भारत का एक बड़ा भू-भाग विविध फसलों, सब्जियों, फल वृक्षों, फूलों, जड़ी-बूटियों, वनों आदि से आच्छादित है, जो प्रतिवर्ष फूल, फल, बीज के साथ ही बहुमूल्य मकरन्द और पराग को धारण करते है, परन्तु उसका भरपूर सदुपयोग नहीं हो पाता है। शहद उत्पादन हेतु मकरंद और पराग ही कच्चा माल है जो हमें प्रकृति से मुफ्त में उपलब्ध है। मधुमक्खी ही केवल कीट प्रजाति का जीव है, जो पेड़-पौधों के फूलों से मकरंद एकत्रित कर मनुष्यों के लिए स्वादिष्ट एवं पौष्टिक खाध्य पदार्थ यानि मधु के रूप में परिवर्तित कर सकती है। आज मधुमक्खियों के पालन पोषण और उनके सरंक्षण की महती आवश्यकता है। मधुमक्खी पालन बेरोजगार युवकों, भूमि-हीन, अशिक्षित एवं शिक्षित परिवारों को कम लागत से अधिक लाभ देने वाला व्यवसाय ही नहीं है, अपितु इससे कृषि उत्पादन में भी 15-25 प्रतिशत की वृद्धि होती है।

भारत में किसानों को खेती के साथ-साथ बिना विशेष प्रयत्न के अतिरिक्त आय दे सकता है। इसके लिए किसान को न तो कोई अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है और न ही फसलों में अतिरिक्त खाद-पानी देना होता है। भारत में शहद उत्पादन के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश, राजस्थान,पश्चिम बंगाल, बिहार एवं हिमाचल प्रदेश अग्रणी राज्य है। इसके अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं उत्तराखंड में भी मधुमक्खी पालन किया जाने लगा है। वर्ष 2016-17 में देश में 94,500 मैट्रिक टन शहद का उत्पादन हुआ । अभी हमारे देश में प्रति व्यक्ति शहद की खपत केवल आठ ग्राम है जबकि जर्मनी में यह 1800 ग्राम है। सेहत के लिए अमृत समझे जाने वाले शहद की उपयोगिता के कारण आने वाले समय में शहद की मांग बढ़ने की संभावनाओं को देखते हुए देश में मधुमक्खी पालन का सुनहरा भविष्य है।
आज के आर्टिकल में हम मधुमक्खी पालन के बारे में विस्तृत जानकारी देने वाले हैं – इस लेख में हम जानेंगे – कैसे शुरू करे मधुमक्खी पालन? मधुमक्खी पालन कैसे करें, मधुमक्खी पालने के लिए क्या करना चाहिए ? मधुमक्खी पालन का सबसे अच्छा समय कौन सा है? मधुमक्खी के छत्ते से शहद कब निकालना चाहिए? मधुमक्खी पालन से कमाई । तथा मधुमक्खी पालन से जुड़ी बहुत जानकारी से रूबरू होंगे।
मधुमक्खी पालन – कब, कैसे और कहाँ करें – मधुमक्खी पालन की पूरी जानकारी – Beekeeping – When, How and Where to do it
मधुमक्खी पालन एक ऐसा उद्यम है जिसके लिए मधु मक्खी पालक किसान के पास अपनी जमीन और भवन होना भी आवश्यक नहीं है। अतः बेरोजगार युवक एवं कृषक अपना स्वयं का मधुमक्खी पालन व्यवसाय शुरू कर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत कर समृद्ध कृषि, स्वस्थ और श्रेष्ठ भारत निर्माण में भागीदार बन सकते है। इस व्यवसाय को कम लागत में घर की छतों में, छज्जों पर, खेत की मेड़ों के किनारे, तालाब के किनारे आसानी से किया जा सकता है। यही नहीं मौन पालक किसान अपनी पूँजी और सामर्थ्य के अनुसार एक बक्से से लेकर अनेक बक्सों से भी काम प्रारम्भ कर सकते है । एक बक्से से एक मौसम में औसतन 20-25 किलो शहद मिल सकता है। मधुमक्खी पालन के लिए जनवरी से मार्च का समय सबसे उपयुक्त है, लेकिन नवंबर से फरवरी का समय तो इस व्यवसाय के लिए वरदान है, क्योंकि तापमान की दृष्टि से मधुमक्खियों के लिए यह सबसे उपयुक्त समय होता है । बहुफसली क्षेत्र, बाग़-बगीचों, वनाच्छादित क्षेत्रों के आस-पास मधुमक्खी पालन की व्यापक सम्भानाये संभावनाएं है। फसलों में सूरजमुखी, सरसों,रामतिल,गाजर, मूली,सोयाबीन, अरहर,मिर्च आदि, फल वृक्षों में नीबूं, संतरा, मौसमी, आंवला, अमरुद, पपीता, अंगूर,आम आदि तथा शोभाकारी पेड़ों में गुलमोहर,नीलगिरी आदि के बागानों के पास मधुमक्खी पालन सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
मधुमक्खी पालन लागत: लाभ का गणित – मधुमक्खी पालन में कितना खर्चा आता है?
