लाख एक कुदरती राल है, जो केरिया लेका नाम के कीट द्वारा पैदा की जाती है. यह मादा कीट के शरीर से लिक्विड के रूप में निकलती है और हवा के संपर्क में आने पर सख्त हो जाती है.लाह यानी लाख के उत्पादन में झारखंड एक अग्रणी राज्य है, जिस का उत्पादन खासकर जंगलों या जंगल के किनारे रहने वाले जनजाति समुदाय द्वारा किया जाता है. इन जनजातियों के लिए लाह उत्पादन जीविका का एक खास जरीया है ।
लाख की खेती – वैज्ञानिक विधि से लाख कीट पालन Lac Farming Business | Kerria Lacca Farming | Shellac Production | – lac insect rearing by scientific method
अब तक लाख कीट पालन कुसुम पलास व बेर के पेड़ों पर ही किया जाता रहा है, जिस में कई परेशानियों का सामना करने के बाद भी पैदावार में कमी आ रही है. हमें लाख कीट पालन के लिए ऐसे पौधे का चुनाव करना होगा, जिस का मैनेजमैंट आसान तरीके से किया जा सके और उस पर लाख का उत्पादन जल्द लिया जा सके । फ्लेमेंजिया सेमियालता ऐसा ही एक उपयुक्त पौधा है, जो कई सालों तक रहता है. इस में लाह के पोषक तत्त्व इफरात से मौजूद रहते हैं. इस की ऊंचाई तकरीबन 2 मीटर से ले कर 3 मीटर तक होती है ।

लाख या लाक्षा का इतिहास
लाख, या लाह संस्कृत के ‘ लाक्षा ‘ शब्द से व्युत्पन्न समझा जाता है। संभवत: लाखों कीड़ों से उत्पन्न होने के कारण इसका नाम लाक्षा पड़ा था।
लाख एक प्राकृतिक राल है बाकी सब राल कृत्रिम हैं। इसी कारण इसे ‘प्रकृत का वरदान’ कहते हैं। लाख के कीट अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं तथा अपने शरीर से लाख उत्पन्न करके हमें आर्थिक सहायता प्रदान करते हैं। वैज्ञानिक भाषा में लाख को ‘लेसिफर लाखा’ कहा जाता है। ‘लाख’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘लक्ष’ शब्द से हुई है, संभवतः इसका कारण मादा कोष से अनगिनत (अर्थात् लक्ष) शिशु कीड़ों का निकलना है। लगभग 34 हजार लाख के कीड़े एक किग्रा. रंगीन लाख तथा 14 हजार 4 सौ लाख के कीड़े एक किग्रा. कुसुमी लाख पैदा करते हैं।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में फसलों की खेती के साथ-साथ कीड़ों की खेती भी की जाती है। इन कीड़ों की खेती के अंतर्गत मधुमक्खी पालन, रेशम कीट पालन तथा लाख कीटों की खेती की जाती है। मधुमक्खी पालन एवं रेशम कीट पालन हेतु विशेष ज्ञान की आवश्यकता के साथ समय भी काफी देना पड़ता है लेकिन लाख कीट पालन में थोड़े तकनीकी ज्ञान से तथा कम समय देकर इसकी खेती आसानी से की जा सकती है।
प्रागैतिहासिक समय से ही भारत के लोगों को लाख का ज्ञान है। अथर्ववेद में भी लाख की चर्चा है। महाभारत में लाक्षागृह का उल्लेख है, जिसको कौरवों ने पांडवों के आवास के लिए बनवाया था। कौरवें का इरादा लाक्षागृह में आग लगाकर पांडवों को जलाकर मार डालने का था। ग्रास्या द आर्टा (Gracia de Orta, 1563 ई) में भारत में लाख रंजक और लाख रेज़िन के उपयोग का उल्लेख किया है। आइन-ए-अकबरी (1590 ई.) में भी लाख की बनी वार्निश का वर्णन है, जो उस समय चीजों को रँगने में प्रयुक्त होती थी। टावन्र्यें (Tavernier) ने अपने यात्रावृतांत (1676 ई.) में लाख रंजक का, जो छींट की छपाई में और लाख रेज़िन का, जो ठप्पा देने की लाख में और पालिश निर्माण में प्रयुक्त होता था, उल्लेख किया है
