भारत देश मे ग्वार का शाब्दिक अर्थ गऊ आहार होता है अथार्त प्राचीन काल में इस फसल की उपयोगिता चारा मात्र् में ही थी, परन्तु वर्तमान में बदली परिस्थितियों में यह एक अतिमहत्वपूर्ण औद्योगिक फसल बन गई है । ग्वार के दानों से निकलने वाले गोंद के कारण इसकी खेती बीजोत्पादन के लिए करना आर्थिक रूप से ज्यादा फायदेमंद हो सकता है। ग्वार राजस्थान के पश्चिम प्रदेश की अतिमहत्वपूर्ण फसल है।
ग्वार, लेग्युमिनेसी कुल की, खरीफ ऋतु में उगाई जाने वाली एकवर्षीय फसल है। ग्वार यानि क्लस्ट्रबीन का वैज्ञानिक नाम साइमोपसिस टेट्रागोनोलोबा है। इसका पौधा बहु-शाखीय व सीधा बढ़ने वाला है। पौधे की लम्बाई 30-90 सेमी तक होती है। इसकी जड़ें मृदा में काफी गहराई तक जाती हैं।

ग्वार की उन्नतशील खेती की जानकारी – ग्वार की फसल उगाने की उन्नत प्रौद्योगिकी – Improved technology for cluster bean cultivation in hindi
ग्वार के फूल आकार में छोटे व गुलाबी रंग के होते हैं। फलियां लम्बी व रोएंदार होती हैं। ग्वार एक स्वपरांगित फसल है। ग्वार की फसल में बुवाई के 70-75 दिनों बाद फलियां आनी शुरू हो जाती हैं। सामान्यतः 110-133 फलियां प्रति पौधा आ जाती हैं। ग्वार की खेती कम वर्षा और विपरीत परिस्थितियों वाली जलवायु में भी आसानी की जा सकती है।
ग्वार की ताजा व नर्म-मुलायम फलियों को सब्जी और भुरता बनाने के काम में लाया जाता है। कच्ची सुखाकर रखी हुई फलियों का प्रयोग भी सब्जी बनाने में किया जाता है। फलियों को सुखाकर व नमक मिलाकर लम्बे समय तक उपयोग के लिए रखा जा सकता है।
ग्वार में पाए जाने वाले पोषक तत्व –
ग्वार की हरी फलियों में रेशे की मात्रा अधिक पायी जाती है। हरी फलियों के 100 ग्राम भाग में 81.0 ग्राम पानी, 3.2 ग्राम प्रोटीन, 0.4 ग्राम वसा, 1.4 ग्राम खनिज, 3.2 ग्राम रेशा और 10.8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। इसके अतिरिक्त हरी फलियों में कैल्शियम (130 मि.ग्रा.), फास्फोरस (57 मि.ग्रा.), लोहा (1.08 मि.ग्रा.) तथा विटामिन-ए, थाइमिन, फोलिक अम्ल और विटामिन-सी इत्यादि भी इसमें पाए जाते हैं।
ग्वार की फसल ग्वार जानवरों के लिए भी एक पौष्टिक आहार है। ग्वार के दानों और ग्वार चूरी को जानवरों के खाने में प्रोटीन की कमी को पूरा करने के लिए दिया जाता है।
ग्वार के बीज में लगभग 37-45 प्रोटीन, 1.4-1.8 पोटेशियम, 0.40-0.80 कैल्शियम और 0.15-0.20 मैग्निशियम पाया जाता है।
हरे चारे के रूप में इसे फलियां बनते समय पशुओं को खिलाया जाता है। इस अवस्था पर इसमें प्रोटीन व खनिज लवणों की मात्रा अधिक पायी जाती है। ग्वार के दानों का 14 से 17 प्रतिशत छिलका तथा 35 से 42 प्रतिशत भाग भ्रूणपोष होता है।
ग्वार के दानों के भ्रूणपोष से ही ‘ग्वार गम’ उपलब्ध होता है। ग्वार के दाने में 30 से 33 प्रतिशत गोंद पाया जाता हैl
ग्वार की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि यह उन मृदाओं में आसानी से उगायी जा सकती है जहां दूसरी फसलें उगाना अत्यधिक कठिन है। अतः कम सिंचाई वाली परिस्थितियों में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
ग्वार की बुवाई समय (time of showing)
मई से जुलाई माह में खेत होती है।
खेत की तैयारी field preparation)-
ग्वार की फसल लगभग सभी तरह की भूमि में ली जा सकती है परन्तु क्षारीय तथा जिस भूमि पर पानी ठहरता हो इसके लिए उपयुक्त नहीं है।
