बैंगन (सोलेनम मैलोंजेना) सोलेनैसी जाति की फसल है । जो कि मूल रूप में भारत की फसल मानी जाती है और यह फसल एशियाई देशों में सब्जी के तौर पर उगाई जाती है। इसके बिना यह फसल मिस्र, फरांस, इटली और अमेरिका में भी उगाई जाती है। बैंगन की फसल बाकी फसलों से ज्यादा सख्त होती है। इसके सख्त होने के कारण इसे शुष्क और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता हैं । बैंगन की सब्जी भारतीय जनसमुदाय में बहुत प्रसिद्ध है। यह विटामिन और खनिजों का अच्छा स्त्रोत है। यह भारत मे पूसा ने बैंगन की एक नई किस्म पूसा हरा बैंगन-एक का विकास किया है जिसमें भारी मात्रा में क्यूप्रेक, फ्रेक और फिनोर जैसे पोषक तत्व हैं जो इसे एंटीआक्सीडेंट बनाते हैं।
बैंगन की खेती ( brinjal cultivation ) – बैंगन की जैविक खेती हरा बैंगन की खेती, बैंगन की वैज्ञानिक खेती, बैंगन की पौध कैसे तैयार करें,हरे बैंगन की खेती, सफेद बैंगन की खेती, गर्मी में बैगन की खेती कैसे करें, बैगन की खेती की दवा , बैंगन में फल आने की दवा, बैंगन में कीड़े की दवा, हाइब्रिड बैंगन का बीज, बैंगन के बीज, की जानकारी दी जा रही है।
इसके चलते यह बीमारियों से बचाने और बुढ़ापा रोकने में मददगार है। इसकी खेती सारा साल की जा सकती है। चीन के बाद भारत दूसरा सबसे अधिक बैंगन उगाने वाला देश है। भारत में बैंगन उगाने वाले मुख्य राज्य पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा, कर्नाटक, बिहार, महांराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश हैं। बैंगन को भर्ता, आलू-बैंगन की सब्जी, भरवा बैंगन, फ्राई बैंगन सहित कई तरीकों से पकाया जा सकता है। उत्तर भारत के इलाकों में बैंगन का चोखा बहुत प्रसिद्ध है। बैंगन की उत्पत्ति भारत में ही हुई है। विश्व में सबसे ज्यादा बैंगन चीन में 54 फीसदी उगाया जाता है। बैंगन उगाने के मामले में भारत का दूसरा स्थान है। बैंगन विटामिन और खनिजों का अच्छा स्त्रोत है। इसकी खेती सारा साल की जा सकती है। बैंगन की फसल बाकी फसलों से ज्यादा सख्त होती है। इसके सख्त होने के कारण इसे शुष्क और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता हैं। एंटीआक्सीडेंट वह तत्व है जो हमारे शरीर को विषैले पदार्थों से बचाता है और यह ऊर्जा प्रदान करने के साथ ही कई प्रकार की बीमारियों से सुरक्षा प्रदान करता है। पाचनक्रिया के दौरान शरीर भोजन से अपने लिए पोषक तत्व ले लेता है और उन तत्वों को अलग कर देता है जो नुकसानदेह होते हैं। एंटीआक्सीडेंट कैंसर, हृदय रोग, रक्तचाप, अल्जाइमर और दृष्टिहीनता से बचाता है।
भूमि का चयन –
इसकी खेती अच्छे जल निकास युक्त सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है। बैंगन की अच्छी उपज के के लिए, बलुई दोमट से लेकर भारी मिट्टी जिसमें कार्बिनक पदार्थ की पर्याप्त मात्रा हो,उपयुक्त होती है।अगेती फसल के लिए हल्की मिट्टी और अधिक पैदावार के लिए चिकनी और नमी या गारे वाली मिट्टी उचित होती है। भूमि का पी.एच मान 5.5-6.0 की बीच होना चाहिए तथा इसमें सिंचाई का उचित प्रबंध होना आवश्यक है। झारखण्ड की उपरवार जमीन बैंगन की खेती के लिए उपयुक्त पायी गई है। बैंगन की फसल सख्त होने के कारण इसे अलग अलग तरह की मिट्टी में उगाया जा सकता है। यह एक लंबे समय की फसल है, इसलिए अच्छे जल निकास वाली उपजाऊ रेतली दोमट मिट्टी उचित होती है और अच्छी पैदावार देती है।