छत्तीसगढ़ राज्य में इन कीड़ों की खेती की प्रचुर संभावनाएं है तथा कई क्षेत्रों में इनकी खेती भी की जा रही है लेकिन इसकी खेती भी कुछ सीमित क्षेत्रों में की जा रही है जिसे और अधिक क्षेत्रों में बढ़ाया जा सकता है। इसकी खेती में किसानों को अतिरिक्त आय प्राप्त होगी तथा इसे ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ाया जा सकता है। इस की खेती में किसानों को अतिरिक्त आय प्राप्त होगी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार भी उपलब्ध होगा। बड़े पैमाने में लाख कीट पालन को ही लाख की खेती कहा जाता है।
लाख की खेती वाले पेड़
‘ढाक के तीन पात’ या टेसू’ के फूल को कौन नहीं जानता| इसे ही पलास, परसा, छिऊल, या खगरा और अंग्रेजी में बस्टर्ड टीक या बंगाल कीनो, बंगला में पलास, परसा यह कमरकस, उड़िया में मुरका, तेलगू में मोदुगा या पालाडुलु, मलयालम में पिलाचम या मुरुक्का मरम, मुंडारी में मुरुद, संथाली में मुरूप दारे मुरूप, कोल में मुरुद तथा वैज्ञानिक नाम ब्यूटिया मोनोस्पर्मा है| इस पर लाख की खेती यानि लाख कीट पालन से वृक्षों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता|
लाख, कीटों से उत्पन्न होता है। कीटों को लाख कीट, या लैसिफर लाक्का (Laccifer lacca) कहते हैं। यह कॉक्सिडी (Coccidae) कुल का कीट है। यह उसी गण के अंतर्गत आता है जिस गण का कीट खटमल है। लाख कीट कुछ पेड़ों पर पनपता है, जो भारत, बर्मा, इंडोनेशिया तथा थाइलैंड में उपजते हैं। एक समय लाख का उत्पादन केवल भारत और बर्मा में होता था। पर अब इंडोनेशिया तथा थाइलैंड में भी लाख उपजाया जाता है और बाह्य देशों, विशेषत: यूरोप एवं अमरीका, को भेजा जाता है।
पचासों पेड़ हैं जिनपर लाख कीट पनप सकते हैं। पर भारत में जिन पेड़ों पर लाख उगाया जाता है, ये हैं-
कुसुम (Schleichera trijuga),
खैर (Acacia catechu),
बेर (Ziziphus jujuba),
पलाश (Butea frondosa),
घोंट (Zizphus xylopyra) के पेड़ और
अरहर (Cajanus indicus) के पौधे,
शीशम (Dalbergia latifolia),
पंजमन (Ougeinia dalbergioides),
सिसि (Albizzia stipulata),
पाकड़ (Ficus infectoria),
गूलर (Ficus glomerata),
पीपल (Ficus religiosa),
बबूल (Acacia arabica),
पोर हो और
शरीफा इत्यादि
लाख की अच्छी फसल के लिए पेड़ों को खाद देकर उगाया जाता है और काट-छाँटकर तैयार किया जाता है। जब नए प्ररोह निकलकर पर्याप्त बड़े हो जाते हैं तब उनपर लाख बीज बैठाया जाता है।
लाख की दो फसलें होती हैं। एक को कतकी-अगहनी कहते हैं तथा दूसरी को बैसाखी-जेठवीं कहते हैं। कार्तिक, अगहन, बैशाख तथा जेठ मासों में कच्ची लाख एकत्र किए जाने के कारण फसलों के उपर्युक्त नाम पड़े हैं। जून-जुलाई में कतकी-अगहनी की फसल के लिए और अक्टूबर नवंबर में बैसाखी-जेठवी फसलों के लिए लाख बीज बैठाए जाते हैं। एक पेड़ के लिए लाख बीज दो सेर से दस सेर तक लगता है और कच्चा लाख बीज से ढाई गुना से लेकर तीन गुना तक प्राप्त होता है। अगहनी और जेठवी फसलों से प्राप्त