किसान भाई इस व्यवसाय को पांच कलोनी (पांच बाक्स) से शुरू कर सकते है। एक बॉक्स में लगभग में 4000 रुपए का खर्चा आता है । इनकी संख्या को बढ़ाने के लिए समय समय पर इनका विभाजन कर सकते हैं। सामान्यतौर पर 50 बक्से वाली इकाई पर बक्से और उपकरण मिलाकर लगभग दो लाख रूपये की लागत आती है जिसमें 3-4 लाख की आमदनी प्राप्त की जा सकती है। इसके अलावा आपके पास मधुमक्खियों की संख्या बढ़ जाएगी जिनसे आप अगली बार 100 बक्सों में मधुमक्खी पालन कर अपने मुनाफे को दौगुना कर सकते है।
मधुमक्खी परिवार के बारे में जाने –
मधुमक्खी परिवार :
एक परिवार में एक रानी कई हजार कमेरी तथा 100-200 नर होते है ।
रानी :
यह पूर्ण विकसित मादा होती है एवं परिवार की जननी होती है। रानी मधुमक्खी का कार्य अंडे देना है अछे पोषण वातावरण में एक इटैलियन जाती की रानी एक दिन में 1500-1800 अंडे देती है। तथा देशी मक्खी करीब 700-1000 अंडे देती है। इसकी उम्र औसतन 2-3 वर्ष होती है।
कमेरी/श्रमिक :
यह अपूर्ण मादा होती है और मौनगृह के सभी कार्य जैसे अण्डों बच्चों का पालन पोषण करना, फलों तथा पानी के स्त्रोतों का पता लगाना, पराग एवं रस एकत्र करना , परिवार तथा छतो की देखभाल, शत्रुओं से रक्षा करना इत्यादि इसकी उम्र लगभग 2-3 महीने होती है।
नर मधुमक्खी / निखट्टू :
यह रानी से छोटी एवं कमेरी से बड़ी होती है। रानी मधुमक्खी के साथ सम्भोग के सिवा यह कोई कार्य नही करती सम्भोग के तुरंत बाद इनकी मृत्यु हो जाती है और इनकी औसत आयु करीब 60 दिन की होती है।
मधुमक्खी पालन हेतु उपयुक्त मधुमक्खी की प्रजातियाँ –
मधुमक्खी परिवार में एक रानी और लगभग 4-5 हजार श्रमिक मक्खियाँ तथा 100-200 नर (ड्रोन) मक्खियाँ पायी जाती है. भारत में मधुमक्खियों की मुख्यतः 4 प्रजातियां पाई जाती है ।
1. चट्टानी मधुमक्खी(एपिस डोरसाटा):
इसे रॉक बी के नाम से भी जाना जाता है. यह बड़े आकार की होती है. इसके पालन से शहद के एक छत्ते से 35-40 किग्रा प्रति वर्ष शहद प्राप्त किया जा सकता है । यह मक्खी उग्र स्वभाव की होती है ।
2. लघु मक्खी (एपिस फ्लोरिया):
यह मक्खी छोटे आकार की होती है जो प्रायः झाड़ियों में अपना छत्ता बनाती है। इससे एक छत्ते से लगभग 250-300 ग्राम तक शहद प्रति वर्ष प्राप्त होता है।
3. भारतीय मधुमक्खी( एपिस सेराना):
एशियाई तथा भारतीय मूल की इन मधुमक्खियों को भारत के अधिकतर क्षेत्रों में पाला जाता है। भारतीय मधु वंश में 10-20 किग्रा मधु एक वर्ष में प्राप्त किया जा सकता है।
4. पश्चिमी मधुमक्खी (एपिस मेलीफेरा):
इसे इटेलियन और यूरोपियन बी के नाम से जाना जाता है. शांत स्वभाव होने के कारण इनका पालन पोषण आसानी से किया जा सकता है. विश्व में इसी मधुमक्खी का पालन अधिक किया जाता है. इस मधुमक्खी द्वारा प्रतिवर्ष 50-150 किग्रा शहद एक छत्ते से प्राप्त किया जा सकता है।
मधुमक्खी पालन के लिए अवश्यक सामग्री –
मौन पेटिका, मधु निष्कासन यंत्र, स्टैंड, छीलन छुरी, छत्ताधार, रानी रोक पट, हाईवे टूल (खुरपी), रानी रोक द्वार, नकाब, रानी कोष्ठ रक्षण यंत्र, दस्ताने, भोजन पात्र, धुआंकर और ब्रुश.
मधुमक्खी परिवार का उचित रखरखाव एवं प्रबंधन –
मधुमक्खी परिवारों की सामान्य गतिविधियाँ 100 और 380 सेंटीग्रेट की बीच में होती है उचित प्रबंध द्वारा प्रतिकूल परिस्तिथियों में इनका बचाव आवश्यक हैं। उतम रखरखाव से परिवार शक्तिशाली एवं क्रियाशील बनाये रखे जा सकते है। मधुमक्खी परिवार को विभिन्न प्रकार के रोगों एवं शत्रुओं का प्रकोप समय समय पर होता रहता है। जिनका निदान उचित प्रबंधन द्वारा किया जा सकता है इन स्तिथियों को ध्यान में रखते हुए निम्न प्रकार वार्षिक प्रबंधन करना चाहिये।
शरदऋतु में मधुवाटिका का प्रबंधन –
शरद ऋतु में विशेष रूप से अधिक ठंढ पड़ती है जिससे तापमान कभी कभी 10 या 20 सेन्टीग्रेट से निचे तक चला जाता है। ऐसे में मौन वंशो को सर्दी से बचाना जरुरी हो जाता है। सर्दी से बचने के लिए मौनपालको को टाट की बोरी का दो तह बनाकर आंतरिक ढक्कन के निचे बिछा देना चाहिए। यह कार्य अक्टूबर में करना चाहिये। इससे मौन गृह का तापमान एक समान गर्म बना रहता है। यह संभव हो तो पोलीथिन से प्रवेश द्वार को छोड़कर पूरे बक्से को ढक देना चाहिए। या घास फूस या पुवाल का छापर टाट बना कर बक्सों को ढक देना चाहिए ।
