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भारतीय इतिहास में दर्शन और भोजन दोनों दृष्टि से शुभ और श्रेष्ठ मानी जाने वाली मछली जलीय पर्यावरण पर आश्रित है तथा जलीय पर्यावरण को संतुलित रखने में मछली की काफी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह कथन अपने में पर्याप्त बल रखता है जिस पानी में मछली नहीं हो तो निश्चित ही उस पानी की जल जैविक स्थिति सामान्य नहीं है।
वैज्ञानिकों द्वारा मछली को बायोइंडीकेटर माना गया है। विभिन्न जलस्रोतों में चाहे तीव्र अथवा मन्द गति से प्रवाहित होने वाली नदियां हो, चाहे प्राकृतिक झीलें, तालाब अथवा मानव-निर्मित बड़े या मध्यम आकार के जलाशय, सभी के पर्यावरण का यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो निष्कर्ष निकलता है कि पानी और मछली दोनों एक दूसरे से काफी जुड़े हुए हैं।पर्यावरण को संतुलित रखने में मछली की विशेष उपयोगिता है।
शरीर के पोषण तथा निर्माण में संतुलित आहार की आवश्यकता होती है। संतुलित आहार की पूर्ति विभिन्न खाद्य पदार्थों को उचित मात्रा में मिलाकर की जा सकती है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, खनिज लवण आदि की आवश्यकता होती है जो विभिन्न भोज्य पदार्थों में भिन्न-भिन्न अनुपातों में पाये जाते हैं।
स्वस्थ शरीर के निर्माण हेतु प्रोटीन की अधिक मात्रा होनी चाहिए क्योंकि यह मांसपेशियों, तंतुओं आदि की संरचना करती है। विटामिन, खनिज, लवण आदि शरीर की मुख्य क्रियाओं को संतुलित करते हैं। मछली, मांस, अण्डे, दूध, दालों आदि का उपयोग संतुलित आहार में प्रमुख रूप से किया जा सकता है।
मछली में पोषक तत्त्वों की मात्रा –
मछली एक उच्च कोटि का खाद्य पदार्थ है। मछलियों में लगभग 70 से 80 प्रतिशत पानी, 13 से 22 प्रतिशत प्रोटीन, 1 से 3.5 प्रतिशत खनिज पदार्थ एवं 0.5 से 20 प्रतिशत चर्बी पायी जाती है। कैल्शियम, पोटेशियम, फास्फोरस, लोहा, सल्फर, मैग्नीशियम, तांबा, जस्ता, मैग्नीज, आयोडीन आदि खनिज पदार्थ मछलियों में उपलब्ध होते हैं जिनके फलस्वरूप मछली का आहार काफी पौष्टिक माना गया है।
इनके अतिरिक्त राइबोफ्लोविन, नियासिन, पेन्टोथेनिक एसिड, बायोटीन, थाइमिन, बिटामिन बी 12, बी 6 आदि भी पाये जाते हैं जोकि स्वास्थ्य के लिए काफी लाभकारी होते हैं। विश्व के सभी देशों में मछली के विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर उपयोग में लाये जाते हैं। मछली के मांस की उपयोगिता सर्वत्र देखी जा सकती है। मीठे पानी की मछली में वसा बहुत कम पायी जाती है व इसमें शीघ्र पचने वाली प्रोटीन होती है।
सम्पूर्ण विश्व में लगभग 20,000 प्रजातियां व भारत वर्ष में 2200 प्रजातियां पाये जाने की जानकारी हैं। गंगा नदी प्रणाली जो कि हमारे देश की सबसे बड़ी नदी प्रणाली है । में लगभग 375 मत्स्य प्रजातियां उपलब्ध हैं। वैज्ञानिकों द्वारा उत्तर प्रदेश व बिहार में 111 मत्स्य प्रजातियों की उपलब्धता बतायी गयी है।