कच्चे लाख को “कुसुमी लाख” तथा कार्तिक एवं बैसाख की फसलों से प्राप्त कच्चे लाख को “रंगीनी लाख” कहते हैं। अधिक लाख रंगीनी लाख से प्राप्त होती है, यद्यपि कुसमी लाख से प्राप्त लाख उत्कृष्ट कोटि की होती है। लाख की फसल “एरी” हो सकती है, या “फुंकी”। कीटों के पोआ छोड़ने के पहले यदि लाखवाली टहनी काटकर उससे लाख प्राप्त की जाती है, तो उस लाख को “एरी” लाख कहते हैं। एरी लाख में कुछ जीवित कीट, परिपक्व या अपरिपक्व अवस्थाओं में, रहते हैं। कीटों के पोआ छोड़ने के बाद जो टहनी काटी जाती है, उससे प्राप्त लाख को “फुंकी” लाख कहते हैं। फुंकी लाख में लाख के अतिरिक्त मृत मादा कीटों के अवशेष भी रहते हैं।
रंगीनी लाख कीट से एक वर्ष में दो फसलें ली जाती हैं जिसे बैसाखी (ग्रीष्मकालीन) और कतकी (वर्षाकालीन) फसल कहते हैं| बैसाखी फसल हेतु लाख कीट या बीहन को वृक्षों पर अक्तूबर या नवम्बर माह में तथा कतकी के लिए जून या जुलाई माह में चढ़ाया जाता है| वैसाखी और कतकी फसल बीहन चढ़ाने के बाद क्रमशः 8 और 4 माह में तैयार हो जाती है|
लाख एवं लाख कीट
यह एक प्रकार का प्रकृतिक राल है जो लाख कीट लेसीफेरा लेक्का (Leccifera lacca) के मादा कीट द्वारा स्त्राव के फलस्वरूप बनता है। पूरे विश्व में लाख कीट की नौ जातियाँ पायी जाती है परंतु भारतवर्ष में दो ही जातियाँ है जिनका नाम लेसीफेरा एवं पैराटेकारडिना है। इनमें से लेसीफेरा की लेक्का उपजाति मुख्य रूप से पूरे देश में पायी जाती है जिसकी दो प्रजातियाँ कुसमी तथा रंगीनी होती है।

लाख कीट अपना जीवन शिशु कीट के रूप में शुरू करता है। यह शिशु कीट अपने मुखाग्र के द्वारा पेड़ों की टहनियों का रस चूसते हुए जीवन चक्र पूरा करता है। कुछ समय पश्चात शिशु टहनियों के एक स्थान में स्थायी रूप से बैठ कर रस चूसते हुए, इसका स्त्राव करके अपने शरीर के ऊपर एक आवरण बनाता है। यह आवरण मुँह, मल द्वारा एवं दोनों श्वसन छिद्रों में नहीं बनता क्योंकि इन स्थानों पर मोम का जमाव होने से इसका का जमाव नहीं हो पाता है। इसका नर वयस्क कीट, शंखी (प्यूपा) से निकलने के बाद मादा वयस्क कीटों से प्रजनन करने से तीन दिन बाद मर जाते है।
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प्रजनन के बाद मादा कीटों द्वारा प्रचुर मात्रा में इसका स्त्राव होता है तथा इसके साथ ही साथ अंडों का विकास होता रहता है। एक मादा कीट पंद्रह दिनों तक शिशु को जन्म देती है जिसकी संख्या 400 तक होती है। मादा कीट का जीवन चक्र पूरा होते-होते इसका स्त्राव बंद हो जाता है और शिशु के बाहर आने के बाद मादा कीटों की मृत्यु हो जाती है। शिशु कीट जिस डंठल में रहते है, उस डंठल को बहिन लाख कहते है, जिसको लेकर अगली फसल की तैयारी की जाती है।
कहाँ कहाँ होती है लाख की खेती
भारत देश लाख उत्पादन की दृष्टि से विश्व में सर्वप्रथम देश है। पूरे विश्व की कुल उत्पादन का करीब 80 प्रतिशत लाख भारत में होता है। भारत के बाद इसका उत्पादन थाइलैंड में अधिक होता है। इनके साथ-साथ इसका उत्पादन चीन, बर्मा, रूस एवं वियतनाम में भी होता है। भारत में इसका उत्पादन झारखण्ड राज्य के छोटा नागपूर के क्षेत्र में, छत्तीसगढ़ राज्य, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश एवं महाराष्ट्र में होता है ।