ग्वार की किस्में निम्नलिखित हैं-
आर.जी.सी. 936 :
– यह शाखित व जल्दी पकने वाली किस्म है l यह असिंचित (बारानी) क्षेत्र के लिए उपयुक्त किस्म है ।
आर.जी.सी. 986 :
– यह अशाखित व मध्यम पकने वाली किस्म है जो सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयोगी है ।
आर.जी.सी. 1002 :
– यह शाखित व जल्दी पकने वाली किस्म है l यह असिंचित व सिंचित दोनों परिस्तिथियों के लिए उपयुक्त किस्म है ।
आर.जी.सी. 1003 :
– यह शाखित व जल्दी पकने वाली किस्म है जो असिंचित क्षेत्र के लिए उपयुक्त है।
आर.जी.सी. 1066 :
– इस किस्म के पौधे शाखाओं रहित होते है । पौधे की ऊँचाई 60 – 90 सेमी. होती है । इस किस्म में फलियाँ जमीन से 2-3 सेमी. ऊपर से ही लगने लग जाती है । यह एक जल्दी पकने वाली (85 -90 दिन) किस्म है । यह किस्म खरीफ व जायद दोनों ही परिस्थितियों के लिए उपयुक्त है l
एच.जी. 365 :
– यह शाखित व जल्दी पकने वाली किस्म है जो हरियाणा व राजस्थान के लिए उपयुक्त है l
एच.जी. 563 :
– यह शाखित एवं जल्दी पकने वाली किस्म है जो की ग्वार उगाने वाले सभी क्षेत्रोँ के लिए उपयुक्त हैl
एच.जी. 2-20 :
– यह शाखित एवं जल्दी पकने वाली किस्म है जो असिंचित व सिंचित दोनों परिस्तिथियों के लिए उपयुक्त है l इसकी खेती जायद ऋतु में भी की जा सकती हैl
– आर.जी.सी. 1031 :
– इस किस्म के पौधे भी अधिक लम्बाई वाले (74 – 108 सेमी.) व अधिक शाखाओं वाले होते है । यह देर से पकने वाली (110 – 114 दिन) किस्म है l
आर.जी.सी. 1017 :
– इस किस्म के पौधे छोटे (55-60 सेमी.) व अधिक शाखाओं वाले होते हैं । पौधे की पत्तियां किनारों पर अधिक कटी होती है ।यह किस्म 90 -100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है ।
आर.जी.सी. 1038 :
– इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई 60-75 सेमी. व शाखाओं युक्त होती है । यह किस्म 95 – 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है व खरीफ व जायद दोनों ही परिस्थितियों के लिए उपयुक्त है ।
आर.जी.सी. 197 :
-यह बिना शाखाओं वाली किस्म है । इसके पौधे की लम्बाई 90 से 120 सेमी. होती है । यह किस्म 100 से 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है ।
आर.जी.एम. 112 :
– यह किस्म बैक्टीरियल ब्लाइट व जड़ गलन रोग के प्रति मध्यम प्रतिरोधी है तथा लगभग 95 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है ।
आर.जी.सी. 936 :
– यह शाखित व जल्दी पकने वाली किस्म है । यह असिंचित (बारानी) क्षेत्र के लिए उपयुक्त किस्म है ।
आर.जी.सी. 986 :
– यह अशाखित व मध्यम पकने वाली किस्म है जो सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयोगी है ।
आर.जी.सी. 1002 :
– यह शाखित व जल्दी पकने वाली किस्म है l यह असिंचित व सिंचित दोनों परिस्तिथियों के लिए उपयुक्त किस्म है ।
आर.जी.सी. 1003 :
– यह शाखित व जल्दी पकने वाली किस्म है जो असिंचित क्षेत्र के लिए उपयुक्त है।
आर.जी.सी. 1066 :
– इस किस्म के पौधे शाखाओं रहित होते है । पौधे की ऊँचाई 60 – 90 सेमी. होती है । इस किस्म में फलियाँ जमीन से 2-3 सेमी. ऊपर से ही लगने लग जाती है । यह एक जल्दी पकने वाली (85 -90 दिन) किस्म है । यह किस्म खरीफ व जायद दोनों ही परिस्थितियों के लिए उपयुक्त है l
एच.जी. 365 :