इस समय मौन गृहों को ऐसे स्थान पर रखना चाहिये। जहाँ जमीं सुखी हो तथा दिन भर धुप रहती हो परिणामस्वरूप मधुमक्खियाँ अधिक समय तक कार्य करेगी अक्टूबर में यह देख लेना चाहिये। की रानी अच्छी हो तथा एक साल से अधिक पुरानी तो नही है यदि ऐसा है तो उस वंस को नई रानी दे देना चाहिये। जिससे शरद ऋतु में श्रमिको की आवश्यक बनी रहे जिससे मौन वंस कमजोर न हो ऐसे क्षेत्र जहाँ शीतलहर चलती हो तो इसके प्रारम्भ होने से पूर्व ही यह निश्चित कर लेना चाहिये। की मौन गृह में आवश्यक मात्रा में शहद और पराग है या नही ।

यदि शहद कम है नही है तो मौन वंशों को 50-50 के अनुपात में चीनी और पानी का घोल बनाकर उबालकर ठंडा होने के पश्चात मौन गृहों के अंदर रख देना चाहिये। जिससे मौनो को भोजन की कमी न हो । यदि मौन गृह पुराने हो गये हो या टूट गये हो तो उनकी मरम्मत अक्टूबर नवम्बर तक अवश्य करा लेना चाहिए। जिससे इनको सर्दियों से बचाया जा सके। इस समय मौन वंसो को फुल वाले स्थान पर रखना चाहिये। जिससे कम समय में अधिक से अधिक मकरंद और पराग एकत्र किया जा सके ज्यादा ठंढ होने पर मौन गृहों को नही खोलना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने पर ठण्ड लगने से शिशु मक्खियों के मरने का डर रहता है। साथ ही श्रमिक मधुमक्खियाँ डंक मरने लगती है पर्वतीय क्षेत्रो में अधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर गेहूं के भूंसे या धान के पुवाल से अच्छी तरह मौन गृह को ढक देना चाहिए।
बसंत ऋतु में मौन प्रबंधन :
बसंत ऋतु मधुमक्खियों और मौन पालको के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है। इस समय सभी स्थानों में प्रयाप्त मात्रा में पराग और मकरंद उपलब्ध रहते है जिससे मौनों की संख्या दुगनी बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप शहद का उत्पादन भी बढ़ जाता है। इस समय देख रेख की आवश्यकता उतनी ही पड़ती है जितनी अन्य मौसमो में होती है शरद ऋतु समाप्त होने पर धीरे धीरे मौन गृह की पैकिंग ( टाट, पट्टी और पुरल के छापर इत्यादि) हटा देना चाहिए। मौन गृहों को खाली कर उनकी अच्छी तरह से खाली कर उनकी अच्छी तरह से सफाई कर लेना चाहिए। पेंदी पर लगे मौन को भलीभांति खुरच कर हट देना चाहिए संम्भव हो तो ५०० ग्राम का प्रयोग दरारों में करना चाहिए जिससे कि माईट को मारा जा सके। मौन गृहों पर बहार से सफेद पेंट लगा देना चाहिए। जिससे बहार से आने वाली गर्मी में मौन गृहों का तापमान कम रह सके ।
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बसंत ऋतु प्रारम्भ में मौन वंशो को कृत्रिम भोजन देने से उनकी संख्या और क्षमता बढती है। जिससे अधिक से अधिक उत्पादन लिया जा सके। रानी यदि पुरानि हो गयी हो तो उसे मरकर अंडे वाला फ्रेम दे देना चाहिए। जिससे दुसरे वाला सृजन शुरू कर दे यदि मौन गृह में मौन की संख्या बढ़ गयी हों तो मोम लगा हुआ अतिरिक्त फ्रेम देना चाहिए। जिससे की मधुमक्खियाँ छत्ते बना सके यदि छत्तों में शहद भर गया हो तो मधु निष्कासन यंत्र से शहद को निकल लेना चाहिए। जिससे मधुमक्खियां अधिक क्षमता के साथ कार्य कर सके यदि नरो की संख्या बढ़ गयी हो तो नर प्रपंच लगा कर इनकी संख्या को नियंत्रित कर देना चाहिए।
ग्रीष्म ऋतु में मौन प्रबंधन :
ग्रीष्म ऋतु में मौनो की देख भाल ज्यादा जरुरी होता है जिन क्षेत्रो में तापमान 400 सेंटीग्रेट से उपर तक पहुचना है। वहां पर मौन गृहों को किसी छायादार स्थान पर रखना चाहिए। लेकिन सुबह की सूर्य की रौशनी मौन गृहों पर पदनी आवश्यक है जिससे मधुमक्खियाँ सुबह से ही सक्रीय होकर अपना कार्य करना प्रारम्भ कर सके इस समय कुछ स्थानों जहाँ पर बरसीम, सूर्यमुखी इत्यादि की खेती होती है। वहां पर मधुस्त्रव का समय भी हो सकता है। जिससे शहद उत्पदान किया जा सकता है । इस समय मधुमक्खियों को साफ और बहते हुए पानी की आवश्यकता होती है। इसलिए पानी को उचित व्यवस्था मधुवातिका के आस पास होना चाहिये मौनो को लू से बचने के लिए छ्प्पर का प्रयोग करना चाहिये जिससे गर्म हवा सीधे मौन गृहों के अंदर न घुस सके अतिरिक्त फ्रेम को बाहर निकल कर उचित भण्डारण करना चाहिये।