छत्तीसगढ़ राज्य में मुख्यतः सरगुजा (रामानुजगंज, सीतापुर, भैयाथान, कुसमी, शंकरगढ़, बैकुंठपुर), रायगढ़, (धरमजयगढ़, लैलुंगा, सारंगढ़), जाँजगीर, दुर्ग, राजनांदगाँव, कांकेर, दंतेवाड़ा आदि जिलों में मुख्यतः पलाश के पौधों में इसकी खेती की जाती है। मध्यप्रदेश में इस की खेती कई जिलों में की जाती है, जिनमें से शहडोल, मंडला, डिंडोरी, दमोह, सागर के कुछ भाग के साथ-साथ सीधी जिले में भी इसकी खेती की जाती है लेकिन वैज्ञानिक तरीके से इस की खेती के प्रचार-प्रसार की काफी संभावनाएं है। इसी तरह कांकेर जिले में कुसमी लाख की बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक विधि से खेती की जा रही है।
लाख फसल
भारत में कुसमी और रंगीनी दो प्रकार की लाखफसल होती है। कुसमी लाख कुसुम के पौधों पर होती है जबकि रंगीनी लाख मुख्यतः पलाश, बेर के पौधों पर पाले जाते है। कुसमी तथा रंगीनी दोनों से एक वर्ष में दो-दो फसल ली जाती है। कुसमी लाख से ठंड और गर्मी समय की क्रमशः अगहनी और जेठवी फसल ली जाती है। अगहनी फसल के लिये शिशु कीट संचारण (इनाकुलेशन) जून-जुलाई और जेठवी फसल के लिये जनवरी-फरवरी माह में करते है। यहीं फसल क्रमशः जनवरी-फरवरी तथा जून-जुलाई में काटते है।

रंगीनी लाख से वर्षा ऋतु की फसल कतकी तथा ग्रीष्म ऋतु की बैसाखी फसल ली जाती है जिसके लिए शिशु कीट संचारण (इनाकुलेशन) जून-जुलाई और अक्टूबर-नवम्बर में करते है जो क्रमशः अक्टूबर-नवम्बर तथ जून-जुलाई में परिपक्व हो जाती है। इन चारों फसलों के नाम उन हिन्दी महीने के नामानुसार रखे गये है जिनमे वे क्रमशः पकते है। इसके बीज की मात्रा लगाने का समय तथा अन्य महत्वपूर्ण बातें तालिका में दर्शायी गई है।
पौध की तैयारी और रोपाई –
फ्लेमेंजिया सेमियालता पौधे के लिए मिट्टी में थोड़ी अम्लीयता के साथ पीएच मान साढ़े 5 के आसपास होना अच्छा माना गया है.
इस की नर्सरी थोड़ी ढलाऊ जगह पर होनी चाहिए । जिस से फालतू पानी आसानी से निकाला जा सके. फ्लेमेंजिया सेमियालता की पौध बीज के अलावा डालियों द्वारा भी नर्सरी में आसानी से तैयार की जा सकती है । बीज बोआई से पहले नर्सरी में 9×1.2 मीटर के लंबेचौड़े और 4 इंच ऊंचे बैड तैयार कर लें और बीज को सीधे बैड में या प्लास्टिक की थैलियों में, जिस में 2:1:1 के अनुपात में मिट्टी, सड़ी गोबर की खाद व बालू का मिश्रण भर कर अप्रैलमई महीने में बीज की बोआई की जा सकती है । बीज बोआई के बाद समयसमय पर हलकी पलटाई करते रहना चाहिए ।
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नर्सरी में पौध से पौध की दूरी 8-10 सैंटीमीटर कर देने से पौधे की बढ़वार अच्छी होती है । पौध रोपण के एक महीने पहले ही मईजून महीने में 45×45×45 सैंटीमीटर आकार के गड्ढे सिंचित व 30×30×30 सैंटीमीटर असिंचित इलाकों के लिए खोद लेने चाहिए. गड्ढों की खुदाई पौधे से पौधे की दूरी 1 मीटर व लाइन से लाइन की दूरी 2 मीटर के आधार पर करनी चाहिए ।