– यह शाखित व जल्दी पकने वाली किस्म है जो हरियाणा व राजस्थान के लिए उपयुक्त है ।
एच.जी. 563 :
– यह शाखित एवं जल्दी पकने वाली किस्म है जो की ग्वार उगाने वाले सभी क्षेत्रोँ के लिए उपयुक्त है ।
एच.जी. 2-20 :
– यह शाखित एवं जल्दी पकने वाली किस्म है जो असिंचित व सिंचित दोनों परिस्तिथियों के लिए उपयुक्त है । इसकी खेती जायद ऋतु में भी की जा सकती है ।
आर.जी.सी. 1031 :
इस किस्म के पौधे भी अधिक लम्बाई वाले (74 – 108 सेमी.) व अधिक शाखाओं वाले होते है । यह देर से पकने वाली (110 – 114 दिन) किस्म है ।
आर.जी.सी. 1017 :
इस किस्म के पौधे छोटे (55-60 सेमी.) व अधिक शाखाओं वाले होते हैं । पौधे की पत्तियां किनारों पर अधिक कटी होती है ।यह किस्म 90 -100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है ।
आर.जी.सी. 1038 :
इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई 60-75 सेमी. व शाखाओं युक्त होती है । यह किस्म 95 – 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है व खरीफ व जायद दोनों ही परिस्थितियों के लिए उपयुक्त है ।
आर.जी.सी. 197
– यह बिना शाखाओं वाली किस्म है । इसके पौधे की लम्बाई 90 से 120 सेमी. होती है । यह किस्म 100 से 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है ।
आर.जी.एम. 112
यह किस्म बैक्टीरियल ब्लाइट व जड़ गलन रोग के प्रति मध्यम प्रतिरोधी है तथा लगभग 95 दिनों में पक कर तैयार हो जाती हैl
बीज दर
ग्वार की अकेली फसल हेतु 12 से 15 किलो किस्म का बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई करें। ग्वार की बुवाई कतार या पंक्ति में करें। कतार से कतार की दूरी 30 से 45 से.मी. रखें तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 से.मी. रखें।
जल प्रबंधन
आमतौर पर ग्वार की खेती वर्षा आधारित शुष्क व अर्ध शुष्क क्षेत्रों में की जाती है l लेकिन यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है तो फसल को पानी की कमी होने पर सिंचाई अवश्य करनी चाहिये
कटाई व गहाई
जल्दी पकने वाली किस्में लगभग 90 दिन में पक जाती हैं जबकि अन्य किस्में 110 से 125 दिन में पक जाती हैं । सामान्यतः जब पौधे की पत्तियाँ सूखकर गिरने लगे तथा फलियाँ भी सूखकर भूरे रंग की होने लगे, तब फसल की कटाई कर देनी चाहिये।
ग्वार राजस्थान के पश्चिम प्रदेश की अतिमहत्वपूर्ण फसल है। ग्वार की बिजाई का उपयुक्त समय 01 से 15 जुलाई तक है।
खेत की तैयारी
ग्वार की फसल लगभग सभी तरह की भूमि में ली जा सकती है परन्तु क्षारीय तथा जिस भूमि पर पानी ठहरता हो इसके लिए उपयुक्त नहीं है। मई माह में खेत को एक – दो गहरी जुताई कर छोङ देना चाहिये ।
बीजोपचार
बीज को राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना चाहिए । इसके लिए 100 ग्राम गुड़ को 1 लीटर पानी में घोल लेवें। घोल ठण्डा होने पर इसमें 600 ग्राम राइजोबियम कल्चर अच्छी तरह से मिला लेवें। इस घोल में 10 किलोग्राम बीज को अच्छी तरह से उपचारित करें ताकि सभी बीजों पर कल्चर की परत चढ जाये। अब बीजों को निकालकर छाया में सुखाकर शीघ्र ही बुवाई कर देवें। बीजों के अच्छे जमाव व फसल को रोगमुक्त रखने के लिए ग्वार के बीजों को सबसे पहले 2.0 ग्राम बाविस्टिन या कैप्टान नामक फफूंदीनाशक दवा से प्रति किलो बीज की दर से अवश्य उपचारित करें। पौधों की जड़ों में गांठों का अधिक निर्माण हो व वायुमंडलीय नाइट्रोजन का भूमि में अधिक यौगिकीकरण हो, इसके लिए बीजों को राइजोबियम नामक जीवाणु उर्वरक से उपचारित करना बहुत जरूरी है। बीज उपचार बुवाई के ठीक पहले कर लेना चाहिए। एक हेक्टेयर क्षेत्र में बुवाई हेतु राइजोबियम जीवाणु के 200 ग्राम के दो पैकेट पर्याप्त होते हैं।