जिससे मोमी पतंगा के प्रकोप से बचाया जा सके मौन वाटिका में यदि छायादार स्थान न हो तो बक्से के उपर छप्पर या पुआल डालकर उसे सुबह शाम भिगोते रहना चाहिये। जिससे मौन गृह का तापमान कम बना रहे कृत्रिम भोजन के रूप में ५०रू५० के अनुपात में चीनी और पानी के उबल कर ठंडा होने अपर मौन गृह के अंदर कटोरी या फीडर में रखना चाहिये। मौन गृह के स्टैंड की कटोरियों में प्रतिदिन साफ और तजा पानी डालना चाहिए। यदि मौनो की संख्या ज्यादा बढ़ने लगे तो अतिरिक्त फ्रेम डालना चाहिए।
वर्षा ऋतु में मौन प्रबंधन –
वर्षा ऋतु में तेज वर्षा, हवा और शत्रुओं जैसे चींटियाँ, मोमी पतंगा, पक्षियों का प्रकोप होता है मोमि पतंगों के प्रकोप को रोकने के लिए छतो को हटा दे फ्लोर बोड को साफ करे तथा गंधक पाउडर छिडके चीटो को रोकथाम के लिए स्टैंड को पानी भरा बर्तन में रखे तथा पानी में दो तिन बूंदें काले तेल की डाले मोमी पतंगों से प्रभावित छत्ते, पुराने काले छत्ते एवं फफूंद लगे छत्तों को निकल कर अलग कर देना चाहिए।
मधुमक्खी परिवारों का विभाजन एवं जोड़ना-
विभाजन:
अच्छे मौसम में मधुमक्खियों की संख्या बढती है तो मधुमक्खी परिवारों का विभाजन करना चाहिये। ऐसा न किये जाने पर मक्खियाँ घर छोड़कर भाग सकती है। विभाजन के लिए मूल परिवार के पास दूसरा खाली बक्सा रखे तथा मूल मधुमक्खी परिवार से ५० प्रतिशत ब्रुड, शहद व पराग वाले फ्रेम रखे रानी वाला फ्रेम भी नये बक्से में रखे मूल बक्से में यदि रानी कोष्ठ हो तो अच्छा है अन्यथा कमेरी मक्खियाँ स्वयं रानी कोष्ठक बना लेगी तथा १६ दिन बाद रानी बन जाएगी। दोनों बक्सों को रोज एक फीट एक दुसरे से दूर करते जाये और नया बक्सा तैयार हो जायेगा।
जोड़ना –
जब मधुमाखी परिवार कमजोर हो और रानी रहित हो तो ऐसे परिवार को दुसरे परिवार में जोड़ दिया जाता है। इसके लिए एक अखबार में छोटे छोटे छेद बनाकर रानी वाले परिवार के शिशु खण्ड के उपर रख लेते है। तथा मिलाने वाले परिवार के फ्रेम एक सुपर में लगाकर इसे रानी वाले परिवार के उपर रख दिया जाता है। अखबार के उपर थोडा शहद छिडक दिया जाता है जिससे १०-१२ घंटों में दोनों परिवारों की गंध आपस में मिल जाती है। बाद में सुपर और अखबार को हटाकर फ्रेमो को शिशु खण्ड में रखा जाता है।
मधुमक्खी परिवार स्थानान्तरण –
मधुमक्खी परिवार का स्थानान्तरण करते समय निम्न सुचनाए ध्यान रखें-
1- स्थानांतरण की जगह पहले से ही सुनिश्चित करें ।
2- स्थानांतरण की जगह दुरी पर हो तो मौन गृह में भोजन का प्रयाप्त व्यवस्था करें ।
3- प्रवेश द्वार पर लोहे की जाली लगा दें तथा छत्तों में अधिक शहद हो तो उसे निकल लें और बक्सो को बोरी से कील लगाकर सील कर दें।
4- बक्सों को गाड़ी में लम्बाई की दिशा में रखें तथा परिवहन में कम से कम झटके लें ताकि छत्ते में क्षति न पहुचे ।
5- गर्मी में स्थनान्तरण करते समय बक्सों के उपर पानी छिडकते रहे और यात्रा रत के समय ही करें।
6- नई जगह पर बक्सों को लगभग ८-१० फुट की दुरी पर तथा मुंह पूर्व -पश्चिम दिशा की तरफ रखें ।
7- पहले दिन बक्सों की निरिक्षण न करें दुसरे दिन धुंआ देने के बाद मक्खियाँ की जाँच करनी चाहिये तथा सफाई कर देनी चाहिए।
शहद व मोम निष्कासन व प्रसंस्करण:
मधुमक्खी पालन का मुख्य उद्देश्य शहद एवं मोम उत्पादन करना होता है। बक्सों में स्थित छत्तों में ७५-८० प्रतिशत कोष्ठ मक्खियों द्वारा मोमी टोपी से बंद कर देने पर उनसे शहद निकाला जाए इन बंद कोष्ठों से निकाला गया शहद परिपक्व होता है। बिना मोमी टोपी के बंद कोष्ठों का शहद अपरिपक्व होता है जिनमे पानी की मात्रता अधिक होती है। मधु निष्कासन का कार्य साफ मौसम में दिन में छत्तों के चुनाव से आरम्भ करके शाम के समय शहद निष्कासन प्रक्रिया आरम्भ करना चाहिए। अन्यथा मखियाँ इस कार्य में बाधा उत्पन्न करती है।