भूमि की तैयारी –
पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करनी चाहिए, उसके बाद 3 से 4 बार हैरो या देशी हल चलाकर पाटा लगाये भूमि के प्रथम जुताई से पूर्व गोबर कि खाद सामान रूप से बिखेरनी चाहिए| यदि गोबर कि खाद उपलब्ध न हो तो खेत में पहले हरी खाद का उपयोग करना चाहिए| रोपाई करने से पूर्व सिचाई सुबिधा के अनुसार क्यारियों तथा सिचाई नालियों में विभाजित कर लेते है|
उन्नत क़िस्में और पैदावार
बैंगन में फलों के रंग तथा पौधों के आकार में बहुत विविधता पायी जाती है। मुख्यतः इसका फल बैंगनी, सफेद, हरे, गुलाबी एवं धारीदार रंग के होते हैं। आकार में भिन्नता के कारण इसके फल गोल, अंडाकार, लंबे एवं नाशपाती के आकार के होते हैं। स्थान के अनुसार बैंगन के रंग एवं आकार का महत्व अलग-अलग देखा गया है। जैसे-उत्तरी भारत में बैंगनी या गुलाबी रंग गोल से अंडाकार बैंगन का अधिक महत्व है जबकि गुजरात में हरे अंडाकार बैंगन की अधिक मांग है। गुलाबी रंग के धारियुक्त अंडाकार बैंगन देश में मध्य भागों में पसंद किए जाते हैं। झारखण्ड में गोल से अंडाकार एवं गहरे बैगनी तथा धारीदार हरे रंग के बैगन अधिक पसंद किए जाते हैं। बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, रांची में किये गये अनुसन्धान कायों के फलस्वरूप निम्नलिखित किस्में इस क्षेत्र के लिए विकसित की गई है –

स्वर्ण शक्ति
पैदावार की दृष्टि से उत्तम यह एक संकर किस्म है। इसके पौधों कि लंबाई लगभग 70-80 सेंटीमीटर होती है। फल लंबे चमकदार बैंगनी रंग के होते हैं। फल का औसतन भार 150-200 ग्रा. के बीच होता है। इस किस्म से 700-750 क्वि./हे. के मध्य औसत उपज प्राप्त होती है।
स्वर्ण श्री –
इस किस्म के पौधे 60-70 सेंटीमीटर लम्बे, अधिक शाखाओंयुक्त, चौड़ी पत्ती बाले होते हैं। फल अंडाकार मखनिया-सफेद रंग के मुलायम होते हैं। यह भुरता बनाने के लिए उपयुक्त किस्में है। भू-जनित जीवाणु मुरझा रोग के लिए सहिष्णु इस किस्म की पैदावार 550-600 क्वि./हे. तक होती है।
स्वर्ण मणि
इसके पौधे 70-80 सेंटीमीटर लंबे एवं पत्तियां बैगनी रंग की होती है। फल 200-300 ग्राम वजन के गोल एवं गहरे बैंगनी रंग के होते हैं। यह भूमि से उत्पन्न जीवाणु मुरझा रोग के लिए सहिष्णु किस्म है। इसकी औसत उपज 600-650 क्वि./हे. तक होती है।
स्वर्ण श्यामली
भू-जनित जीवाणु मुरझा रोग प्रतिरोधी इस अगेती किस्म के फल बड़े आकार के गोल, हरे रंग के होते हैं। फलों के ऊपर सफेद रंग के धारियां होती है। इसकी पत्तियां एवं फलवृंतों पर कांटे होते हैं। रोपाई के 35-40 दिन बाद फलों की तुड़ाई प्रारंभ हो जाती है। इसके व्यजंन बहुत ही स्वादिष्ट होते हैं। इसकी लोकप्रियता छोटानागपुर के पठारी क्षेत्रों में अधिक है। इसकी उपज क्षमता 600-650 क्वि./हे. तक होती है।
स्वर्ण प्रतिभा
क्षेत्र में उग्र रूप में पाए जाने वाले जीवाणु मुरझा रोग के लिए यह के प्रतिरोधी किस्म है। इसके फल बड़े आकार के लंबे चमकदार बैंगनी रंग के होते है। इसके फलों की बाजार में बहुत मांग है। किस्मं की उपज क्षमता 600-650 क्वि./हे. के बीच होती है।
Punjab Bahar