पौध रोपण के पहले हर गड्ढे में 5-10 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद डालनी चाहिए. फ्लेमेंजिया पौधे की लंबाई कम होने के चलते इस पर लाख कीट पालन दूसरे पोषक पौधों के मुकाबले में ज्यादा आसान है और पौध रोपण के एक से डेढ़ साल बाद लाख कीट को पौधों पर छोड़ा जाता है ।
फ्लेमेंजिया की खेती करते समय लाइनों के बीच में फल व सब्जियों की खेती कर ज्यादा फायदा कमा सकते हैं. फ्लेमेंजिया का पौधा छोटा होने के चलते इस का मैनेजमैंट भी ठीक तरह से किया जा सकता है । फ्लेमेंजिया पौधे पर लाख कीट की कुसुमी प्रजाति बहुत ही सही पाई गई है. फायदे के नजरिए से जाड़े वाली फसल ज्यादा उपयुक्त है. कुसुमी लाख कीट को जुलाई महीने में 20 ग्राम प्रति पौधे की दर से छोड़ना चाहिए । लाख कीट को नुकसानदायक कीटों के हमले से बचाने के लिए बीहान लाख को
60 मेस की प्लास्टिक की जाली में भर कर ही इस्तेमाल करना चाहिए । लाख लगाने के 21 दिन बाद पेड़ों में बंधी हुई बीहन लाख, जिसे फूंकी भी कहा जाता है, को उतार लेना चाहिए व फूंकी लाख को खत्म न कर के उसे छील कर बेच देना चाहिए ।
लाख कीट की हिफाजत
पौधे पर लाख कीट छोड़ने के एक महीने बाद या फूंकी उतारने के एक हफ्ते बाद नुकसानदायक कीटों का इंफेक्शन शुरू हो जाता है. हमें इसी अवस्था पर ही कीटनाशक दवा का पहला छिड़काव 60 दिन बाद जरूरत के मुताबिक करना चाहिए. इन कीटनाशकों का छिड़काव लाख कीट के दुश्मन कीट जैसे काली तितली, सफेद तितली व क्रोइसोपा वगैरह से बचाव के लिए किया जाता है ।
किसी भी अवस्था में नर लाख कीट निकलने के समय कीटनाशक या फफूंदनाशक दवा का छिड़काव नहीं करना चाहिए. ऐसा करने से नर कीट मर सकते हैं, जिस से निषेचन क्रिया नहीं हो पाएगी और अगली फसल के लिए बीहन की पैदावार नहीं मिलेगी. फफूंद से बचाव के लिए बाविस्टीन दवा की 3 ग्राम मात्रा का 14 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव किया जाना चाहिए ।
दवा छिड़काव –
शत्रु कीटों की रोकथाम तथा कोहरे (कुहासा) से होने वाले नुकसान से फसल को बचाने के लिए कीटनाशक/फुफंदनाशक छिड़कने की आवश्यकता पड़ सकती है| पलास पर फिप्रोनिल 5 प्रतिशत एस.सी. 0.0.0 7% का छिड़काव शत्रु कीटों की रोकथाम के लिए तथा कारबेन्डाजिम फुफंद के लिए आवश्यक है| पहला छिड़काव बीहन चढ़ाने या कीट निर्गमन के 30 दिन पर तथा दूसरा 60 दिन पर| कीट और फुफंदनाशक दवा बनाने के लिए 1 5 ली.पानी में लगभग 22-25 मि.ली. फिप्रोनिल तथा उसी में कारबेन्डाजिम (10 ग्राम पाउडर) मिलाकर बनायें |
तालिका : खेती के प्रमुख आयाम
क्र. | प्रजाति | फसल की किश्त तथा बीहन लाख बांधने का समय | नर कीड़ों के निकालने का समय | निकालने का समय | बीहन लाख प्राप्त करने का समय | प्रति वृक्ष बीहन लाख की मात्रा (ग्रा.) | वृक्ष छँटाई का समय | वृक्ष छँटाई तथा बीहन लाख बांधने के बीच का उपयुक्त अंतराल |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|
1. | रंगीनी | 1.कतकी जून-जुलाई | अगस्त-सितम्बर | अक्टूबर-नवम्बर | अक्टूबर-नवम्बर | 1.पलाश 200-1000 2.बेर 250-1500 |
अप्रैलअप्रैल | 6 माह6 माह |
2.बैसाखी अक्टूबर-नवम्बर | फरवरी-मार्च | अप्रैल-मई | जून-जुलाई | |||||