इसके उत्पादन में वृद्धि किये जाने हेतु उत्तर प्रदेश मत्स्य विभाग निरन्तर प्रयत्नशील है। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में विभिन्न प्रकार के तालाब, पोखरें और जल प्रणालियां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं । जिनमें वैज्ञानिक रूप से मत्स्य पालन अपना कर मत्स्य उत्पादन में वृद्धि करके लोगों को पोषक और संतुलित आहार उपलब्ध कराया जा सकता है।
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मत्स्य पालन हेतु उपयुक्त तालाब का चयन/निर्माण :
जिस प्रकार कृषि के लिए भूमि आवश्यक है उसी प्रकार मत्स्य पालन के लिए तालाब की आवश्यकता होती है। ग्रामीण अंचलों में विभिन्न आकार प्रकार के तालाब व पोखरें पर्याप्त संख्या में उपलब्ध होते हैं । जो कि निजी, संस्थागत अथवा गांव सभाओं की सम्पत्ति होते हैं। इस प्रकार के जल संसाधन या तो निष्प्रयोज्य पड़े रहते हैं । अथवा उनका उपयोग मिट्टी निकालने, सिंघाड़े की खेती करने, मवेशियों को पानी पिलाने, समीपवर्ती कृषि योग्य भूमि को सींचने आदि के लिए किया जाता है।
मत्स्य पालन हेतु 0.2 हेक्टेयर से 5.0 हेक्टेयर तक के ऐसे तालाबों का चयन किया जाना चाहिए । जिनमें वर्ष भर 8-9 माह पानी भरा रहे। तालाबों को सदाबहार रखने के लिए जल की आपूर्ति का साधन होना चाहिए। तालाब में वर्ष भर एक से दो मीटर पानी अवश्य बना रहे। तालाब ऐसे क्षेत्रों में चुने जायें जो बाढ़ से प्रभावित न होते हों ।
तथा तालाब तक आसानी से पहुंचा जा सके। बन्धों का कटा फटा व ऊँचा होना, तल का असमान होना, पानी आने-जाने के रास्तों का न होना, दूसरे क्षेत्रों से अधिक पानी आने-जाने की सम्भावनाओं का बना रहना आदि । कमियां स्वाभाविक रूप से तालाब में पायी जाती हैं । जिन्हें सुधार कर दूर किया जा सकता है। तालाब को उचित आकार-प्रकार देने के लिए यदि कही पर टीले आदि हों तो उनकी मिट्टी निकाल का बन्धों पर डाल देनी चाहिए।
कम गहराई वाले स्थान से मिट्टी निकालकर गहराई एक समान की जा सकती है। तालाब के बन्धें बाढ़ स्तर से ऊंचे रखने चाहिए। पानी के आने व निकास के रास्ते में जाली की व्यवस्था आवश्यक है । ताकि पाली जाने वाली मछलियां बाहर न जा सकें और अवांछनीय मछलियां तालाब में न आ सके। तालाब का सुधार कार्य माह अप्रैल व मई तक अवश्य करा लेना चाहिए जिससे मत्स्य पालन करने हेतु समय मिल सके।