शहद से भरे छत्तों को बक्से में रख कर ऐसे सभी बक्सों का कमरे या खेत में बड़ी मच्छरदानी के अंदर रखकर मधु निष्कासन करना चाहिए। अब छीलन चाकू को गर्म पानी में डुबोकर एवं कपडे से पोंछकर चाटते से मोम की टोपियाँ हटा देनी है। छत्ते को शहद निकलने वाली मशीन में रखकर यंत्र को घुमाकर कर बारी बारी से छत्तों को पलटकर दोनों ओर से शाहद निकला जाता है। इस शहद को मशीन से निकलकर टंकी में लगभग ४८ घंटे तक पड़ा रहने देते है। ऐसा करने पर शहद में मिले हवा के बुलबुले तथा मोम इत्यादि शहद की उपरी सतह पर तथा मैली वस्तुएं पेंदी पर बैठ जाती है। शहद को पतले कपडे से छानकर स्वच्छ एवं सुखी बोतलों में भरकर बेचा जा सकता है।
शहद प्रसंस्करण (घरेलु विधि):
इस प्रकार निष्कासित शहद में अशुधियां जैसे पानी की अधिक मात्रा, पराग, मोम एवं कीट के कुछ बहग रह सकती है। इस अशुद्धियाँ हटाने के लिए शहद का प्रसंस्करण जरुरी होता है। इसके लिए बड़े गंज में पानी रखकर गर्म किया जाता है। तथा छोटे कपडे से छान शहद रखते है। शहद को चम्मच द्वारा हिलाते रहे ताकि सारा शहद एक समान गर्म हो जब शहद ६०० सेन्टीग्रेट तक गर्म हो जाए तब शहद वाले बर्तन पानी वाले बर्तन से अलग कर देते है।
इस गर्म किये गए शहद की बारीक छलनी द्वारा छानकर टोंटी लगे स्टील के ड्रम में भर देते है। जब शहद ठंडा हो जाये तो उसके उपर जमी मोम के पारत को करछी से हटा कर टोंटी द्वारा शहद को बोतलों में भरे लिया जाता है।
मोम का निष्कासन एवं प्रसंस्करण:
पुराने छत्तों से मोम काटकर उबलते पानी में डाल कर पिघला लेते है। उपर तैरते हुए मोम को निकल लिया जाता है इस मोम को साफ करने हेतु 2-3 बार शहद पानी में पिघलाकर ठंडा कर लेते है। प्रत्येक बार जमे हुए मोम की तलहटी पर लगी गन्दी चाकू से काटकर अलग करते रहना चाहिए।
मधुमक्खियों के भोजन स्त्रोत
जनवरी : सरसों, तोरियाँ, कुसुम, चना, मटर, राजमा, अनार, अमरुद, कटहल, यूकेलिप्टस इत्यादि।
फरवरी : सरसों, तोरियाँ, कुसुम, चना ,मटर, राजमा, अनार, अमरुद, कटहल, यूकेलिप्टस, प्याज, धनिया, शीशम इत्यादि।
मार्च : कुसुम, सूर्यमुखी, अलसी, बरसीम, अरहर, मेथी, मटर, भिन्डी, धनियाँ, आंवला, निम्बू, जंगली जलेबी, शीशम, यूकेलिप्टस, नीम इत्यादि।
अप्रैल : सूरजमुखी, बरसीम, अरण्डी, रामतिल, भिन्डी, मिर्च, सेम, तरबूज, खरबूज, करेला, लोकी, जामुन, नीम, अमलतास इत्यादि।
मई: तिल, मक्का, सूरजमुखी, बरसीम, तरबूज, खरबूज, खीरा, करेला, लोकी, इमली, कद्दू, करंज, अर्जुन, अमलतास इत्यादि।
जून : तिल, मक्का, सूरजमुखी, बरसीम, तरबूज, खरबूज, खीरा, करेला, लोकी, इमली, कद्दू, बबुल, अर्जुन, अमलतास इत्यादि।
जुलाई : ज्वार, मक्का, बाजरा, करेला, खिरा, लोकी, भिन्डी, पपीता इत्यादि।
अगस्त: ज्वार, मक्का, सियाबिन, मुंग, धान, टमाटर, बबुल, आंवला, कचनार, खिरा, भिन्डी, पपीता इत्यादि।
सितम्बर: बाजारा, सनई, अरहर, सोयाबीन, मुंग, धान, रामतिल, टमाटर, बरबटी, भिन्डी, कचनार, बेर इत्यादि।
अक्टूबर: सनई, अरहर, धान, अरण्डी, रामतिल, यूकेलिप्टस, कचनार, बेर, बबूल इत्यादि।
नवम्बर : सरसों, तोरियां, मटर, अमरुद, शह्जन, बेर, यूकेलिप्टस, बोटलब्रश इत्यादि।
दिसम्बर; सरसों, तोरियाँ, राइ, चना, मटर, यूकेलिप्टस, अमरुद इत्यादि।
मधुमक्खियों में होने वाली बीमारियों की रोकथाम –
मधुमक्खियों के सफल प्रबंधन के लिए यह आवश्यक है। की उनमे लगने वाली बिमारियों और उनके शत्रुओं के बारे में पूर्ण जानकारी होनी आवश्यक है। जिससे उनसे होने क्षति को बचाकर शहद उत्पादन और आय में आशातीत बढ़ोतरी की जा सकती है। मधुमक्खी एक सामाजिक प्राणी होने के कारण यह समूह में रहती है। जिससे इनमे बीमारी फैलने वाले सूक्ष्म जीवो का संक्रमण बहुत तेजी से होता है। इनके विषय में उचित जानकारी के माध्यम से इससे अपूर्णीय क्षति हो सकती है बिमारियों के अलावा इनके अनेकों शत्रु होते है जो सभी रूप से मौन वंशो को नुकसान पहुचाते है।
मधुमक्खी पालन में नाशीजीव प्रबंधन –
यूरोपियन फाउलबु्रड :-
यह एक जीवाणु मैलिसोकोकस प्ल्युटान से होने वाला एक संक्रामक रोग है। इसका रंग गहरा होता है तथा इनसे प्रौढ़ मक्खी भी नही निकलती है। इस बीमारी की पहचान के लिए एक माचिस की तिल्ली को लेकर मरे हुए डिम्भक के शरीर में चुभोकर बहर की ओर खींचने पर एक धान्गनुमा संरचना बनती है। जिसके आधर पर इस बीमारी की पहचान की जा सकती है ।