2. | कुसुमी | 3.अगहनी जून-जुलाई | सितम्बर | दिसम्बर-जनवरी | जनवरी-फरवरी | 3.कुसुम 1000-4000 | जुलाई | 10 माह |
4.जेठवी जनवरी-फरवरी | मार्च-अप्रैल | जून-जुलाई | जून-जुलाई | फरवरी | 10 माह |
पोषक पौधे
इसके कई पोषक पौधे है, जिनमें लाखकीट पालन करके इसकी खेती की जाती है। सामान्यतः पोषक पौधों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है|
क) | रंगीनी लाख की फसल हेतु पलाश (ब्यूटिया मोनोस्पर्मा), बेर (जिजीफस माटीसियाना), गूलर (फाइकस रेसीमोसा), पीपल (फाइकस रेलिजियस) |
(ख) | कुसमी लाख की फसल के लिये मुख्य पोषक वृक्ष कुसुम (सलीचेरा ओलियोसा) है, और |
(ग) | ऐसे पौधे जिन पर रंगीनी और कुसमी दोनों प्रकार के यह कीट पाले जाते है। इसके अन्तर्गत आकाशमनी, गलवग, भलिया तथा पुतरी आते है। |
कीट पालन की अवस्थाएँ
पेड़ों की कटाई-छँटाई
पोषक पेड़ों में कोमल तथा रसदार टहनियाँ पाने के लिए पेड़ों की हल्की कटाई-छँटाई एक निश्चित समय में आवश्यक है जिससे इसके कीट का पालन आसानी से किया जा सके। कुसुम वृक्ष के लिए कटाई-छँटाई जनवरी-फरवरी एवं जून-जुलाई में की जाती हैं। पलाश के वृक्ष की कटाई-छँटाई हमेशा पतझड़ के बाद नई कोपलें आने के पहले की जानी चाहिए। बेर फसल की कटाई-छँटाई मई महीने में करना चाहिए।
बीहन लाख से संचारण (इनाकुलेशन)
यह कीट पोषक पौधों के डंठलों में रहते है, जिनमे शिशु कीट निकलते है। इन डंठलों को बीहन लाख कहते है। लाखकीट को पोषक पेड़ों पर संचारित करने के लिए बीहन लाख की 6 से 9 इंच लम्बी, 3 से 4 डंठलों (मोटाई अँगूठे के बराबर) का बंडल बना लिया जाता है (चित्र-2), जिसे लाख पोषक पेड़ों के कई स्थानों पर डालियों के समानान्तर ऊपर की ओर बाँध देते है। इन बीहन लाख से शिशु कीट बाहर आकार नई टहनियों पर रेंगने लगते है और बाद में कोमल एवं रसदार टहनियों पर हमेशा के लिए बैठ जाते है।
यदि बीहन लाख में दुश्मन कीट हों तो इसे 60 मेश की नायलान जाली के थैले में भरकर लगाने से सिर्फ लाख के कीट ही संचारित होते है। जबकि शत्रु कीट इस थैली में फस जाते है। यदि 60 मेश की नायलान जाली के थैले उपलब्ध न हो तो बीहन लाख के बंडल बनाकर कीटनाशक थायोडान के 0.05 प्रतिशत अर्थात 2 मी.ली.प्रति लीटर पानी के घोल में 8 से 10 मिनट तक डुबाकर रखने के बाद बीहन लाख को सूखा लें, फिर संचारण करें, जिसमें शत्रु को आसानी से नियंत्रण किया जा सकता है। पलाश, बेर, कुसुम और गलवान पर यह किया काट-छाँट के करीब 6 माह बाद तथा कुसुम और आकाशमनी पर 18 महीने बाद करते है।
फूंकी उतारना
बीहन लाख से शिशु कीट निकल जाने के बाद बँधी लाख डंठलों को “फुंकी” कहते है। शिशु कीट के बीहन लाख से निकल जाने के बाद डंठलों को पेड़ से हटा लेना चाहिए अन्यथा इसमें मौजूद शत्रु कीट बीहन लाख से जन्में शिशुओं पर आक्रमण करना शुरू कर देते है।
फसल कटाई
रंगीनी लाख की ग्रीष्मकालीन (बैसाखी) और वर्षा कालीन (कतकी) फसल, संचारण के क्रमशः 8 और 4 महीने बाद परिपक्व हो जाती है। इसी प्रकार कुसमी की ग्रीष्मकालीन (जेठवी) और शीतकालीन (अगहनी) फसल क्रमशः जून-जुलाई और जनवरी-फरवरी में तैयार हो जाती है। परिपक्व फसल को फिर से बीहन लाख के लिए उपयोग करना हो तो पेड़ों पर सही समय पर अर्थात कीटों के निकलने के समय से काटते हैं, लेकिन यदि छिली लाख के रूप में उपयोग करना है तो समय से पहले भी काटा जा सकता है।
