अफीम/खसखस/पोस्त का पौधा Papaver somniferum एक बहुत ही महतवपूर्ण औषधीय पौधा है । पोस्त फूल देने वाला एक पौधा है जो पापी कुल का है । इसके उत्पाद जैसे अफीम और कोडीन महत्वपूर्ण दवाएं हैं जो की दर्द कम करने और कृत्रिम निद्रावस्था के लिए उपयोग की जाती हैं । अफीम के एक अर्ध सिंथेटिक उत्पाद जो हेरोइन के नाम से जाना जाता है ने दुनिया की व्यापक सामाजिक समस्याओं को जन्म दिया है। भारत में इसकी खेती मध्य प्रदेश, राजस्थान और यू.पी. तक ही सीमित है।
पोस्त भूमध्यसागर प्रदेश का देशज माना जाता है। यहाँ से इसका प्रचार सब ओर हुआ. इसकी खेती भारत, चीन, एशिया माइनर, तुर्की आदि देशों में मुख्यत: होती है । पोस्त की खेती एवं व्यापार करने के लिये सरकार के आबकारी विभाग से अनुमति लेना आवश्यक है । पोस्ते के पौधे से अहिफेन यानि अफीम निकलती है,जो नशीली होती है ।
डोडे में लगे चीरे से जो दूध निकलता है वही अफीम कहलाता है। बुवाई होने के बाद से चीरा लगने एवं तुलाई नहीं होने तक किसानों की कड़ी मेहनत होती है। डोड़े तैयार होने के बाद विशेष औजार के द्वारा इनको चीरा लगाकर उससे निकलने वाले दूध को भी विशेष तरीके से एकत्रित किया जाता है। यही एकत्रित दूध काला सोना यानि अफीम होती है जो कि एक निर्धारित मात्रा में इकट्ठी कर नारकोटिक्स विभाग को तुलवाई जाती है। मादक पदार्थ की श्रेणी में आने के कारण इस अफीम की सुरक्षा इंतजाम को लेकर काश्तकारों में विशेष चिंता नजर आती है।
अफीम/खसखस/पोस्त के पौधे की जानकारी –
– अफीम/खसखस/पोस्त वैज्ञानिक नाम : Papaver somniferum L.
– परिवार: Papaveraceae
– जन्म स्थान : Western Mediterranean Region
– उपयोगी हिस्सा : डोडे (फल) से निकलने वाला सफ़ेद दुधिया द्रव्य
Papaver somniferum एक सीधा बढ़ने वाला पौधा है जिसमे शाखाए नही होती या बहुत ही कम होती होती है ! इसका रंग सलेटी नीला-हरा होता है । अफीम के पौधे की ऊंचाई 60 से 120 cm होती है । इसकी पत्तियाँ ओवेट, आयताकार या रैखिक आयताकार होती हैं। इसके फूल बड़े आकार के हलके नीले रंग के होते है जिसका आधार बैंगनी या सफ़ेद या भिन्न प्रकार का होता है। अफीम कैप्सुलर प्रकार के फलों का उत्पादन करता है जिसको डोडा या डोडे भी कहा जाता है जिनमें चीरा देने पर द्रव्य पदार्थ (लेटेक्स) निकलता है जिसको अफीम के रूप में जाना जाता है। डोडे (फल) आकार में लगभग 2.5 सेंटीमीटर तथा गोलाकार होते हैं। इसके बीज सफेद या काले रंग के और लगभग एक जैसे होते हैं। हालाँकि अफीम के पौधे के हर हिस्से से सफ़ेद दुधिया पदार्थ मिलता है लेकिन इसके कैप्सूल(फल) में अधिक मात्रा में सफ़ेद लेटेक्स मिलता है ।
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अफीम की खेती की ओर लोग सबसे ज्यादा आकर्षित होते हैं. वजह सीधी सी है. और वो है बहुत ही कम लागत में छप्पर फाड़ कमाई होना. वैसे तो देश में अफीम की खेती गैरकानूनी है लेकिन अगर इसे नारकोटिक्स विभाग से स्वीकृति लेकर किया जाए,तो फिर आपको कोई डर नहीं.