इस किस्म के पौधे की लंबाई 93 सैं.मी. होती है। इसके फल गोल, गहरे जामुनी रंग के और कम बीजों वाले होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 190 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
Punjab No 8
यह किस्म दरमियाने कद की होती है। इसके फसल दरमियाने आकार के, गोल और हल्के जामुनी रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 130 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
यह किस्म पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी द्वारा तैयार की गई है और इसके फल लंबे और जामुनी रंग के होते हैं।
Punjab Barsati
यह किस्म पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी द्वारा बनाई गई है और यह किस्म फल छेदक को सहनेयोग्य है। इसके फल दरमियाने आकार के, लंबे और जामुनी रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 140 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
Punjab Neelam
यह किस्म पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी द्वारा बनाई गई है और इसके फल लंबे और जामुनी रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 140 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
Punjab Sadabahar
यह किस्म पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी द्वारा बनाई गई है और इसके फल लंबे और काले रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 130 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
PH 4
यह किस्म पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी द्वारा बनाई गई है और इसके फल दरमियाने आकार के लंबे और गहरे जामुनी रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 270 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
PBH-5
यह किस्म 2017 में जारी की गई है। इसकी औसतन उपज 225 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसके फल लंबे, चमकदार और काले-जामुनी रंग के होते हैं।
PBHR-41
यह किस्म 2016 में जारी की गई है। इसकी औसतन उपज 269 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसके फल गोल, मध्यम से बड़े आकार के, चमकदार और हरे जामुनी रंग के होते हैं।
PBHR-42
यह किस्म 2016 में जारी की गई है। इसकी औसतन उपज 261 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसके फल गोल अंडाकार आकार के, मध्यम, चमकदार और काले जामुनी रंग के होते हैं।
PBH-4
यह किस्म 2016 में जारी की गई है। इसकी औसतन उपज 270 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसके फल मध्यम लंबे, चमकदार और काले जामुनी रंग के होते हैं।
Punjab Nagina
यह किस्म 2007 में जारी की गई है। इसकी औसतन उपज 145 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसके फल काले जामुनी रंग के और चमकदार होते हैं। यह किस्म बिजाई के 55 दिनों के बाद तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं।
BH 2
यह किस्म 1994 में जारी की गई है। इसकी औसतन उपज 235 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसके फल का औसतन भार 300 ग्राम होता है।
Punjab Barsati –
यह किस्म 1987 में जारी की गई है। इसकी औसतन उपज 140 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसके फल मध्यम लंबे और चमकदार जामुनी रंग के होते हैं।
दूसरे राज्यों की किस्में –
