चना भारत की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने को दालों का राजा कहा जाता है। भारत में चना को दो प्रजातियों यथा देशी (कत्थई से हल्का काला) तथा काबुली (सफेद दाना) की खेती की जाती है। देशी चने के दाने छोटे,कोणीय,गहरे भूरे रंग के खुरदुरे होते है.इसके पौधे छोटे अधिक शाखाओं वाले तथा फूल गुलाबी रंग के होते है । काबुली चने के दाने बड़े,सफेद क्रीम रंग के होते है । इसके पौधे लम्बे तथा फूल सफेद रंग के होते है। काबुली चने को डॉलर और छोला चना भी कहा जाता है। देशी चने की तुलना में काबुली चने की उपज कम आती है । पोषक मान की दृष्टि से काबुली चने 24.63 % अपरिष्कृत प्रोटीन, 6.49 % अपरिष्कृत रेशा, 8.43 % घुलनशील शर्करा, 7 % वसा, 40 % कार्बोहाइड्रेट के अलावा कैल्सियम, फॉस्फोरस,लोहा, मैग्नेशियम, जिंक,पोटाशियम तथा विटामिन बी-6, विटामिन-सी,विटामिन-ई प्रचुर मात्रा में पाए जाते है ।
छोला चना, काबुली चना, डॉलर चना के उपयोग व फ़ायदे –
देशी चने की अपेक्षा काबुली चना अधिक पौष्टिक व स्वास्थ्यवर्धक होता है । देशी चने को पीसकर बेसन तैयार किया जाता है,जिससे विविध व्यंजन बनाये जातेहैं। काबुली चने का इस्तेमाल सब्जी के साथ-साथ छोले, चाट के रूप में तथा उबालकर-भूनकर खाने में किया जाता है । चने की हरी पत्तियाँ साग बनाने, हरा तथा सूखा दाना सब्जी व दाल बनाने में प्रयुक्त होता है।
छोला चना की खेती : काबुली चना, डॉलर चना उत्पादन – Chhola chana ki kheti Doller Chana farming
दलहनी फसल होने के कारण यह जड़ों में वायुमण्डलीय नत्रजन स्थिर करती है,जिससे खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। स्वाद और पोषण में बेजोड़ तथा विविध उपयोग के कारण बाजार में काबुली चने की खाशी मांग रहने के कारण इससे किसानों को बेहतर दाम मिल जाते है । इस प्रकार से काबुली या डॉलर चने की खेती करने से किसानों को अच्छा मुनाफा होता है साथ ही खेत की उर्वरता में भी बढ़ोत्तरी होती है जिसके फलस्वरूप आगामी फसल की उपज में भी इजाफा होता है।
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छोला चना, डालर चना का उत्पादन –
दुनिया में चना उत्पादन में भारत सबसे बड़ा देश है और देश में चने के क्षेत्रफल और उत्पादन में मध्य प्रदेश का प्रथम स्थान है। भारत में वर्ष 2017-18 के दौरान चने की खेती 10.66 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की गई, जिससे 1063 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के औसत मान से 11.23 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ । चने के अंतर्गत कुल क्षेत्रफल के 85 % हिस्से में देशी चना तथा 15 % भाग में काबुली चने की खेती होती है । काबुली चने की खेती मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान,कर्नाटक,आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में की जाती है । देशी चने की अधिक उपज के कारण ज्यादातर किसान इसी चने की खेती अधिक करते है, परन्तु डॉलर चने की खेती अधिक फायदेमंद सिद्ध हो रही है। डॉलर चने की खेती से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए नवीन सस्य तकनीक अग्र प्रस्तुत है ।
उपयुक्त जलवायु –
काबुली चना शुष्क एवं ठण्डे जलवायु की फसल है जिसे शरद ऋतु में उगाया जाता है.चने की वृद्धि एवं विकास के लिए बुवाई से लेकर कटाई तक 24 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है. फलियों में दाना भरते समय बहुत कम अथवा 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक का तापमान होने से दानों का विकास अवरुद्ध हो जाता है. चने की फसल के लिए लम्बी अवधि की चमकीली धुप आवश्यक है.
भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी –
काबुली चने की खेती के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट से लेकर दोमट तथा मटियार मिट्टी सर्वोत्तम रहती है। मृदा का पी-एच मान 6-7.5 उपयुक्त रहता है। चने की फसल के लिए अधिक उपजाऊ भूमियाँ उपयुक्त नहीं होती,क्योंकि उनमें पौधों की वानस्पतिक बढ़वार अधिक होती है जिससे फूल एवं फलियाँ कम बनती हैं। चना की खेती के लिए मिट्टी का बारीक होना आवश्यक नहीं है, बल्कि ढेलेदार खेतों में भी भरपूर पैदावार ली जा सकती है । जड़ों की समुचित वृद्धि के लिए खेत की गहरी जुताई करना लाभदायक होता है। इसके लिए खरीफ फसल काटने के बाद एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. इसके बाद दो जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से करने के उपरान्त पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए । दीमक प्रभावित खेतों में क्लोरपायरीफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20 किलो प्रति हेक्टर के हिसाब से जुताई के दौरान मिट्टी में मिला देना चाहिए। इससे कटुआ कीट पर भी नियंत्रण होता है।
उन्नत किस्मों का चयन –
देशी चने का रंग पीले से गहरा कत्थई या काले तथा दाने का आकार छोटा होता है। काबुली चने का रंग प्रायः सफेद होता है। इसका पौधा देशी चने से लम्बा होता है। दाना बड़ा तथा उपज देशी चने की अपेक्षा कम होती है।काबुली चने की काफी उन्नत किस्में बाजार में उपलब्ध हैं. जिन्हें अलग अलग जगहों पर अधिक पैदावार लेने के लिए तैयार किया गया है ।
श्वेता
काबुली चने की इस किस्म को जल्द पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है. जिसे आई सी सी व्ही 2 के नाम से भी जानते हैं. इसके दाने मध्य मोटाई वाले आकर्षक दिखाई देते हैं. जो बीज रोपाई के लगभग 85 से 90 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 15 से 20 क्विंटल के बीच पाया जाता है. काबुली चने की इस किस्म को सिंचित और असिंचित दोनों जगहों पर आसानी से उगाया जा सकता है. इसके दाने छोले के रूप में अधिक स्वादिष्ट होते हैं ।
मेक्सीकन बोल्ड
चने की ये एक विदेशी किस्म है, जिसके पौधे सामान्य ऊंचाई के पाए जाते हैं. इस किस्म के पौधों को असिंचित भूमि में अधिक पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है. इसके पौधे रोपाई के लगभग 90 से 100 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इसके दाने आकार में मोटे दिखाई देते हैं. जिनका रंग बोल्ड सफेद और चमकदार पाया जाता है. जो काफी आकर्षक दिखाई देते हैं. इसके दानो का बाजार भाव काफी अच्छा मिलता है. इसके पौधों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 25 से 35 क्विंटल के बीच पाया जाता है. लेकिन फसल की देखभाल अच्छे से की जाए तो पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ाया जा सकता है. इसके पौधों पर कीट रोग का प्रभाव काफी कम देखने को मिलता है ।
हरियाणा काबुली न. 1
चने की इस किस्म को मध्यम समय में अधिक पैदावार देने के लिए चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 110 से 130 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 25 से 30 क्विंटल के बीच पाया जाता है. काबुली चने की इस किस्म को बारानी भूमि को छोड़कर लगभग सभी तरह की भूमि में उगा सकते हैं. इसके पौधे अधिक शखाओं युक्त फैले हुए होते हैं. इसके दानो का आकार सामान्य और रंग गुलाबी सफ़ेद होता है । इसके पौधों में उकठा रोग काफी कम देखने को मिलता है ।