अफीम की खेती के लाइसेंस कैसे प्राप्त करें
भारत कानूनी रूप से अफीम और कानूनी रूप से अफीम गम पैदा करता है जो केवल देश विकसित है कि कुछ देशों में से एक है। अफीम (पेपॅवर ऊंघता) संयंत्र ऐसे अफ़ीम, कोडीन और थेबेन के रूप में कई अपरिहार्य एल्कलॉइड होता है जो अफीम गम का स्रोत है। अफ़ीम दुनिया में सबसे अच्छा एनाल्जेसिक है। ऐसे बीमार कैंसर रोगियों के रूप में है कि अतिवादी और कष्टदायी दर्द के मामले में कुछ भी नहीं अफ़ीम सिवाय दुख दूर करता। कौडीन आमतौर पर खांसी सिरप के निर्माण में प्रयोग किया जाता है ।
एनडीपीएस एक्ट की अनुमति और मेडिकल और वैज्ञानिक उद्देश्यों के लिए अफीम की खेती को विनियमित करने के लिए केन्द्र सरकार कर सकती है। भारत सरकार ने अफीम की खेती के लिए हर साल लाइसेंस जारी करने के लिए सामान्य शर्तों के रूप में के रूप में अच्छी तरह से लाइसेंस प्राप्त किया जा सकता है, जहां इलाकों सूचित करता है। इन सूचनाओं सामान्यतः अफीम नीतियों के रूप में करने के लिए भेजा जाता है। अफीम की खेती मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश राज्यों में अधिसूचित इलाकों में अनुमति दी है। सामान्य शर्तों, दूसरों के बीच में, एक न्यूनतम अर्हक यील्ड (एम क्यु वाई), इन तीन राज्यों में से प्रत्येक के कृषकों द्वारा प्रस्तुत किए जाने की सफल वर्ष में लाइसेंस के लिए पात्र होने के लिए शामिल हैं।
नारकोटिक्स आयुक्त के तहत नारकोटिक्स की केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीएन), ग्वालियर (मध्य प्रदेश) अफीम की खेती करने के लिए किसानों को लाइसेंस जारी करता है। हर कृषक के प्रत्येक क्षेत्र को व्यक्तिगत रूप से वे लाइसेंस प्राप्त क्षेत्र से अधिक नहीं है कि यह सुनिश्चित करने के सीबीएन के अधिकारियों द्वारा मापा जाता है। किसान सीबीएन करने के लिए उत्पादन के लिए अपनी पूरी अफीम निविदा के लिए आवश्यक हैं और वे सरकार द्वारा तय की दरों पर एक मूल्य भुगतान कर रहे हैं।
किसान भई अफ़ीम की खेती के लिए लाइसेंस प्राप्त करने के लिए भारत सरकार की राजस्व विभाग की वेबसाइट से अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
जलवायु : अफीम/खसखस/पोस्त की खेती के लिए उपयुक्त मौसम –
यह समशीतोष्ण (ठंडी) जलवायु की फसल है, लेकिन उपोष्णकटिबंधीय (गर्मी वाले) क्षेत्रों में सर्दियों के दौरान सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। ठंडी जलवायु में अधिक उपज होती है लेकिन दिन / रात का अधिक तापमान आम तौर पर उपज को प्रभावित करता है। पाले वाला (फ्रॉस्टी) या अधिक तापमान, बादल या बरसात का मौसम न केवल अफीम उत्पादन को कम करता है, बल्कि गुणवत्ता को भी कम करता है । इसकी खेती के लिए 20-25 डिग्री सेल्सियम तापमान की आवश्यकता होती है ।
भूमि : अफीम की खेती के लिए भूमि का चयन –
खसखस/अफीम की खेती के लिए एक अच्छी जल निकासी वाली, अत्यधिक उपजाऊ, हल्की काली या दोमट मिट्टी जिसकी पीएच 7.0 के आसपास हो उचित होती है । अफीम को प्राय: सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है परन्तु उचित जल निकास एवं पर्याप्त जीवांश पदार्थ वाली मध्यम से गहरी काली मिट्टी हो, तथा जिसमें विगत 5-6 वर्षों से अफीम की खेती नहीं की जा रही हो उपयुक्त मानी जाती है ।
खेत की तैयारी
अफीम का बीज बहुत छोटा होता है अत: खेत की तैयारी का महत्वपूर्ण योगदान होता है । इसलिए खेत की दो बार खड़ी तथा आड़ी जुताई की जाती है। तथा इसी समय 20-30 गाड़ी अच्छी प्रकार से सड़ी गोबर खाद को समान रूप से मिट्टी में मिलाने के बाद पाटा चलाकर खेत को भुरा-भुरा तथा समतल कर लिया जाता है । इसके उपरांत कृषि कार्य की सुविधा के लिए 3 मी. लम्बी तथा 1 मी. चौड़ी आकार की क्यारियां तैयार कर ली जाती हैं ।
अफीम/खसखस/पोस्त की किस्मे –
भारत में बहुत सारी अफीम की लोकल किस्मे उगाई जाती है । अफीम की ये किस्मे पत्तियों की बनावट, फूलो की बनावट तथा डोडे/कैप्सूल(फल) की बनावट में अलग अलग होती है ।
जवाहर अफीम 16, जवाहर अफीम 539, जवाहर अफीम 540, विलियम्स, धोलिया व्यावसायिक खेती के लिए अनुशंसित कुछ स्थानीय जातियाँ हैं ।
बुवाई का समय –
बुवाई का सबसे अच्छा समय अक्टूबर के अंत या नवंबर की शुरुआत में है।
बीज दर तथा बीज उपचार –
कतार में बुवाई करने पर 5-6 कि.ग्रा. तथा छिट्टा विधि या फुकवा बुवाई करने पर 7-8 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है.