छिलाई
फसल परिपक्व होने के बाद लाख युक्त डंठलों तथा फुंकी लाख डंठलों में से इस को खुरचकर अलग किया जाता है। इस विधि को लाख छिलाई कहते है तथा इस खुरची लाख को छायादार स्थान में ज़मीन पर फैलाकर सुखाया जाता है तथा सुखाने के बीच-बीच में छिली लाख को पलटना पड़ता है।
खण्ड प्रणाली से लाख की खेती
पोषक वृक्षों को खण्डों में बराबर संख्या में बाँटकर इसकी खेती करने को खण्ड प्रणाली कहते हैं। इस प्रणाली से इसकी खेती करने से कई लाभ हैं। जैसे फसल लगातार मिलती रहती है, बीहन लाख की कमी नहीं होती, वृक्षों को विश्राम का पूरा समय मिलता हैं, शत्रु कीटों का प्रकोप कम होता हैं तथा इसका उत्पादन अधिक होता हैं।
लाख का उपयोग
लाख के वे ही उपयोग हैं जो चपड़े के हैं। लाख के शोधन से और एक विशेष रीति से चपड़ा तैयार होता है। चपड़ा बनाने से पहले लाख से लाख रंजक निकाल लिए जाते हैं। लाख ग्रामोफोन रेकार्ड बनाने में, विद्युत् यंत्रों में, पृथक्कारी के रूप में, वार्निश और पॉलिश बनाने में, विशेष प्रकार की सीमेंट और स्याही के बनाने में, शानचक्रों में चूर्ण के बाँधने के काम में, ठप्पा देने की लाख बनाने इत्यादि, अनेक कामों में प्रयुक्त होता है। भारत सरकार ने राँची के निकट नामकुम में लैक रिसर्च इंस्टिट्यूट की स्थापना की है, जिसमें लाख से संबंधित अनेक विषयों पर अनुसंधान कार्य हो रहे हैं। इस संस्था का उद्देश्य है उन्नत लाख उत्पन्न करना, लाख की पैदावर को बढ़ाना और लाख की खपत अधिक हो और निर्यात के लिए विदेशों की माँग पर निर्भर रहना न पड़े।
आज की लाख का उपयोग ठप्पा देने का चपड़ा बनाने, चूड़ियों और पालिशों के निर्माण, काठ के खिलौनों के रँगने और सोने चाँदी के आभूषणों में रिक्त स्थानों को भरने में होता है। लाख की उपयोगिता का कारण उसका ऐल्कोहॉल में घुलना, गरम करने पर सरलता से पिघलना, सतहों पर दृढ़ता से चिपकना, ठंडा होने पर कड़ा हो जाना और विद्युत् की अचालकता है। अधिकांश कार्बनिक विलयकों का यह प्रतिरोधक होता है और अमोनिया तथा सुहागा सदृश दुर्बल क्षारों के विलयन में इसमें बंधन गुण आ जाता है।
19वीं शताब्दी तक लाख का महत्व लाख रंजकों के कारण था, पर सस्ते संश्लिष्ट रंजकों के निर्माण से लाख रंजक का महत्व कम हो गया। मनोरम आभा, विशेषकर रेशम के वस्त्रों में, उत्पन्न करने की दृष्टि से लाख रंजक आज भी सर्वोत्कृष्ट समझा जाता है, पर महँगा होने के कारण न अब बनता है और न बिकता है। आज लाख का महत्व उसमें उपस्थित रेज़िन के कारण है, किंतु अब सैकड़ों सस्ते रेज़िनों का संश्लेषण हो गया है और ये बड़े पैमाने पर बिकते हैं। किसी एक संश्लिष्ट रेज़िन में वे सब गुण नहीं हैं जो लाख रेज़िन में हैं। इससे लाख रेज़िन की अब भी माँग है, पर कब तक यह माँग बनी रहेगी, यह कहना कठिन है। कुछ लोगों का विचार है कि इसका भविष्य तब तक उज्वल नहीं है जब तक इसका उत्पादनखर्च पर्याप्त कम न हो जाए। लाख में एक प्रकार का मोम भी रहता है, जिसे लाख मोम कहते हैं।