रोकथाम : प्रभावित वंशो को मधु वाटिका से अलग कर देना चाहिए प्रभावित वंशों के फ्रेम और अन्य समान का संपर्क किसी दुसरे स्वस्थ वंश से नही होने देना चाहिए। प्रभावित मौन वंश को रानी विहीन कर देना चाहिये। तथा कुछ महीनो बाद रानी देना चाहिये। संक्रमित छत्तों का इस्तेमाल नही करना चाहिय। बल्कि उन्हें पिघलाकर मोम बना देना चाहिए संक्रमित वंशो को टेरामईसिन की २४० मि.लि.ग्रा. मात्रा प्रति 5 लिटर चीनी के घोल के साथ ओक्सीटेट्रासईक्लिन 3.25 मि.ग्रा. प्रति गैलन के हिसाब से देना चाहिये।
अमेरिकन फाउलबु्रड :
यह भी एक जीवाणु बैसिलस लारवी के द्वारा होने वाला एक संक्रामक रोग है। जो यूरोपियन फाउलवूड के समान होता है यह बीमारी कोष्ठक बंद होने के पहले ही लगती है जिसे कोष्ठक बंद ही नही होते यदि बंद भी हो जाते है तो उनके ढक्कन में छिद्र देखे जा सकते है। इसके अंदर मर हुआ डीम्भक भी देखा जा सकता है। जिससे सडी हुई मछली जैसी दुर्गन्ध आती है इनका आक्रमण गर्मियों में या उसके बाद होता है।
रोकथाम : प्रभावित वंशो को मधु वाटिका से अलग कर देना चाहिए प्रभावित वंशों के फ्रेम और अन्य समान का संपर्क किसी दुसरे स्वस्थ वंश से नही होने देना चाहिए। प्रभावित मौन वंश को रानी विहीन कर देना चाहिये। तथा कुछ महीनो बाद रानी देना चाहिये। संक्रमित छत्तों का इस्तेमाल नही करना चाहिय। बल्कि उन्हें पिघलाकर मोम बना देना चाहिए संक्रमित वंशो को टेरामईसिन की 240 मि.लि.ग्रा. मात्रा प्रति 5 लिटर चीनी के घोल के साथ ओक्सीटेट्रासईक्लिन 3.25 मि.ग्रा. प्रति गैलन के हिसाब से देना चाहिये।
नोसेमा रोग :
यह एक प्रोटोजवा नोसेमा एपिस से होता है इस बीमारी से मधुमक्खियो की पहचान व्यवस्था बिगड़ जाती है। रोगग्रसित मधुमक्खियाँ पराग की अपेक्षा केवल मकरंद ही एकत्र करना पसंद करती है। ग्रसित रानी नर सदस्य ही पैदा करती है तथा कुछ समय बाद मर भी सकती है। जब मधुमक्खियों में पेचिस, थकान, रेंगने तथा बाहर समूह बनाने जैसे लक्षण दिखे तो इस रोग का प्रकोप समझना चाहिए।
रोकथाम : फ्युमिजिलिन-बी का 0-5 से 3 मि.ग्रा. मात्रा प्रति 100 मि.लि. घोल के साथ मिला कर देना चाहिए। वाईसईकलो हेक्साईल अमोनियम प्युमिजिल भी प्रभावकारी औषध है।
सैकब्रूड :
यह रोग भारतीय मौन प्रजातियों में बहुतायात में पाया जाता है। यह एक विषाणु जनित रोग है जो संक्रमण से फैलता है। संक्रमित वंशों के कोष्ठको में डिम्भक खुले अवस्था में ही मर जाते ह।ै या बंद कोष्ठको में दो छिद्र बने होते है इससे ग्रसित डिम्भको का रंग हल्का पिला होता है अंत में इसमें थैलिनुमा आकृति बन जाती है।
तिल की खेती : तिल की उन्नत उत्पादन तकनीक
रोकथाम : एक बार इस बिमरी का संक्रमण होने के बाद इसकी रोकथाम बहुत कठिन हो जाती है। इसका कोई कारगर उपोय नही है संक्रमण होने पर प्रभावित वंशों को मधु वाटिका से हटा देना चाहिए। तथा संक्रमित वंशो में प्रयुक्त औजारो या मौन्ग्रिः का कोई भी भाग दुसरे वंशो तक नही ले जाने देना चाहिए। वंशो को कुछ समय रानी विहीन कर देना चाहिए। टेरामईसिन की 250 मि. ग्रा. मात्रा प्रति 4 लिटर चीनी के घोल में मिलकर खिलाया जाये तो रोग का नियंत्रण हो जाता है। गंभीर रूप से प्रभावित वंशो को नष्ट कर देना चाहिए।
एकेराईन :
यह आठ पैरो वाला बहुत ही छोटा जीव है जो कई तरह से मधुमक्खियों को नुकसान पहुंचता है। इस रोग में श्रमिक मधुमक्खियाँ मौन गृह के बहर एकत्रित होती है। इनके पंख कमजोर हो जाते है जिससे ये उड़ नही पाती है या उड़ते उड़ते गिर जाती है। और दोबारा नही उड़ पाती है इसका प्रकोप होने पर संक्रमित वंशों को अलग कर गंधक का धुंआ देना चाहिए। गंधक की 200 मि. ग्रा. मात्रा प्रति फ्रेम के हिसाब से बुरकाव करना चाहिए। डिमाईट या क्लोरोबेन्जिलेट जो क्रमशः पीके और फल्बेकस के नाम से बाजार में आता है को धुंए के रूप में देना चाहिए।