बीज दर
ग्वार की अकेली फसल हेतु 12 से 15 किलो बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई करें,कतार की दूरी 30 से 45 से.मी. रखें तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 से.मी. रखें।
ग्वार फसल में खाद एवं उर्वरक
ग्वार दलहनी फसल होने के कारण नाइट्रोजन की कुछ आपूर्ति वातावरण की नाइट्रोजन को जड़ों में उपस्थित गाँठों द्वारा एकत्र करके की जाती है लेकिन फसल की प्रारम्भिक अवस्था में पोषक तत्वों की पूर्ति के लिये 20 कि.ग्रा. नाइट्रोजन व 40 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता हैl सम्पूर्ण नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की मात्रा बुवाई के समय खेत में डाल देनी चाहिए l
इसके अतिरिक्त ग्वार के बीज को बुवाई से पहले राइजोवियम कल्चर की 600 ग्राम मात्रा को एक लीटर पानी व 250 ग्राम गुड़ के घोल में 15 कि.ग्रा.बीज को उपचारित कर छाया में सुखा कर बोना लाभदायक रहता है l खेत की तैयारी के समय 5 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद 2-3 वर्ष में एक बार अवश्य प्रयोग से पहले मिटटी की जाँच कर लेनी चाहिये।
रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग ग्वार की फसल में नहीं करने से हमारे उत्पाद (ग्वार गम ) की गुणवत्ता अच्छी होती है । चूँकि ग्वार की फसल मुख्य रूप से बीज के लिये उगाई जाती है जिससे ग्वार गम बनता है जो कि विदेशों में निर्यात किया जाता है। ग्वार गम का प्रमुख उपयोग खाद्य पदार्थों में होता है।
ग्वार फसल में सिंचाई प्रबंधन
सामान्यतः खरीफ ऋतु में बोयी फसल में सिंचाई की कोई आवश्यकता नहीं होती है। यदि बुवाई के पश्चात अच्छी वर्षा न हो जहाँ सिंचाई की सुविधा हो वहाँ पर कम से कम 3 सिंचाई देनी चाहिएl
ग्रीष्मकालीन फसल में आवश्यकतानुसार 6-7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए। सूखे की स्थिति में ग्वार की बुवाई के 25 व 45 दिन बाद 0.10प्रतिशत थायोयूरिया के घोल का छिड़काव करने से उपज में बढ़ोतरी होती है ।
खरपतवार नियंत्रण
ग्वार की फसल को खरपतवारों से पूर्णतया मुक्त रखना चाहिए। सामान्यतः फसल बुवाई के 10-12 दिन बाद कई तरह के खरपतवार निकल आते हैं जिनमें चंदलिया, सफेद फूली, बुई, कांटी, मंची, लोलरु, सोनेल मौथा, जंगली जूट, जंगली चरी (बरू) व दूब-घास प्रमुख हैं।
ग्वार की फसल में समय-समय पर निराई-गुड़ाई कर खरपतवारों को निकालते रहना चाहिए। इससे पौधें की जड़ों का विकास भी अच्छा होता है तथा जड़ों में वायु संचार भी बढ़ता है। दाने वाली फसल में बेसालिन 1.0 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में बुवाई से पूर्व मृदा की ऊपरी 8 से 10 सेंमी सतह में छिड़काव कर खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
खरपतवारों के नियंत्रण हेतू फसल की बुवाई के 2 दिन पश्चात तक पेंडीमेथालिन (स्टोम्प) खरपतवारनाशी की बाजार में उपलब्ध 3.30 लीटर मात्र को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर समान रूप से खेत में छिड़काव कर देना चाहिए ।