Pusa Purple Long
यह जल्दी पकने वाली किस्म है। सर्दियों में यह 70-80 दिनों में और गर्मियों में यह 100-110 दिनों में पक जाती है। इस किस्म के बूटे दरमियाने कद के और फल लंबे और जामुनी रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 130 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
Pusa Purple Cluster
यह किस्म आई. सी. ए. आर. नई दिल्ली द्वारा बनाई गई है। यह दरमियाने समय की किस्म है। इसके फल गहरे जामुनी रंग और गुच्छे में होते हैं। यह किस्म झुलस रोग को सहने योग्य होती है।
Pusa Hybrid 5 –
इस किस्म के फल लंबे और गहरे जामुनी रंग के होते है। यह किस्म 80-85 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 204 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
Pusa Purple Round –
यह किस्म पत्ते, शाख और फल के छोटे कीट की रोधक किस्म है।
Pant Rituraj –
इस किस्म के फल गोल और आकर्षित जामुनी रंग के होते हैं और इनमें बीज की मात्रा भी कम होती है। इसकी औसतन पैदावार 160 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
लम्बे फल वाले बैंगन की क़िस्में –
पूसा परपल लोंग, पूसा परपल क्लसटर, पूसा क्रान्ति, पन्त सम्राट, आजाद क्रांति, एस- 16, पंजाब सदाबहार, ए आर यू 2-सी और एच- 7,ए आर बी एच- 201 आदि प्रमुख है|
गोल फल वाले बैंगन की क़िस्में –
पूसा परपल राउन्ड, एच- 4, पी- 8, पूसा अनमोल, पन्त ऋतु राज, टी- 3, एच- 8, डी बी एस आर- 31, पी बी- 91-2, के- 202-9, डीबी आर- 8 और ए बी- 1, एन डी बी एच- 1, ए बी एच- 1, एम एच बी- 10, एम एच बी- 39, ए बी- 2 और पूसा हाइब्रिड- 2 आदि प्रमुख है|
छोटे गोल फल वाले बैंगन की क़िस्में –
डी बी एस आर- 44 और पी एल आर- 1 प्रमुख है|
संकर किस्में-
अर्का नवनीत और पूसा हाइब्रिड- 6 प्रमुख है|
छोटी पत्ती रोगी रोधी किस्में-
एस- 16 और ए बी- 2 प्रमुख है|
बुवाई का समय –
बैंगन की फसल को वर्ष में तीन बार लिया जा सकता है, ताकि वर्ष भर बैंगन मिलते रहें| जो इस प्रकार है जैसे-
वर्षाकालीन फसल-
नर्सरी तैयार करने का समय फरवरी से मार्च और मुख्य खेत में रोपाई का समय मार्च से अप्रेल उचित है|
शरदकालीन फसल-
नर्सरी तैयार करने का समय जून से जुलाई और मुख्य खेत में रोपाई का समय जुलाई से अगस्त उचित है|
बसंतकालीन समय-
नर्सरी तैयार करने का समय दिसम्बर और मुख्य खेत में रोपाई का समय दिसम्बर से जनवरी उचित है|
बीज की मात्रा व बीजोपचार
एक हैक्टेयर में पौध रोपाई के लिये 400 से 500 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है, और संकर किस्मों का 250 से 300 ग्राम प्रति हेक्टेयर बीज उपयुक्त होता है|बिजाई के लिए तंदरूस्त और बढ़िया बीज का ही प्रयोग करें। बिजाई से पहले बीजों को थीरम 3 ग्राम या कार्बेनडाज़िम 3 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचार करें। रासायनिक उपचार के बाद बीजों का ट्राइकोडरमा विराइड 4 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचार करें और फिर छांव में सुखाने के बाद तुरंत बिजाई करें।
बीज की बुआई –