यह अष्टपादी जीव कछुए के आकार का होता है। जो मधुमक्खी के वाह्य परजीवी के रूप में नुकसान पहुचता है प्रौढ़ मादा अष्टपानी ५ दिन पुराने मौन लारवा वाले खण्ड में 2 से 4 अंडे देती है जिनमे एक या दो दिन बाद कोष्ठक बंद हो जाते है। इसके ठीक बाद माईट के अन्डो से निम्फ निकलते है। और मधुमक्खी के लारवा पर भोजन लेकर उसे कमजोर बना देते है या अपांग बनाकर उसे मार देते है। इस अष्टपादी का ज्यादा प्रकोप होने पर नए श्रमिक बनने बंद हो जाते है। जिससे मौन वंश कमजोर हो जाते है जिससे कुछ समय बाद पूरा वंश समाप्त हो जाता है।
रोकथाम : प्रायः ऐसा देखने में आता है की मौनपालक जाने अनजाने मौनो को बचने के लिए जहरीले रसायनों का प्रयोग करते है जिससे काफी मात्रा में मौन मर जाती है। परिणामस्वरुप मौन पलकों को लाभ के बजे नुकसान उठाना पड़ता है इनके प्रबंध के लिए निम्नलिखित उपाय करनी चाहिए ऐसे मौन गृह से फ्रेम की संख्या कम कर देना चाहिए। साथी ही मौन गृह में मधुमक्खियों की संख्या बढ़ाने के उपाय करना चाहिए नर कोष्ठक वाले फ्रेम को बाहर निकाल देना चाहिए। तथा उसमे उपस्थित सभी नर शिशुओं को मार देना चाहिए। तथा दोबारा इस फ्रेम को मौन परिवार में नहीं देना चाहिए। सल्फर का ५ ग्राम पाउडर प्रति वंश के हिसाब से एक सप्ताह के अंतर पर बुरकाव करना चाहिए। फार्मिक एसिड की एक मि.लि. मात्रा एक छोटी प्लास्टिक की शीशी में डाल कर उसके ढक्कन में एक बारीक सुराख बनाकर प्रत्येक मौन गृह में रख देना चाहिए। साथ ही मौन गृह में भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करना चाहिए।
ट्रोपीलेइलेप्स क्लेरी :
यह माईट जंगली मधुमक्खी या सारंग मौन का मुख्या रूप से परजीवी है इसका प्रकोप इटैलियन प्रजाति में भी होता है। प्रभावित वंश में प्युपा की अवस्था में बंद कोष्ठक में छिद्र देखे जा सकते है। कुछ प्यूपा मर जाते है जिनको साफ कर दिया जाता है जिससे कोष्ठक खाली हो जाते है। तथा जो डिम्भक बच जाते है उनका विकास विकृत हो जाता है। जैसे पंख, पैर या उदर का अपूर्ण विकास होना इसका लक्षण माना जाता है।
रोकथाम : एकेराईन बीमारी की तरह ही इसकी रोकथाम की जाती है।
वरोआ माईट :
सर्वप्रथम यह माईट भारतीय मौन में ही प्रकाश में आई थी लेकिन अब यह मेलिफेरा में भी देखी जाती है। इसका आकार 1.2 से 1.6 मि.मी. है यह बाह्यपरजीवी है जो वक्ष और उदर के बिच से मौन का रक्त चुसती है मादा माईट कोष्ठक बंद होने से पहले ही इसमें घुसकर 2 से 5 अंडे देती है जिससे 24 घंटे में शिशु लारवा निकलता है तथा 48 घंटे में यह प्रोटोनिम्फ में बदल जाता है ।
नियंत्रण : फार्मिक एसिड की 5 मि.लि. प्रतिदिन तलपट में लगाने से इसका नियंत्रण हो जाता है। अन्य उपाय इकेरमाईट के तरह ही करनी चाहिए।
मधुमक्खी पालन में लगने वाले कीट –
मोमी पतंगा :
यह पतंगा मधुमक्खी वंश का बहुत बड़ा शत्रु है यह छतो की मोम को अनियमित आकार का सुरंग बनाकर खाता रहता है अंदर ही अंदर छत्ता खोखला हो जाता है। जिससे मधुमक्खियाँ छत्ता छोड़कर भाग जाती है इनके द्वारा सुरंगों के उपर टेढ़ी मेढ़ी मकड़ी के जाल जैसे संरचना देखी जा सकती है। इनके प्रकोप की आशंका होने पर छतो को 5 मिनट के लिए तेज धुप में रख देना चाहिये। जिससे इनके उपस्थित मोमी पतंगा की सुंडियां बाहर आकार धुप में मर जाती है। इस प्रकार इसके प्रकोप का आसानी से पता चल जाता है साथ ही सुडिया नष्ट हो जाती है ।
रोकथाम : इसका प्रकोप वर्ष के दिनों में जब मधुमक्खियो की संख्या कम हो जाती है जब होता हैं। जब मौन ग्रगो में आवश्कता से अधिक फ्रेम होते है तो इसके प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए अतिरिक्त फ्रेम को मौन गृहों से बहार उचित स्थान पर भंडारित करना चाहिए वर्ष में प्रवेश द्वार संकरा कर देना चाहिए। मौन गृह में प्रवेश द्वार के अलावा अन्य दरारों को अबंद कर देना चाहिए। कमजोर वंशो को शक्तिशाली वंशो के साथ मिला देना चाहिए।
शहद पतंगा यह बड़े आकार का पतंगा होता है। जिसका वैज्ञानिक नाम एकेरोंशिया स्टीवस है यह मौन गृहों में घुस कर शहद खाता है अधिकतर मधुमक्खियां इस पतंगे को मार देती है इस कीट से ज्यादा नुकसान नहीं होता है।
चींटियाँ :
इनका प्रकोप गर्मी और वर्ष ऋतु में अधिक होता है जब वंश कमजोर हो तो इनका नुकसान बढ़ जाता है। इनसे बचाव के लिए स्टैंड के कटोरियों में पानी भरकर उसमे कुछ बूंद किरोसिन आयल भी डाल देनी चाहिए। जिससे चींटियो को मौन गृहों पर चढ़ने से बचाया जा सके।