ग्वार फसल में पादप संरक्षण
दीमक
फसल के पौधों की जड़ों को खाकर नुकसान पहुंचाती हैंl बुवाई से पहले अंतिम जुताई के समय खेत में क्यूनलफोस 1.5 प्रतिशत या क्ल्रोपाइरीफॉस पाउडर 20 से 25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिलानी चाहिये l बोने के समय बीज को क्लोरोपाइरीफॉस कीटनाशक की 2 मि.ली.मात्रा से प्रति कि.ग्रा.बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिये l
कातरा
इस कीट की लट प्रारम्भिक अवस्था में फसल के पौधों को खाकर नुकसान पहुँचाती हैं। इसके नियंत्रण के लिए खेत के आसपास सफाई रहनी चाहिए तथा खेत में प्रकोप होने पर मिथाइल पेराथियोन या क्यूनालफोस 1.5 प्रतिशत चूर्ण की 20 से25 कि.ग्रा.मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकनी चाहिएl
मोयला
यह कीट पौधों के कोमल भागों का रस चूस कर फसल को हानि पहुँचाता हैl इसके नियंत्रण हेतु मोनोक्रोटोफॉस या इमिडाक्लोप्रिड कीटनाशी की आधा लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहि l
सफेद मक्खी एवं हरा तेला
इन कीटों के नियंत्रण के लिए ट्राइजोफॉस या मेलाथियोनं की एक लीटर मात्रा को पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिएl
बैक्टीरियल ब्लाइट
यह ग्वार की बहुत हानिकारक बीमारी हैl इस बीमारी के ऊपर गोल आकार के धब्बे बनते हैl इस बीमारी के नियंत्रण हेतु रोगरोधी किस्मों को उगाना चाहिएl बीज को 2ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन से प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिएl
छाछिया
इस रोग के कारण पौधों के ऊपर सफेद रंग के पाउडर का आवरण बन जाता है इस रोग के नियंत्रण हेतु 25 किग्रा गंधक चूर्ण या एक लीटर केराथेन को 500लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिएl
जड़ गलन
यह बीमारी भूमि में पैदा हुई फफूँद के कारण फैलती हैl इस बीमारी के कारण पौधे अचानक मर जाते हैंl इस बीमारी की रोकथाम के लिये बीज को 3 ग्राम थाइरम या मेकोंजेब की 2.50 ग्रामप्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिये l
कटाई एवं मड़ाई
सब्जी वाली फसल में फलियों को मुलायम अवस्था में ही हाथों से तोड़ लेना चाहिए। सब्जी वाली फसल में 55 से 70 दिनों बाद फलियां तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती हैं। नर्म, कच्ची व हरी फलियों की तुड़ाई पांच दिनों के अंतराल पर नियमित रूप से करते रहना चाहिए।
जहां तक हो सके फलियों की तुड़ाई सुबह जल्दी करनी चाहिए। चारे के लिए बोयी गयी फसल 60 से 80 दिनों में फूल आने के समय या फलियां आने की अवस्था पर कटाई हेतु तैयार हो जाती हैं। यदि फसल दानों के लिए बोयी गयी है तो पूर्ण रूप से पकने पर ही फसल की कटाई करें।
कटाई हंसिये / दरांती की मदद से करके उनको बंडलों में बांधकर सूखने के लिए धूप में छोड़ दें। इसके 7-10 दिन बाद मड़ाई कर दानों को अलग कर लेते हैं।
ग्वार की उपज या पैदावार
उन्नत सस्य प्रौद्योगिकियां से ग्वार की फसल से 250-300 क्विंटल हरा चारा, 12-18 क्विंटल दाना और 70 से 120 क्विंटल हरी फलियां प्रति हेक्टेयर प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि ग्वार फली की उपज मौसम, प्रजाति, मृदा के प्रकार और सिंचाई सुविधाओं पर निर्भर करती है।