चमत्कार-
काबुली चने की इस किस्म के पौधे सामान्य ऊंचाई और कम फैलने वाले होते हैं. इसके पौधों पर पत्तियां बड़े आकार वाली पाई जाती हैं. इसके पौधे रोपाई के लगभग 130 से 140 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इसके पौधों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 15 से 18 क्विंटल के बीच पाया जाता है. जिसके दानो का आकार बड़ा दिखाई देता है. इसके पौधों पर उकठा रोग देखने को नही मिलता ।
काक 2
चना की ये एक मध्यम समय में पककर तैयार होने वाली किस्म हैं. इसके पौधे सामान्य ऊंचाई के पाए जाते हैं. जिन पर उकठा रोग देखने को नही मिलता. इसके पौधे रोपाई के लगभग 110 से 120 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 15 से 20 क्विंटल के बीच पाया जाता है. इसके दाने सामान्य मोटाई और हल्के गुलाबी रंग के पाए जाते हैं ।
एच. के. न. 2
काबुली चने की इस किस्म को चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 120 दिन के आसपास पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 से 25 क्विंटल के बीच पाया जाता है. जिसे हरियाणा के आसपास के राज्यों में उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे कम ऊंचाई और सीधे बढ़ने वाले होते हैं. जिसकी पत्तियों का रंग हल्का हरा दिखाई देता है ।
जे.जी.के 1
काबुली चने की की इस किस्म को मध्य प्रदेश में अधिक उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 110 से 120 दिन के बीच पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 15 से 18 क्विंटल के बीच पाया जाता है. इसके दानो का रंग हल्का सफ़ेद या क्रमी सफेद पाया जाता है. इस किस्म के पौधे सामान्य लम्बाई के और कम फैलने वाले होते हैं. इसके पौधों पर पत्तियां बड़े आकार वाली और फूल सफ़ेद रंग के पाए जाते हैं ।
जे.जी.के 2
काबुली चने की इस किस्म के पौधे कम समय में अधिक पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 100 से 110 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इसका इस्तेमाल छोले के रूप में भी किया जाता है. इस किस्म के पौधे कम फैलाव वाले पाए जाते हैं. जिसकी पतियों का आकार बड़ा और फूलों का रंग सफेद होता है. इसके दाने सामान्य आकार और हल्के सफेद रंग के पाए जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 क्विंटल तक पाया जाता है ।
एस आर 10
चने की इस किस्म को राजस्थान में अधिक उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे सिंचित और असिंचित दोनों तरह की भूमि में उगाये जा सकते हैं. इस किस्म के पौधे असिंचित जगहों पर रोपाई के के दौरान लगभग 140 दिन के आसपास पककर तैयार होते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 से 25 क्विंटल के बीच पाया जाता है । इस किस्म के पौधों पर कई तरह के रोग देखने को नही मिलते ।
पूसा 1003
डॉलर चने की इस किस्म को उत्तर प्रदेश में अधिक उगाया जाता है. जिसके पौधे रोपाई के लगभग 130 से 140 दिन बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 से 22 क्विंटल तक पाया जाता है. इसके दाने मध्यम बड़े आकार के पाए जाते है. इसके पौधे उकठा रोग के प्रति सहिष्णु होते हैं ।