एक नहीं अनेक फायदे है मधुमक्खी पालन में –
मधुमक्खी पालन से शहद के अलावा मोम, प्रोपोलिस,बी वैनम, पराग व रायल जैली प्राप्त होने के साथ-साथ फसल उत्पादन में भी वृद्धि होती है । मधुमक्खी पालन से होने वाली मुख्य लाभ इस प्रकार से है ।
बहुमूल्य शहद:
प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ खाध्य पदार्थ मधु यानि शहद प्रदान करने का श्रेय मधुमक्खियों को ही जाता है। नियोजित तरीके से मधुमक्खी पालन करने से अधिक मात्रा में शहद उत्पादन कर आर्थिक लाभ अर्जित किया जा सकता है। शहद यानि मधु अपने आप में एक संतुलित व पौष्टिक प्राकृतिक आहार है। शहद में मिठास ग्लुकोज, सुक्रोज एवं फ्रुक्टोज के कारण है।
शहद में पाए जाने वाले पोषक तत्व –
एक चम्मच मधु से 100 कैलोरी उर्जा प्राप्त होती है इसके अलावा प्रोटीन की मात्रा 1-2 प्रतिशत होती है और न केवल प्रोटीन ब्लकि 18 तरह के अमीनो एसिड भी मौजूद होते हैं जो ऊत्तकों के निर्माण एवं हमारे शरीर के विकास में महत्वपूर्ण भुमिका निभाते है। मधु में कई तरह के विटामीन जैसे – बी-1, बी-2 व सी के अलावा अनेक प्रकार के खनिज जैसे पौटेशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, आयरन आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते है।
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मधु रक्त वर्धक, रक्त शोधक तथा आयुवर्धक अमृत है। आयुर्वेद में मधु को योगवाही कहा जाता है। आज अमूमन 80 प्रतिशत दवाईयों में मधु का इस्तेमाल किया जा रहा है। बेकरी कनफेक्सनरी उद्योग में भी मधु का उपयोग हो रहा है जैसे मधु जैम और जैली व स्कवैस में भी मधु डालकर उसकी गुणवत्ता को बढाया जाता है। इसी प्रकार से से टॉफी, आइसक्रीम एंव कैन्डी आदि विभिन्न प्रकार की कनफेक्सनरी उद्योगों में भी मधु का बहुत तेजी से उपयोग बढ़ता जा रहा है । शहद के निर्यात से भारत को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा अर्जित होती है।
मोम उत्पादन :
मोम उत्पादन, मधुमक्खी पालन उद्योग का एक उप-उत्पादन है। यह शहद के छत्तों से मधु निष्कासन के समय प्राप्त छिल्लन और टेढ़े छत्तों से प्राप्त किया जाता है। एक वंश से 200-300 ग्राम तक मोम प्रति वर्ष प्राप्त की जाती है। मोम का इस्तेमाल मोमबत्ती, औषधियां, पोलिश, पेंट तथा वार्निश बनाने में किया जाता है।
फसल उत्पादन में इजाफा:
फसलों एवं पेड़ पौधों में परागण क्रिया में मधुमक्खियों का बहुत बड़ा सहयोग होता है। मधुमक्खियों द्वारा पौधां में लगभग 80 से 90 प्रतिशत परागण होता है। मधुमक्खी फूलों पर भ्रमण एवं परागण करती है। इस विशेषता के कारण सब्जियों, फलों तथा तिलहन फसलों के उत्पादन में भारी वृद्धि होती है।
मधुमक्खी पालन में ध्यान रखने वाली बातें –
– मधुमक्खियों के परिवार को मौसम के अनुसार गर्मियों में छायादार स्थान में रखें एवं सर्दियों में धूप में रखें तथा मौन फ़ार्म के पास शुद्ध पानी का उचित प्रबंध रखें. बरसात के दिनों में मौन परिवारों को गहरी छाया में न रखें. इन्हें हमेशा ऊंचे स्थानों पर रखें जिससे वर्षा का पानी मौन परिवारों तक न पहुंचे.
– बरसात के दिनों में मौन परिवारों के द्वार (गेट) छोटे रखें जिससे सिर्फ दो मक्खियाँ आ-जा सके बाकी हिस्सा बंद कर दे ताकि मक्खियों में लूट-मार की समस्या नहीं होगी.
– बरसात (जुलाई से सितम्बर) में मौन परिवार के पास ततैया के छत्ते न बनने दें. ततैया दिखने पर उन्हें कीटनाशकों के छिडकाव से नष्ट कर दें.
– मौन परिवारों में नई रानी मधुमक्खी का होना आवश्यक है.इसके लिए माह फरवरी-मार्च में पुरानी रानियों को मारकर नई रानियाँ तैयार करें. नई रानियाँ पुरानी के मुकाबले अधिक अंडे देती है जिससे मधुमक्खी के परिवार में वर्कर मक्खियों की अधिक संख्या बनी रहती है.
– मौन बक्सों को ऐसे स्थानों पर रखें जहां भरपूर मात्रा में नैक्टर व पराग ( फूल वाले पेड़ पौधे, फसलें) उपलब्ध हो.
– मौन परिवारों के लिए जब भरपूर मात्रा में नैक्टर न हो तो शक्कर का कृत्रिम भोजन के रूप में 50 प्रतिशत घोल रात्रि में रखें.