नये तालाब के निर्माण हेतु उपयुक्त स्थल का चयन विशेष रूप से आवश्यक है। तालाब निर्माण के लिए मिट्टी की जल धारण क्षमता व उर्वरकता को चयन का आधार माना जाना चाहिए। ऊसर व बंजर भूमि पर तालाब नहीं बनाना चाहिए। जिस मिट्टी में अम्लीयता व क्षारीयता अधिक हो उस पर भी तालाब निर्मित कराया जाना उचित नहीं होता है। इसके अतिरिक्त बलुई मिट्टी वाली भूमि में भी तालाब का निर्माण उचित नहीं होता है क्योंकि बलुई मिट्टी वाले तालाबों में पानी नहीं रूक पाता है। चिकनी मिट्टी वाली भूमि में तालाब का निर्माण सर्वथा उपयुक्त होता है।
इस मिट्टी में जलधारण क्षमता अधिक होती है। मिट्टी की पी-एच 6.5-8.0, आर्गेनिक कार्बन 1 प्रतिशत तथा मिट्टी में रेत 40 प्रतिशत, सिल्ट 30 प्रतिशत व क्ले 30 प्रतिशत होना चाहिए। तालाब निर्माण के पूर्व मृदा परीक्षण मत्स्य विभाग की प्रयोगशालाओं अथवा अन्य प्रयोगशालाओं से अवश्य करा लेना चाहिए। तालाब के बंधे में दोनों ओर के ढलानों में आधार व ऊंचाई का अनुपात साधारणतया 2:1 या 1.5:1 होना उपयुक्त है।
बंधे की ऊंचाई आरम्भ से ही वांछित ऊंचाई से अधिक रखनी चाहिए ताकि मिट्टी पीटने, अपने भार तथा वर्षा के कारण कुछ वर्षों तक बैठती रहे। बंध का कटना वनस्पतियों व घासों को लगाकर रोका जा सकता है। इसके लिए केले, पपीते आदि के पेड़ बंध के बाहरी ढलान पर लगाये जा सकते हैं। नये तालाब का निर्माण एक महत्वपूर्ण कार्य है तथा इस सम्बन्ध में मत्स्य विभाग के अधिकारियों का परामर्श लिया जाना चाहिए।
मिट्टी पानी की जांच :
मछली की अधिक पैदावार के लिए तालाब की मिट्टी व पानी का उपयुक्त होना परम आवश्यक है। मण्डल स्तर पर मत्स्य विभाग की प्रयोगशालाओं द्वारा मत्स्य पालकों के तालाबों की मिट्टी पानी की नि:शुल्क जांच की जाती है तथा वैज्ञानिक विधि से मत्स्य पालन करने के लिए तकनीकी सलाह दी जाती है। वर्तमान में मत्स्य विभाग की 12 प्रयोगशालायें कार्यरत हैं। केन्द्रीय प्रयोगशाला मत्स्य निदेशालय, 7 फैजाबाद रोड, लखनऊ में स्थित है। शेष 11 प्रयोगशालाये फैजाबाद, गोरखपुर, वाराणसी, आजमगढ़, मिर्जापुर, इलाहाबाद, झांसी, आगरा, बरेली, मेरठ मण्डलों में उप निदेशक मत्स्य के अन्तर्गत तथा जौनपुर जनपद में गूजरताल मत्स्य प्रक्षेत्र पर कार्यरत हैं।
तालाब प्रबन्ध व्यवस्था :-
मत्स्य पालन प्रारम्भ करने से पूर्व यह अत्यधिक आवश्यक है कि मछली का बीज डालने के लिए तालाब पूर्ण रूप से उपयुक्त हो।
(अ) अनावश्यक जलीय पौधों का उन्मूलन :
(ब) अवांछनीय मछलियों की सफाई :
(स) जलीय उत्पादकता हेतु चूने का प्रयोग :
(द) गोबर की खाद का प्रयोग :
(ध) रासायनिक खादों का प्रयोग :
मत्स्य पालन हेतु मत्स्य बीज की उपलब्धता –
मत्स्य पालन हेतु मत्स्य बीज संचय व अंगुलिकाओं की देखभाल-
मत्स्य पालन हेतु मृदा एवं जल का चयन –
मछली की अधिक पैदावार के लिए तालाब की मिट्टी व पानी का उपयुक्त होना परम आवश्यक है। ऐसी मिट्टी जिसमें सैण्ड 40 प्रतिशत तक, सिल्ट 30 प्रतिशत तथा क्ले 30 प्रतिशत हो एवं पी-एच 6.5 से 7.5 हो, मत्स्य पालन हेतु तालाब निर्माण के लिए उपयुक्त होती है। मिट्टी में सैण्ड का प्रतिशत अधिक होने पर तालाब में पानी रूकने की समस्या होती है।