बैगन कि शरदकालीन फसल के लिए जुलाई-अगस्त में, ग्रीष्मकालीन फसल के लिए जनवरी-फरवरी में एवं वर्षाकालीन फसल के लिए अप्रैल में बीजों की बुआई की जानी चाहिए। एक हेक्टेयर खेत में बैगन की रोपाई के लिए समान्य किस्मों का 250-300 ग्रा. एवं संकर किस्मों का 200-250 ग्रा, बीज पर्याप्त होता है। पौधशाला में बुआई से पहले को ट्राईकोडर्मा 2 ग्रा./कि. ग्रा. अथवा बाविस्टिन 2 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। बुआई 5 सेंटीमीटर की दूरी पर बनी लाइनों में की जानी चाहिए। बीज से बीज की दुरी एवं बीज की गहराई 0.5-1.0 सेंटीमीटर के बीच रखनी चाहिए। बीज को बुआई के बाद सौरीकृत मिट्टी से ढकना उचित रहता है। पौधशाला को अधिक वर्षा एवं कीटों के प्रभाव से बचाने के लिए नाइलोन की जाली (मच्छरदानी का कपड़ा) लगभग 1.0-1.5 फुट ऊंचाई पर लगाकर ढकना चाहिए एवं जाली को चारों ओर से मिट्टी से दबा देना चाहिए जिससे बाहर से कीट प्रवेश न कर सकें।
पौध तैयार करना –
जहां पर नर्सरी बनानी हो, वहां पर अच्छी प्रकार खुदाई करके खरपतवारों को निकालें तथा अच्छी सड़ी हुई गोबर या कम्पोस्ट की खाद आवश्यकतानुसार डालें| नर्सरी में बुवाई से पूर्व बीजों को थाइम या केप्टान 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करें| अगर सूत्रकृमि रोग (निमेटोड) की समस्या हो तो 8 से 10 ग्राम कार्बोफ्यूरॉन 3 जी प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से भूमि में मिलावें|एक हैक्टेयर की पौध तैयार करने के लिये एक मीटर चौडी और तीन मीटर लम्बी करीब 15 से 20 क्यारियों की आवश्यकता होती है| बीज की 1 से 1.5 सेन्टीमीटर की गहराई पर, 3 से 5 सेन्टीमीटर के अन्तर पर कतारों में बुवाई करें और बुवाई के बाद गोबर की बारीक खाद की एक सेन्टीमीटर मोटी परत से ढक दें तथा फव्वारें से सिंचाई करें|

पौध रोपण एवं देखरेख –
बुआई के 21 से 25 दिन पश्चात पौधे लगाने के लिए तैयार हो जाते हैं। बैगन की शरदकालीन फसल के लिए जुलाई-अगस्त में ग्रीष्मकालीन फसल के लिए जनवरी-फरवरी में एवं वर्षाकालीन फसल के लिए अप्रैल-मई में रोपाई की जानी चाहिए। अच्छी पैदावार के लिए फसल को उचित दूरी पर लगाना आवश्यक होता है। शरदकालीन एवं ग्रीष्मकालीन फसल को कतार से कतार के बीइच 60 सेंटीमीटर एवं पौधे से पौधे के बीच 50 सेंटीमीटर का अंतराल रखते हुए लगाना उचित रहता है। संकर किस्मों के लिए कतारों के बीच 75 सेंटीमीटर एवं पौधों के बीच 60 सेंटीमीटर दूरी रखना पर्याप्त होगा। रोपाई शाम के समय की जानी चाहिए एवं इसके बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए। इस क्रिया से पौधों की जड़ों का मिट्टी के साथ सम्पर्क स्थापति हो जाता है। बाद में मौसम के अनुसार 3-5 दिन के पश्चात आवश्यकतानुसार सिंचाई की जा सकती है। फसल की समय-समय पर निकाई-गुड़ाई करनी आवश्यक होती है। प्रथम निकाई-गुड़ाई रोपाई के 20-24 दिन पश्चात एवं द्वितीय 40-50 दिन के बाद करें। इस क्रिया से भूमि में वायु का संचार होगा।
खाद एवं उर्वरक
अच्छी पैदावार के लिए 200-250 क्वि./हे. की दर से सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए । इसके अतिरिक्त फसल में 120-150 कि.ग्रा. नत्रजन (260-325 कि.ग्रा. यूरिया), 60-75 कि.ग्रा. फास्फोरस (375-469 कि. ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट) तथा 50-60 कि.ग्रा. पोटाश (83-100 कि. ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश) की प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता होती है। नत्रजन कि एक तिहाई एवं फास्फोरस और पाराश की पूरी मात्रा मिलकर अंतिम जुताई के समय खेत में डालनी चाहिए शेष नत्रजन की मात्रा को दो बराबर भागों में बाँट का रोपाई के समय क्रमशः 20-25 दिन एवं 45-5- दिन बाद खड़ी फसल में देना उचित रहता है। बैगन की संकर किस्मों के लिए अपेक्षाकृत अधिक पोषण कि आवश्यकता होती है। इनके लिए 200-250 कि.ग्रा. नत्रजन (435-543 कि. ग्रा. यूरिया) 100-125 कि. ग्रा. फास्फोरस (625-781 कि. ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट) एवं 80-100 कि. ग्रा. पाराश (134-167 कि. ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश) प्रति हेक्टेयर की दर से देना उचित होगा।
टॉप ड्रेसिंग-
पौध रोपण के 20 दिन बाद और फूल लगने के समय 20-20 किलोग्राम नाइट्रोजन को बुरकाकर कर फसल में दो बार देना चाहिए| संकर किस्मों में यह मात्रा 30-30 किलोग्राम रखे|
सिंचाई – जल प्रबंधन
गर्मी की ऋतु में 4 से 5 दिन की अन्तराल पर और सर्दी की ऋतु में 10 से 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए । वर्षा ऋतु में सिंचाई आवश्यकतानुसार करें| बैंगन की खेती में अधिक पैदावार लेने के लिए सही समय पर पानी देना बहुत जरूरी है। गर्मी के मौसम में हर 3-4 दिन बाद पानी देना चाहिए और सर्दियों में 12 से 15 के अंतराल में पानी देना चाहिए। कोहरे वाले दिनों में फसल को बचाने के लिए मिट्टी में नमी बनाए रखें और लगातार पानी लगाएं। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि बैंगन की फसल में पानी खड़ा न हो, क्योंकि बैंगन की फसल खड़े पानी को सहन नहीं कर सकती है।
प्रमुख कीट
हरा तेला, मोयला, सफेद मक्खी और जालीदार पंख वाली बग-
– ये कीडे पत्तियों के नीचे या पौधे के कोमल भाग से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं| इससे पैदावर पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं| कभी-कभी ये कीट व रोगों का प्रसार में सहायक होते हैं|
रोकथाम- डाईमिथोएट 30 ई सी या मैलाथियान 50 ई सी या मिथाईल डिमेटोन 25 ई सी कीटनाशकों में से किसी एक की एक मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिडके| आवश्यकतानुसार इस छिडकाव को 15 से 20 दिन बाद दोहराये| एपीलेक्ना बीटल- इस कीट का प्रकोप आमतौर पर सीमित होता हैं| उपरोक्त कीटनाशक यदि प्रयोग में लिये गये हो तो इसक नियंत्रण स्वतः ही हो जाता है|
रोकथाम- मैलाथियान 5 प्रतिशत या कार्बोरिल 5 प्रतिशत चूर्ण का 20 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से भूरकाव करें|
फल और तना छेदक-
इस कीट के आक्रमण से बढती हुई शाखाएं मुरझा कर नष्ट हो जाती हैं और फलों में छेद हो जाते हैं, इसके फलस्वरूप फलों की विपणन गुणवत्ता कम हो जाती हैं|
रोकथाम- प्रभावित शाखाओं और फलों को तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए| फल बनने पर कार्बोरिल 50 डब्ल्यू पी 4 ग्राम या फार्मेथियान 50 ई सी 1 मिलीलीटर या एसीफेट 75 एस पी 0.5 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिडके| आवश्यकतानुसार 10 से 15 दिन बाद छिड़काव दोहरावें| दवा छिडकने के 7 से 10 दिन बाद फल तोड़ने चाहिए|
मूल ग्रन्थी सूत्र कृमि (निमेटोड)-
इसकी वजह से बैंगन की जड़ों पर गांठे बन जाती हैं और पौधों की बढ़वार रूक जाती है तथा पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं|