शुभ्रा –
चने की इस किस्म के पौधे सामान्य ऊंचाई के पाए जाते हैं । जिनको सिंचित और असिंचित दोनों तरह की भूमि में आसानी से उगाया जा सकता है. इस किस्म के पौधे सूखे के प्रति सहनशील पाए जाते हैं । इसके पौधे रोपाई के लगभग 120 से 125 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 क्विंटल के आसपास पाया जाता है । इस किस्म के पौधों पर उकठा रोग का प्रभाव देखने को नही मिलता ।
इनके अलावा और भी काफी किस्में हैं जिन्हें अलग अलग जगहों पर वातावरण के हिसाब से अधिक उत्पादन लेने के लिए उगाया जाता है. जिनमें एच.के. 94-134, सी एस जे के 54, उज्जवल,अंजलि, गौरी, पंत काबुली 1, आसार, राज विजय काबुली 101, आनंद और जे.जी.के 3 जैसी बहुत साड़ी किस्में मौजूद हैं ।
काबुली चने की उपरोक्त किस्मों के अलावा 110-115 दिन में तैयार होने वाली फुले जी-0517 (100 दानों का भार 60 ग्राम), 130-135 दिन में तैयार होने वाली एल-550 (उपज 20-25 क्विंटल/हे.) तथा देर से बुवाई हेतु 100-105 दिन में तैयार होने वाली आर.वी.जी.-202 (उपज 18-20 क्विंटल/हे.) उपयुक्त रहती है।
छोला चना की बुवाई का समय – बोआई करें सही समय पर
चने की बुआई समय पर करने से फसल की वृद्धि अच्छी होती है साथ ही कीट एवं रोगों से फसल की सुरक्षा होती है, फलस्वरूप उपज अधिक मिलती है । असिंचित अवस्था में काबुली चने की बुवाई का उचित समय 20 से 30 अक्टूबर है।सिंचित अवस्था में काबुली चने की बुवाई नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में संपन्न कर लेना चाहिए । बुवाई में अधिक विलम्ब करने पर उत्पादन में कमीं हो जाती है, साथ ही काबुली चना में फली भेदक कीट का प्रकोप होने की सम्भावना रहती है ।
उपयुक्त बीज दर – Doller Chana Seed for sowing purpose
काबुली चने की अधिक पैदावार के लिए बीज की उचित मात्रा का होना अति आवश्यक है. समय पर बोआई तथा छोटे दानों की प्रजातियों के लिए 79-75 कि.ग्रा. तथा बड़े दानों की प्रजातियों के लिए 80-90 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज का प्रयोग करना चाहिए। बिलम्ब से बुवाई की अवस्था में सामान्य बीज दर से 20-25 प्रतिशत अधिक बीज प्रयोग करना चाहिए ।
निरोगी फसल के लिए बीजोपचार –
अच्छे अंकुरण एवं फसल की रोगों से सुरक्षा के लिए बीज शोधन अति आवश्यक है। उकठा एवं जड़ सड़न रोग से फसल की सुरक्षा हेतु बीज को 1.5 ग्राम थाइरम व 0.5 ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण अथवा ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। कीट नियंत्रण हेतु थायोमेथोक्साम 70 डब्ल्यू पी 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। इसके बाद शोधित बीज को जीवाणु संवर्धन अर्थात राइजोबियम एवं पी.एस.बी प्रत्येक की 5 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। इसके लिए एक पैकेट (250 ग्राम) राइजोबियम कल्चर प्रति 10 कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना उचित रहता है। आधा लीटर पानी में 50 ग्राम गुड़ या शक्कर घोलकर उबाला जाता है। ठंडा होने पर इस घोल में एक पैकेट राइजोबियम कल्चर मिलाकर बीज में अच्छी तरह मिलाकर छाया में सुखाकर शाम को या सुबह के समय बोनी की जाती है। पी.एस.बी. (फॉस्फ़ोरस घोलक जीवाणु) कल्चर से बीज का उपचार राइजोबियम कल्चर की भांति करें । ध्यान रहे की बीज का उचार फफूंदनाशक-कीटनाशक- राइजोबियम कल्चर (FIR) के क्रम में ही करें।