अधिक क्षारीय मृदा भी मत्स्य पालन हेतु उपयुक्त नहीं होती है। तालाब की मिट्टी में 50 मि०ग्रा० नाइट्रोजन तथा 6 मि०ग्रा० फास्फोरस प्रति 100 ग्राम मिट्टी एवं एक प्रतिशत आर्गेनिक कार्बन होना चाहिए। यदि उपलब्ध नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं आर्गेनिक कार्बन सामान्य से कम है तो निर्धारित मात्राओं में जैविक व रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग करते हुए तालाब को मत्स्य पालन हेतु उपयुक्त बनाया जा सकता है।
- तालाब के जल का रंग हल्का भूरा होना उपयुक्त होता है ।
- इस प्रकार के जल में मछली का प्राकृतिक भोजन प्लांक्टान उपलब्ध होता है।
- पानी हल्का क्षारीय होना उपयुक्त होता है।
- पानी की पी-एच 7.5 से 8.5 घुलित आक्सीजन 5 मि०ग्रा० प्रति लीटर होना चाहिए।
- स्वतंत्र कार्बन डाइआक्साइड 0 से 0.5 मि०ग्रा० प्रति लीटर होनी चाहिए ।
- सम्पूर्ण क्षरीयता 150-250 मि०ग्रा० प्रति लीटर होनी चाहिए ।
- क्लोराइड्स 30-50 मि०ग्रा० प्रति लीटर तथा कुल कठोरता 100-180 मि०ग्रा० प्रति लीटर तक होनी चाहिए।
मत्स्य पालकों के तालाबों की मिट्टी-पानी का नि:शुल्क परीक्षण मत्स्य विभाग की प्रयोगशालाओं द्वारा किया जाता है तथा वैज्ञानिक विधि से मत्स्य पाल करने हेतु तकनीकी सलाह दी जाती है।वर्तमान में मत्स्य विभाग की 12 प्रयोगशालायें कार्यरत हैं। केन्द्रीय प्रयोगशाला मत्स्य निदेशालय 7- फैजाबाद रोड, लखनऊ में स्थित है।
शेष 11 प्रयोगशालायें फैजाबाद, गोरखपुर, वाराणसी, आजमगढ़, मिर्जापुर, इलाहाबाद, झाँसी, आगरा, बरेली, मेरठ मण्डलों में उप निदेशक मत्स्य के अन्तर्गत तथा जौनपुर जनपद में गूजरताल मत्स्य प्रक्षेत्र पर कार्यशील है।
पूरक आहार
मत्स्य रोग, लक्षण एवं उनका निदान-
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सैपरोलगनियोसिस –
लक्षण :- -
शरीर पर रूई के गोल की भांति सफेदी लिए भूरे रंग के गुच्छे उग जाते हैं।
उपचार : 3 प्रतिशत साधारण नमक घोल या कॉपर सल्फेट के 1: 2000 सान्द्रता वाले घोल में 1:1000 पोटेशियम के घोल में 1-5 मिनट तक डुबाना छोटे तालाबों को एक ग्राम मैलाकाइट ग्रीन को 5-10 मी० पानी की दर प्रभावकारी है।
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बैंकियोमाइकोसिस-
लक्षण :- गलफड़ों का सड़ना, दम घुटने के कारण रोगग्रस्त मछली ऊपरी सतह पर हवा पीने का प्रयत्न करती है। बार-बार मुंह खोलती और बंद करती है।
उपचार :- प्रदूषण की रोकथाम,मीठे पानी से तालाब में पानी के स्तर को बढ़ाकर या 50-100 कि०ग्रा०/हे० चूने का प्रयोग या 3-5 प्रतिशत नमक के घोल में स्नान या 0.5 मीटर गहराई वाले तालाबों में 8 कि०ग्रा०/हे० की दर से कॉपर सल्फेट का प्रयोग करना। - फिश तथा टेलरोग –