रोकथाम- नर्सरी में पौध तैयार करते समय 10 से 12 ग्राम की कार्बयूरॉन 3 जी प्रति वर्गमीटर की दर से तथा खेत की पौध रोपाई के समय 25 किलोग्राम कार्बयूरॉन 3 जी प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि उपचार करें या पौध की रोपाई के स्थान पर डालकर पौधों की रोपाई करें|
रोग रोकथाम –
छोटी पत्ती रोग-
यह बैंगन का एक माइकोप्लाज्मा जनित विनाशकारी रोग हैं| इस रोग के प्रकोप से पत्तियां छोटी रह जाती हैं और गुच्छे के रूप में तने के ऊपर उगी हुई दिखाई देती हैं| पूरा रोगग्रस्त पौधा झाड़ीनुमा लगता हैं| ऐसे पौधों पर फल नहीं बनते है|
रोकथाम- रोग ग्रस्त पौधे को उखाडकर नष्ट कर देना चाहिये| यह रोग हरे तेले (जेसिड) द्वारा फैलता हैं| इसलिए इसकी रोकथाम के लिए एक मिलीलीटर डाईमेथोएट 30 ई सी प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें तथा 15 दिन बाद दोहरावें|
झुलसा रोग-
इस रोग के प्रकोप से पत्तियों पर विभिन्न आकार के भूरे से गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं| धब्बों में छल्लेनुमा धारियां दिखने लगती हैं|
रोकथाम- मैन्कोजेब या जाईनेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें| यह छिड़काव आवश्यकतानुसार 10 से 15 दिन के अन्तराल से दोहरावें|
आद्रगलन (डेम्पिंग ऑफ)-
यह रोग पौधे की छोटी अवस्था में होता हैं| इसके प्रकोप से जमीन की सतह पर स्थित तने का भाग काला पड़कर कमजोर हो जाता है और पौधे गिरकर मरने लगते हैं| यह रोग भूमि एवं बीज के माध्यम से फैलता हैं|
रोकथाम- बीजों को 3 ग्राम केप्टॉन प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें| नर्सरी में बुवाई से पूर्व थाईरम या केप्टॉन 4 से 5 ग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से भूमि में मिलावें| नर्सरी, आसपास की भूमि से 7 से 10 इंच उठी हुई भूमि में बनावें| बैंगन फसल के कीट और रोग रोकथाम की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- बैंगन की फसल में समेकित नाशीजीव प्रबंधन (आई पी एम) कैसे करें ।
बैंगन की फसल की तुड़ाई –
खेत में बैंगन की पैदावार होने पर फलों की तुड़ाई पकने से पहले करनी चाहिए। तुड़ाई के समय रंग और आकार का विशेष ध्यान रखना चाहिए। बैंगन का मंडी में अच्छा रेट मिले इसके लिए फल का चिकना और आकर्षक रंग का होना चाहिए।

पैदावार
जब फसल बाजार भेजने लायक हो जावें, तब फलों की तुडाई करें| उपरोक्त विधि से खेती करने पर बैंगन की खेती से लगभग 250 से 350 क्विंटल पैदावार प्रति हैक्टेयर होती हैं| किन्तु संकर किस्मों के बीज से खेती करने पर 350 से 500 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक पैदावार प्राप्त की जा सकती हैं|
बैंगन का स्टोरेज / बैंगन का भंडारण
बैंगन को लंबे समय के लिए स्टोर नहीं किया जा सकता है। बैंगन को आम कमरे के सामान्य तापमान में भी ज्यादा देर नहीं रख सकते हैं क्योंकि ऐसा करने से इसकी नमी खत्म हो जाती है। हालांकि बैंगन को 2 से 3 सप्ताह के लिए 10-11 डिग्री सेल्सियस तापमान और 9२ प्रशित नमी में रखा जा सकता है। किसान भाई बैंगन को कटाई के बाद इसे सुपर, फैंसी और व्यापारिक आकार के हिसाब से छांट लें और पैकिंग के लिए, बोरियों या टोकरियों का प्रयोग करें।