की ऊपरी त्वचा से ही भांग के रेशे का उत्पादन होता है। ये बारिक रेशे क्यूटिकल नामक त्वचा से ढ़के रहते हैं। भांग का रेशा अधिकतर नर पौधे से प्राप्त होता है यानि मादा पौधे से रेशा कम निकलता है। जबकि बीज और नशीला पदार्थ मादा पौधे से निकलता है। बीज का उपयोग तेल निकालने और मसाले के रूप में किया जाता है। नर पौधे से निकलने वाले रेशे को भंगेला कहते हैं। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कुमाऊँ में शासन स्थापित होने से पहले ही भांग के व्यवसाय को अपने हाथ में ले लिया था तथा काशीपुर के नजदीक डिपो की स्थापना कर ली थी। दानपुर, दसोली तथा गंगोली की कुछ जातियाँ भांग के रेशे से कुथले और कम्बल बनाती थीं। भांग के पौधे का घर गढ़वाल में चांदपुर कहा जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्र में भांग प्रचुरता से होती है । खाली पड़ी जमीन पर भांग के पौधे स्वभाविक रूप से पैदा हो जाते हैं। लेकिन उनके बीज खाने के उपयोग में नहीं आते हैं। टनकपुर, रामनगर, पिथौरागढ़, हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मोडा़, रानीखेत,बागेश्वर, गंगोलीहाट में बरसात के बाद भांग के पौधे सर्वत्र देखे जा सकते हैं। नम जगह भांग के लिए बहुत अनुकूल रहती है।
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भांग में पाए जाने वाले रसायन तत्व – क्यों नशीला होता है भांग
सामान्य तौर पर भांग और औद्योगिक भांग के फर्क को लोग नहीं समझते लेकिन इन दोनों में बड़ा अंतर है । हालांकि ये दोनों एक ही परिवार के पौधे हैं लेकिन इनकी प्रजातियां अलग अलग हैं । नशे के लिए इस्तेमाल होने वाले गांजे या भांग में 30 फीसदी तक टेट्राहाइड्रोकेनोबिनॉल (टीएचसी) की मात्रा होती है जबकि औद्योगिक भांग से यह मात्रा 0.3 फीसदी से भी कम होती है । टीएचसी एक रसायन होता है । नशे के लिए यही रसायन जिम्मेदार होता है ।
फाइबर, कॉस्मेटिक एवं दवा, एमडीएफ प्लाईबोर्ड बनाने और निर्माण उद्योग में भांग की इस किस्म की भारी मांग है । भांग के रेशे का उपयोग कोथला, बोरा, गाजी और पुलों के लिए रस्सी बनाने में उपयोग किया जाता है।
भांग का उपयोग –
इसका सबसे बड़ा इस्तेमाल कुपोषण को दूर करने में किया जा सकता है । ओमेगा-3 और ओमेगा-6 समेत इसमे हाइ प्रोटीन पाया जाता है । वे कहते हैं इस खेती में लागत बेहद कम है । जंगली प्रजाति होने के कारण कैसी भी जमीन हो ये पौधा उगाया जा सकता है । खाद और पानी की बेहद सीमित मात्रा इसकी खेती में इस्तेमाल होती है । पहाड़ की लोक कला में भांग से बनाए गए कपड़ों की कला बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन मशीनों द्वारा बुने गये बोरे, चटाई इत्यादि की पहुँच घर-घर में हो जाने तथा भांग की खेती पर प्रतिबन्ध के कारण इस लोक कला के समाप्त हो जाने का भय है। पुरातन समय में जब जूते, चप्पलों का प्रचलन नहीं था, तब भेड़-बकरी पालक और तिब्बत के साथ व्यापार करने वाले लोग- भेड़-बकरी की खाल से बने जूतों के बाहर भांग की रस्सी से बुने गये छपेल का प्रयोग करते थे। ऐसे जूते पांव को गर्म तो रखते ही थे साथ ही बर्फ में फिसलने से रोकते थे। भेड़-बकरियों की पीठ पर माल ढोने के लिए भांग के रेशों से बनाये गये थैले भी पुराने समय में प्रचलन में थे। भांग का इस्तेमाल लंबे समय से लोग दर्द निवारक के रूप में करते रहे हैं। इसके पौधे की छाल से रस्सियाँ बनती हैं। डंठल कहीं-कहीं मशाल का काम देता है। कई देशों में इसे दवा के रूप में भी उपलब्ध कराया जाता है।
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भांग का पौधा और उसके विभिन्न भाग –
भांग के पौधे 3-8 फुट ऊंचे होते हैं। इसके पत्ते एकान्तर क्रम में व्यवस्थित होते हैं। भांग के ऊपर की पत्तियां 1-3 खंडों से युक्त तथा निचली पत्तियां 3-8 खंडों से युक्त होती हैं। निचली पत्तियों में इसके पत्रवृन्त लम्बे होते हैं। भांग के नर पौधे के पत्तों को सुखाकर भांग तैयार की जाती है। भांग के मादा पौधों की रालीय पुष्प मंजरियों को सुखाकर गांजा तैयार किया जाता है। भांग की शाखाओं और पत्तों पर जमे राल के समान पदार्थ को चरस कहते हैं।
ऐसे मिलती है भांग की खेती की अनुमति –
नार्कोटिक्स ड्रग्स ऐंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंसेज ऐक्ट, 1985 (एनडीपीएस अधिनियम) केंद्र सरकार को बागवानी और औद्योगिक उद्देश्य के लिए भांग की खेती की अनुमति देने का अधिकार देता है । लेकिम इस खेती में सबसे बड़ी बाधा है, साइकोएक्टिव तत्व की उचित जांच की समस्याओं और तकनीक आधारित मानक का न होना । एनडीपीएस ऐक्ट में कहा गया है,‘केंद्र सरकार कम टीएचसी मात्रा वाली भांग की किस्मों पर अनुसंधान और परीक्षण को प्रोत्साहित करेगी । हालांकि केंद्र बागवानी या औद्योगिक उद्देश्य के लिए भांग की खेती के लिए ठोस अनुसंधान के नतीजों के आधार पर फैसले लेगा । उत्तराखंड में आईआईएचए को खेती के लिए अनुमति देने के लिए उत्तराखंड सरकार ने एसोसिएशन द्वारा किए गए ठोस रिसर्च को आधार बनाया है।