चरोटा भाजी (कैसिया टोरा) की खेती बिन बोई फसल : ग्रामीणों की आमदनी का बेहतर जरिया

चकवत यानि चरोटा एक खरपतवार के रूप में उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों, सड़क किनारे और बंजर भूमियों में बरसात के समय अपने आप उगता है। परन्तु बीते 3-4 वर्ष से अनुपयोगी समझे जाना वाला एवं स्वमेव उगने वाला यह खरपतवार अब आदिवासी व ग्रामीणजनों के लिए रोजगार एवं आमदनी का प्रमुख साधन बनता जा रहा है। यकीनन वर्षा ऋतु में बेकार पड़ी भूमियों में हरियाली बिखेरने वाले इस द्बिबीजपत्री वार्षिक पौधे को मैनमार, चीन, मध्य अमेरिका के अलावा भारत के विभिन्न राज्यों में झारखण्ड, बिहार, ऑडीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में बखूबी से देखा जा सकता है।

चकवड/चरोटा/चकौड़ा के पौधे का परिचय –

चकवत के पौधे को पवाड़, पवाँर, चकवड़, संस्कृत में चक्रमर्द और अग्रेजी में सिकल सेना के नामों से भी जाना जाता है । जिसका वानस्पतिक नाम कैसिया टोरा लिनन बेकर – Cassia tora L. Synonym of Senna tora (L.)Roxb.Pot Cassia ) है। लेग्यूमिनेसी कुल के इस पौधे की ऊंचाई 30-90 सेमी होती है। पत्तियां तीन जोड़ी में बनती है। इसकी पत्तियों को मसलने पर विशेष प्रकार की गंध आती है। पोधें में पुष्प जोड़ी में निकलते है जो कि पीले रंग के होते है। चक्रवत में पुष्पन अवस्था प्रायः अगस्त-सितम्बर में आती है। फलियाँ हंसिया के आकार की 15-25 सेमी लम्बी होती है। प्रति फल्ली 25-30 बीज विकसित होते है। बीज चमकीले हल्के कत्थई या धूसर रंग के होते है।
चकवत के पौधे अम्लीय भूमि से लेकर क्षारीय भूमियों (4.6 से लेकर 7.9 पीएच मान) में सुगमता से उगते है। चकवत के पौधे 640 से लेकर 4200 मिमि. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में आसानी से उगते है। इसके बीज 13 डिग्री सेग्रे. से कम और 40 डिग्री सेग्रे. से अधिक तापक्रम पर नही उगते है। पौध बढ़वार के लिए औसतन 25 डिग्री सेग्रे तापक्रम की आवश्यकता होती है। प्रकाश अवधि का चकवत की पौध वृद्धि पर प्रभाव पड़ता है। प्रकाश अवधि 6 से 15 घंटे हो जाने पर इसके पौधे अधिक वृद्धि करते है। एक समान प्रकाश अवधि में पौधे छोटे अकार के होते है। इसमें फल्लियाँ तभी बनती है जब इसे 8-11 घंटे प्रकाश मिलता है।

चरोटा भाजी (कैसिया टोरा) बिन बोई फसल
चरोटा भाजी (कैसिया टोरा) बिन बोई फसल – Cassia tora L

chakunda के कॉमन नाम –

Hindi में Chakunda, English में Pot Cassia, Tamil में Tagra, Assamese में Soru-medelua, Others- Segutha,Bagarai/Oosi Thagara, Karbi- Hadi diga, bodo – Adi diga

बड़े काम का है चरोटा खरपतवार –

वर्षाकाल में झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडीसा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश आदिवासी व ग्रामीण लोग चक्रवद की नवोदित और मुलायम पत्तियों तथा टहनियों का प्रयोग साग-भाजी के रूप में करते है। इस पौधे के संम्पूर्ण भागों यथा पत्तियाँ, तना, फूल, बीज एवं जड़ का उपयोग विविध प्रयोजनों के लिए किया जाता है। इसकी पत्तियां न केवल भाजी के रूप में बल्कि कुमांयु के कुछ क्षेत्रों में चाय के रूप में भी प्रयोग की जाती है। चर्म रोगों के लिए यह एक प्रभावकारी औषधि है साथ ही इसकी पत्तियों को पुल्टिस के रूप में घाव व फ़ोड़े पर प्रयोग किया जाता है।