अंतरण – पंक्तियों में करें बोआई –
आमतौर पर चने की बोआई छिटकवाँ विधि से की जाती है जो कि लाभप्रद नहीं है। फसल की बुआई हमेशा पँक्तियों में सीड ड्रिल द्वारा करनी चाहिए ताकि पंक्ति एवं बीज की उचित दूरी बनी रहे एवं फसल का उचित प्रबंधन किया जा सके । बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमीं का होना आवश्यक होता है। काबुली चना की अच्छी उपज के लिए खेत में पौधों की समुचित संख्या होना आवश्यक है। सामान्यतौर पर पौधों की संख्या 25 से 30 प्रति वर्गमीटर रखी जाती है. असिंचित अथवा पछेती बुवाई की स्थिति में पंक्तियों के बीच की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में बोआई कतारों में 30-45 से.मी. की दूरी पर करना चाहिए। सामान्य रूप से असिंचित चने की बोआई 5 – 7 से.मी. की गहराई पर उपयुक्त मानी जाती है। खेत मे पर्याप्त नमीं होने पर चने को 4 से 5 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिए।
डालर चने में सिंचाई – एक-दो सिंचाई से बढ़ें उपज
अधिकांश इलाकों में चने की खेती असिंचित-बारानी अवस्था में की जाती है। खेत में नमीं होने पर बोआई के चार सप्ताह तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए। चने में जल उपलब्धता के आधार पर दो सिंचाईयाँ, पहली फूल आने के पूर्व अर्थात बोने के 45-60 दिनों बाद शाखाएं बनते समय तथा दूसरी सिंचाई आवश्यकतानुसार फलियों में दाना बनते समय की जानी चाहिए । यदि एक सिंचाई हेतु पानी है तो फूल आने के पूर्व (बोने के 45 दिन बाद) सिंचाई करें। चने में फूल आते समय सिंचाई करना वर्जित है,अन्यथा वानस्पतिक वृद्धि अधिक तथा फलियाँ कम लगती है । खेत में जल निकासी का उचित प्रबन्ध होना आवश्यक है।
खाद एवं उर्वरक – फसल को दें सही खुराक-खाद एवं उर्वरक
दलहनी फसल होने के कारण काबुली चने को नत्रजनीय उर्वरक की कम आवश्यकता पड़ती है। मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही पोषक तत्वों की उचित मात्रा का निर्धारण करना चाहिए । सामान्य उर्वरा भूमियों (सिंचित) में बोआई के समय नत्रजन 20 कि.ग्रा. स्फुर 60 कि.ग्रा.,पोटाश 20 कि.ग्रा. तथा गंधक 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से कूड़ में देना चाहिए । असिंचत अवस्था में उक्त उर्वरकों की आधी मात्रा का प्रयोग बोआई के समय करना चाहिए। फॉस्फोरस को सिंगल सुपर फॉस्फेट के रूप में देने से स्फुर व गंधक की पूर्ति हो जाती है। असिंचित या देर से बोई गई अथवा उतेरा की फसल में 2% यूरिया या डायअमोनियम फॉस्फेट (डी.ए.पी.) उर्वरक के दो छिड़काव पहला फूल आने की अवस्था तथा इसके 10 दिन बाद पुनः छिड़काव करने से काबुली चने की पैदावार में वृद्धि होती है।
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खरपतवार नियंत्रण –
खरपतवारों के प्रकोप से काबुली चने की पैदावार में 40-50 प्रतिशत तक कमीं हो सकती है।काबुली चने की बोआई के 30 – 60 दिनों तक खरपतवार फसल को अधिक हानि पहुँचाते हैं। खेत में खरपतवार नष्ट करने के लिए बुवाई के 30-35 दिन बाद पहली निराई-गुड़ाई करना चाहिए । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालीन 30 ईसी (स्टाम्प) 750 मिली-1000 मि.ली. सक्रिय तत्व (दवा की मात्रा 2.5-3 लीटर) प्रति हेक्टेयर को 700– 800 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के तुरंत बाद फ्लेट फेन नोजल युक्त पम्प से छिड़काव करना चाहिए । छिडकाव के समय खेत में नमीं होने पर खरपतवारनाशी रसायन अधिक प्रभावशील होता है । सँकरी पत्ती वाले खरपतवार जैसे सांवा, दूबघास, मौथा आदि के नियंत्रण हेतु क्युजोलफ़ोप 40-50 ग्राम सक्रिय तत्व अर्थात 800-1000 मि.ली. दवा प्रति हेक्टेयर का छिड़काव बौनी के 15-20 दिन बाद करना चाहिए।