लक्षण :- आरम्भिक अवस्था में पंखों के किनारों पर सफेदी आना, बाद में पंखों तथा पूंछ का सड़ना।
उपचार :- पानी की स्वच्छता फोलिक एसिड को भोजन के साथ मिलाकर इमेक्विल दवा 10 मि०ली० प्रति 100 लीटर पानी में मिलाकर रोगग्रस्त मछली को 24 घंटे के लिए घोल में (2-3 बार)
एक्रिप्लेविन 1 प्रतिशत को एक हजार ली० पानी में 100 मि०ली० की दर से मिलाकर मछली को घोल में 30 मिनट तक रखना चाहिए।
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अल्सर (घाव)
लक्षण :- सिर, शरीर तथा पूंछ पर घावों का पाया जाना।
उपचार :- 5 मि०ग्रा०/ली० की दर से तालाब में पोटाश का प्रयोग, चूना 600 कि०ग्रा०/हे०मी० (3 बार सात-सात दिनों के अन्तराल में), सीफेक्स 1 लीटर पानी में घोल बनाकर तालाब में डाले, -
ड्राप्सी (जलोदर)
लक्षण :- आन्तरिक अंगो तथा उदर में पानी का जमाव
उपचार :- मछलियों को स्वच्छ जल व भोजन की उचित व्यवस्था, चूना 100 कि०ग्रा०/हे० की दर से 15 दिन के उपरान्त (2-3 बार) -
प्रोटोजोन रोग “कोस्टिएसिस”
लक्षण :- शरीर एवं गलफड़ों पर छोटे-छोटे धब्बेदार विकार
उपचार :- 50 पी०पी०एम० फोर्मीलिन के घोल में 10 मिनट या 1:500 ग्लेशियल एसिटिक एसिड के घोल में 10 मिनट -
कतला का नेत्र रोग-
लक्षण :- नेत्रों में कॉरनिया का लाल होना प्रथम लक्षण, अन्त में आंखों का गिर जाना, गलफड़ों का फीका रंग इत्यादि
उपचार :- पोटाश 2-3 पी०पी०एम०, टेरामाइसिन को भोजन 70-80 मि०ग्रा० प्रतिकिलो मछली के भार के (10 दिनों तक), स्टेप्टोमाईसिन 25 मि०ग्रा० प्रति कि०ग्रा० वजन के अनुसार इन्जेक्शन का प्रयोग । -
इकथियोपथिरिऑसिस (खुजली का सफेददाग)-
लक्षण :- अधिक श्लेष्मा का स्त्राव, शरीर पर छोटे-छोटे अनेक सफेद दाने दिखाई देना
उपचार :- 7-10 दिनों तक हर दिन, 200 पी०पी०एम० फारगीलन के घोल का प्रयोग स्नान घंटे, 7 दिनों से अधिक दिनों तक 2 प्रतिशत साधारण घोल का प्रयोग -
ट्राइकोडिनिओसिस तथा शाइफिडिऑसिस-
लक्षण :- श्वसन में कठिनाई, बेचैन होकर तालाब के किनारे शरीर को रगड़ना, त्वचा तथा गलफड़ों पर अत्याधिक श्लेष स्त्राव, शरीर के ऊपर
उपचार :- 2-3 प्रतिशत साधारण नमक के घोल में (5-10 मिनट तक), 10 पी०पी०एम० कापर सल्फेट घोल का प्रयोग, 20-25 पी०पी०एम० फार्मोलिन का प्रयोग -
मिक्सोस्पोरोडिऑसिस-
लक्षण :- त्वचा, मोनपक्ष, गलफड़ा और अपरकुलम पर सरसों के दाने
उपचार :- 0.1 पी०पी०एम० फार्मोलिन में, 50 पी०पी०एम० फार्मोलिन में 1-2 बराबर सफेद कोष्ट मिनट डुबोए, तालाब में 15-25 पी०पी०एम० फार्मानिल हर दूसरे दिन, रोग समाप्त होने तक उपयोग करें, अधिक रोगी मछली को मार देना चाहिए तथा मछली को दूसरे तालाब में स्थानान्तरित कर देना चाहिए। -
कोसटिओसिस-
लक्षण :- अत्याधिक श्लेषा, स्त्राव, श्वसन में कठिनाई और उत्तेजना