चकवड/चरोटा/चकौड़ा में पाए जाने वाले पोषक तत्व –

पोषक मान की दृष्टि से चक्रवत की हरी पत्तियों में (प्रति 100 ग्राम खाने योग्य भाग में) 84.9 ग्राम नमी, 5 ग्राम प्रोटीन, 0.8 ग्राम वसा, 1.7 ग्राम खनिज, 2.1 ग्राम रेशा, 5.5 ग्राम कार्बोइड्रेट, 520 मिग्रा.कैल्शियम,39 मिग्रा.फाॅस्रफ़ोरस,124 मिग्रा. लोहा तथा 10152 मिग्रा.कैरोटीन के अलावा थाइमिन, राइबोफ्लेविन,नियासिन, विटामिन सी भरपूर मात्रा में पाई जाती है।

चक्रवत के बीज का उपयोग –

चक्रवत के बीज से प्रमुख रूप से ग्रीन टी, चॉकलेट, आइसक्रीम के अलावा विविध आयुर्वेदिक दवाइयाँ बनाने में प्रयोग किया जा रहा है। इसके बीज को भूनकर काफी के विकल्प के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इसके गोंद पैदा करने वाली प्रमुख फसल ग्वार के बीज की तुलना में इसके बीजों में अधिक मात्रा में गोंद (7.65 प्रतिशत) पाया जाता है।

चरोटा से गाजर घांस का उन्मूलन भी –

चरोटा के बीजों से अनन्य खाद्य पदार्थों के अलावा गोंद तो प्राप्त होता है। जहाँ चरोटा के पौधे उगते है वहां गाजर घांस यानि पार्थिनियम (विश्व का सबसे खतरनाक और तेजी से फ़ैलने वाला खरपतवार) के पौधें नहीं उगते है। अतः गाजर घांस प्रभावित क्षेत्रों में चरोटा के बीजों का छिड़काव या खेती करने से उक्त खरपतवार से छुटकारा मिल सकता है। यही नहीं चरोटा को हरी खाद के रूप में भी उपयोग में लाया जा सकता है।

चकवड/चरोटा/चकौड़ा की खेती कैसे करें –

बिना लागत और स्वमेव उपजी चरोटा की फसल भूमिहीन और गरीब किसानों और आदिवासियों के लिए एक बहुमूल्य तोहफा है। ठण्ड का मौसम आते है चरोटा की फल्लियाँ पकने लगती है। धान की कटाई पश्चात ग्रामीण स्त्री-परुष अपनी सामर्थ्य के अनुसार चरोटा के पौधों की कटाई प्रारम्भ कर देते है। फसल को सुखाने के बाद सड़क पर बिछा दिया जाता है। इसके ऊपर वाहनों के गुजरने से फल्लिओं से बीज निकल आता है, जिसकी उड़ावनी और सफाई कर बीज निकाल लिया जाता है।

बिन बोई फसल से बेहतर आमदनी –

बगैर किसी लागत के स्वमेव उपजी चरोटा की फसल को बेचने किसानों को भटकना भी नहीं पड़ता है। व्यापारी किसान के घर से ही इसे खरीद लेते है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों जैसे बस्तर संभाग के अलावा रायपुर, बिलासपुर दुर्ग और सरगुजा के ग्रामीण भी इस प्रकृति प्रदत्त फसल से खासा मुनाफा कमा रहे है। वर्तमान में चरोटा के बीज 40-50 रुपये प्रति किलो की दर से बाजार में ख़रीदा जा रहा है। चरोटा बीज के व्यापारी/आढ़तिया किसानो से इसे खरीद कर मुंबई, हैदराबाद, विशाखापटनम आदि शहरों में भेज रहे है जहां से इसका निर्यात चाइना और अन्य एशियाई देशों में किया जाता है। बहुत से ग्रामीण और आदिवासी इसके थोड़े बहुत बीज हाट-बाजार में बेच कर रोजमर्रा की वस्तुएं क्रय करते है। चरोटा की फसल के बेहतर दाम मिलने से अब अधिक संख्या में ग्रामीणजन इस फसल को एकत्रित करने उत्साहित हो रहे है। ग्रामीणों के साथ-साथ व्यापारियों के लिए भी चरोटा की फसल आमदनी का जरियां बन रही है। चकवत का ओषधीय एवं आर्थिक महत्व को देखते हुए अब चकवत की उन्नत खेती की संभावनाएं तलाशी जा रही है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के सस्य विज्ञानं विभाग के वैज्ञानिकों द्वारा चकवत की फसल से अधिकतम उपज और आमदनी लेने के लिए शोध कार्य प्रारम्भ किये गए है।