डालर की खेती में लें अंतरवर्ती फसल –
काबुली चने के साथ हर 10 कतार के बाद धनियां,सरसों या अलसी की 1-2 कतारें लगाने से चने में इल्ली कीट का प्रकोप कम होने के साथ-साथ अंतरवर्ती फसल से अतिरिक्त लाभ प्राप्त होता है। इसके आलावा चना फसल के चरों ओर पीला गेंदा फूल लगाने से भी चने की इल्ली का प्रकोप कम किया जा सकता है।
शीर्ष शाखायें तोडना (खुटाई) –
काबुली चने की फसल में प्रायः फूल लगने के पहले पौधों के ऊपरी नर्म शिरे तोड़ दिये जाते है जिसे शीर्ष शाखायें तोड़ना कहते है । चने में शीर्ष शाखायें तोड़ने से पौधों की वानस्पतिक वृद्धि रूकती है। जब पौधे 20-25 से.मी. की ऊँचाई के हो जाएँ अर्थात पौधों में फूल आने से पहले की अवस्था हो, तब शाखाओं के ऊपरी भाग तोड़ देना चाहिए। ऐसा करने से पौधों में अधिक शाखायें निकलती हैं। फलस्वरूप प्रति पौधा फूल व फलियों की संख्या अधिक होने से काबुली चने की उपज में वृद्धि होती है। चने की शाखाओं/पत्तियों को भाजी के रूप मे उपयोग किया जा सकता अथवा बाजार में बेचकर अतरिक्त लाभ कमाया जा सकता है। शीर्ष शाखायें तोड़ने की प्रक्रिया असिंचित क्षेत्रों में नहीं की जाती है, क्योंकि अत्यधिक शाखाओं और पत्तियों के होने से वाष्पीकरण बढ़ जाता है, जिससे भूमि में नमीं की कमीं हो जाती है तथा फसल को सूखे का सामना करना पड़ता है जिसके फलस्वरूप उत्पादन में कमीं आ जाती है.
कटाई-गहाई –
चने की फसल किस्म के अनुसार 120 – 150 दिन में पकती है। इसकी कटाई फरवरी से अप्रैल तक होती है । पकने के पहले हरी दशा में पौधे उखाड़कर हरे चने (बूट) के रूप में ही बाजार में बेच कर अच्छा लाभ कमाया जा सकता है । पत्तियों के पीली पड़कर झड़ने तथा पौधों के सूख जाने पर ही फसल पकी समझनी चाहिए । देश के कुछ भागो में पौधों को उखाड़कर साफ़ स्थान पर एकत्रित कर लिया जाता है । फसल अधिक सूख जाने पर फल्लियाँ झड़ने लगती हैं। इसलिए फसल की कटाई उचित समय पर करें एवं खलिहान में अच्छी तरह सुखाकर गहाई और ओसाई कर ली जाती है ।
उपज एवं आमदनी –
काबुली चने की किस्मों और सस्य प्रबंधन के आधार पर प्रति हेक्टेयर 15-20 क्विंटल दाना उपज प्राप्त होती है । दानों के भार का लगभग आधा या तीन-चौथाई भाग भूसा प्राप्त होता है। काबुली चने की पैदावार देशी चने की अपेक्षा थोड़ी कम होती है। बाजार में काबुली चना 6000 से 7000 रूपये प्रति क्विंटल के हिसाब से आसानी से बिक जाता है। इस हिसाब से 20 क्विंटल उपज प्राप्त होने पर 1 लाख 20 हजार रूपये प्राप्त होते है जिसमें से 20 हजार रूपये लागत खर्च घटाने पर प्रति हेक्टेयर एक लाख रूपये की शुद्ध आमदनी प्राप्त हो सकती है। इसके अलावा चने की भाजी और भूषा बेचकर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा सकता है । दानों को अच्छी तरह सुखाकर जब उनमें 10- 12 प्रतिशत नमीं रह जाय, तब उचित स्थान पर भंडारित करें अथवा अच्छा भाव मिलने पर बाजार में बेच देना चाहिए।