उपचार :- 2-3 प्रतिशत साधारण नमक 50 पी०पी०एम० फार्मोलिन के घोल में 5-10 मिनट तक या 1:500 ग्लेशियस एसिटिक अम्ल के घोल में स्नान देना (10 मिनट तक) -
डेक्टायलोगारोलोसिस तथा गायरडैक्टायलोसिक (ट्रेमैटोड्स)
लक्षण :- प्रकोप गलफड़ों तथा त्वचा पर होता है तथा शरीर में काले रंग के कोष्ट
उपचार :- 500 पी०पी०एम० पोटाश ओ (ज्ञक्दवद) के घोल में 5 मिनट बारी-बारी से 1:2000, एसिटिक अम्ल तथा सोडियम क्लोराइड 2 प्रतिशत के घोल में स्नान देना। -
डिपलोस्टोमियेसिस या ब्लैक स्पाट रोग
लक्षण :- शरीर पर काले धब्बे
उपचार :- परजीवी के जीवन चक्र को तोड़ना चाहिए। घोंघों या पक्षियों से रोक -
लिगुलेसिस (फीताकृमि)
लक्षण :- कृमियों के जमाव के कारण उदर फूल जाता है।
उपचार :- परजीवी के जीवन चक्र को तोड़ना चाहिए इसके लिए जीवन चक्र से जुड़े जीवों घोंघे या पक्षियों का तालाब में प्रवेश वर्जित, 10 मिनट तक 1:500 फाइमलीन घोल में डुबोना, 1-3 प्रतिशत नमक के घोल का प्रयोग। -
आरगुलेसिस
लक्षण :- कमजोर विकृत रूप, शरीर पर लाल छोटे-छोटे ध्ब्बे इत्यादि
उपचार :- 24 घण्टों तक तालाब का पानी निष्कासित करने के पश्चात 0.1-0.2 ग्रा०/लीटर की दर से चूने का छिड़काव गौमोक्सिन पखवाड़े में दो से तीन बार प्रयोग करना उत्तम है।
35 एम०एल० साइपरमेथिन दवा 100 लीटर पानी में घोलकर 1 हे० की दर से तालाब में 5-5 दिन के अन्तर में तीन बार प्रयोग करे -
लरनिएसिस (एंकर वर्म रोग) मत्स्य
लक्षण :- मछलियों में रक्तवाहिनता, कमजोरी तथा शरीर पर धब्बे
उपचार :- हल्का रोग संक्रमण होने से 1 पी०पी०एम० गैमेक्सीन का प्रयोग या तालाब में ब्रोमोस 50 को 0.12 पी०पी०एम० की दर से उपयोग -
अन्य बीमारियां ई०यू०एस० (ऐपिजुऑटिव) अल्सरेटिव सिन्ड्रोम
लक्षण :- प्रारम्भिक अवस्था में लाल दागमछली के शरीर पर पाये जाते हैं जो धीरे-धीरे गहरे होकर सड़ने लगते हैं। मछलियों के पेट सिर तथा पूंछ पर भी अल्सर पाए जाते हैं। अन्त में मछली की मृत्यु हो जाती है।
उपचार :- 600 कि०ग्रा० चूना प्रति हे० प्रभावकारी उपचार। सीफेक्स 1 लीटर प्रति हेक्टेयर भी प्रभावकारी है।
मत्स्य पालन हेतु मासिक पंचांग/कैलेण्डर-
प्रथम त्रैमास (अप्रैल, मई व जून)
उपयुक्त तालाब का चुनाव। नये तालाब के निर्माण हेतु उपयुक्त स्थल का चयन। मिट्टी पानी की जांच। तालाब सुधार/निर्माण हेतु मत्स्य पालक विकास अभिकरणों के माध्यम से तकनीकी व आर्थिक सहयोग लेते हुए तालाब सुधार/निर्माण कार्य की पूर्णता। अवांछनीय जलीय वनस्पतियों की सफाई। एक मीटर पानी की गहराई वाले एक हेक्टेयर के तालब में 25 कुन्तल महुआ की खली के प्रयोग के द्वारा अथवा बार-बार जाल चलवाकर अवांछनीय मछलियों की निकासी। उर्वरा शक्ति की वृद्धि हेतु 250 कि०ग्रा०/हे० चूना तथा सामान्यत: 10 से 20 कुन्तल/हेक्टे०/मास गोबर की खाद का प्रयोग।
द्वितीय त्रैमास (जुलाई, अगस्त एवं सितम्बर,)
मत्स्य बीज संचय के पूर्व पानी की जांच (पी-एच 7.5 से 8.0 व घुलित आक्सीजन 5 मि०ग्रा०/लीटर होनी चाहिए) तालाब में 25 से 50 मि०मी० आकार के 10,000 से 15,000 मत्स्य बीज का संचय पानी में उपलब्ध प्राकृतिक भोजन की जांच। गोबर की खाद के प्रयोग के 15 दिन बाद सामान्यत: 49 कि०ग्रा०/हे०/मास की दर से एन०पी०के० खादों (यूरिया 20 कि०ग्रा०, सिंगिल सुपर फास्फेट 25 कि०ग्रा०, म्यूरेट आफ पोटाश 4 कि०ग्रा०) का प्रयोग।
तृतीय त्रैमास (अक्टूबर, नवम्बर एवं दिसम्बर)
मछलियों की वृद्धि दर की जांच। मत्स्य रोग की रोकथाम हेतु सीफेक्स का प्रयोग अथवा रोग ग्रस्त मछलियाँ को पोटेशियम परमैगनेट या नमक के घोल में डालकर पुन: तालाब में छोड़ना। पानी में प्राकृतिक भोजन की जांच। पूरक आहार दिया जाना। ग्रास कार्प मछली के लिए जलीय वनस्पतियों (लेमरा, हाइड्रिला, नाजाज, सिरेटोजाइलम आदि) का प्रयोग। उर्वरकों का प्रयोग।
चतुर्थ त्रैमास (जनवरी, फरवरी एवं मार्च)
बड़ी मछलियों की निकासी एवं विक्रय। बैंक के ऋण किस्त की अदायगी। एक हेक्टेयर के तालाब में कामन कार्प मछली के लगभग 1500 बीज का संचय पूरक आहार दिया जाना। उर्वरकों का प्रयोग |
इच्छुक व्यक्ति जिनके पास अपनी निजी भूमि या तालाब हो वह उस भूमि सम्बन्धी खसरा खतौनी लेकर जनपदीय कार्यालय सम्पर्क करे। पट्टे के तालाब पर मत्स्य पालन हेतु पट्टा निर्गमन प्रमाण-पत्र के साथ जनपदीय कार्यालय सम्पर्क किया जा सकता है। विभाग द्वारा क्षेत्रीय मत्स्य विकास अधिकारी/अभियन्ता द्वारा भूमि/तालाब का सर्वेक्षण कर प्रोजेक्ट तैयार किया जाता है। तालाबों/प्रस्तावित तालाबों की भूमि का मृदा-जल के नमूनों का परीक्षण विभागीय प्रयोगशाला में नि:शुल्क किया जाता है तथा इसकी विधिवत जानकारी इच्छुक व्यक्ति को दी जाती है। मृदा-जल के परीक्षणोंपरान्त कोई कमी पायी जाती है तो उसका उपचार/निदान मत्स्य पालन हेतु इच्छुक व्यक्ति को बताया जाता है। यदि भूमि/तालाब मत्स्य पालन योग्य है तो जनपदीय कार्यालय द्वारा प्रोजेक्ट तैयार कर संस्तुति सहित प्रोजेक्ट बैंक को ऋण स्वीकृति हेतु भेजा जाता है। बैंक स्वीकृति प्राप्त होने पर अनुदान की राशि बैंक को भेज दी जाती है। मत्स्य पालन की तकनीकी जानकारी एवं मत्स्य पालन हेतु आवश्यक प्रशिक्षण ब्लाक/तहसील स्तर पर क्षेत्रीय मत्स्य विकास अधिकारी/जनपदीय अथवा मण्डलीय कार्यालय से सम्पर्क कर प्राप्त की जा सकती है। मत्स्य बीज की आपूर्ति मत्स्य विभाग/मत्स्य विकास निगम द्वारा की जाती है। इच्छुक मत्स्य पालक इनके द्वारा मत्स्य बीज प्राप्त कर सकते हैं। समय-समय पर कृषि मेलों/प्रदर्शनियों में विभागीय योजनाओं एवं मत्स्य पालकों को दी जा रही सुविधाओं की जानकारी दी जाती है। मत्स्य विपणन के विषय में जानकारी सम्बन्धित जनपदीय कार्यालय से प्राप्त की जा सकती है।