अंतरण – spacing
लाइनों के बीच 30 सेमी और पौधों के बीच 30 सेमी की दूरी को आम तौर पर अपनाया जाता है।
अफीम/खसखस/पोस्त की बुवाई –
बीज को या तो छिडकाव विधि से या लाइनों में बोया जाता है। बुवाई से पहले बीज को फफूंदनाशक जैसे डाइथेन एम 45 @ 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित किया जाता है। क्यारियों में समान रूप से छिडकाव सुनिश्चित करने के लिए बीज को आमतौर पर रेत के साथ मिलाकर बोया जाता है। लाइन बुवाई को ज्यादा पसंद किया जाता है क्योंकि छिट्टा विधि में ज्यादा बीज लगता है, फसल का जमाव कम होता है तथा खड़ी फसल में दुसरे कार्य जैसे खरपतवार निकालने आदि में कठिनाई आती हैं।
खाद एवं उर्वरक प्रबंधन –
अफीम/खसखस/पोस्त खाद और उर्वरक डालने पर उल्लेखनीय रूप से प्रतिक्रिया करता है ! देशी खाद या उर्वरक अफीम की उपज और गुणवत्ता दोनों को बढ़ाते हैं। खेत तैयारी के समय फार्म यार्ड खाद 20-30 टन प्रति हेक्टेयर मिलाई जाती है! इसके अलावा 60-80 किलोग्राम नाइट्रोजन तथा 40-50 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की सिफारिश की जाती है। पोटाश डालने की आवशकता कम ही पड़ती है। आधी नाइट्रोजन और पूरे फास्फोरस को बुवाई के समय लगाया जाता है और शेष आधे नाइट्रोजन को रोसेट स्टेज पर दिया जाता है ।
सिंचाई एवं खरपतवार प्रबंधन –
अफीम की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए एक सावधानीपूर्वक सिंचाई प्रबंधन आवश्यक है। एक हल्की सिंचाई बुवाई के तुरंत बाद दी जाती है और 7 दिनों के बाद दूसरी हल्की सिंचाई की जाती है जब बीज अंकुरित होने लगते हैं। फूल आने की अवस्था से पहले तक हर 12 से 15 दिनों के अंतराल पर लगभग तीन सिंचाई की जाती है ! फूलों के आने के समय तथा डोडे (कैप्सूल) बनने के दौरान 8-10 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई की जाती है। आम तौर पर 12 से 15 सिंचाई पूरी फसल अवधि के दौरान दी जाती है। फल आने के समय और लेटेक्स निकालने के चरण के दौरान नमी की कमी उपज को काफी कम कर सकती है। निंदाई-गुड़ाई एवं छटाई की प्रथम क्रिया बुवाई के 25-30 दिनों बाद तथा दूसरी क्रिया 35-40 दिनों बाद रोग व कीटग्रस्त एवं अविकसित पौधे निकालते हुए करनी चाहिए. अन्तिम छटाई 50-50 दिनों बाद पौधे से पौधे की दूरी 8-10 से.मी. तथा प्रति हेक्टेयर 3.50-4.0 लाख पौधे रखते हुए करें ।

चीरा (लांसिंग) और लेटेक्स संग्रह –
अफीम बुवाई के बाद 95 – 115 दिनों में फूल आने शुरू हो जाते है। फूल आने के 3-4 दिन बाद पंखुड़ियां झड़ने लगती हैं। डोडे(कैप्सूल) फूल आने के 15-20 दिनों के बाद पकने शुरू हो जाते हैं। डोडे (कैप्सूल) में चीरा देने में सबसे अधिक द्रव्य(लेटेक्स) इसी स्टेज पर निकालता है। इस स्टेज को पहचानने के लिए डोडे की कठोरता तथा डोडे पर धारियों में हरे रंग से हल्के हरे रंग के बदलाव से देखा जा सकता है। इस स्टेज (चरण) को औद्योगिक परिपक्वता कहा जाता है। चीरा (लांसिंग) तीन से चार समान दुरी पर नोक वाले चाकू से लगाया जा सकता है जो की डोडे में 1-2 मिमी से अधिक नहीं घुसते हैं। बहुत गहरा या बहुत हल्का चीरा उचित नहीं है। प्रत्येक डोडे(कैप्सूल) में दो दिन के अंतराल पर सुबह आठ बजे से पहले चीरा(लैंसिंग) लगाया जा सकता है। चीरे की लंबाई डोडे की लम्बाई से कम या 1/3rd होनी चाहिए।
अफीम कटाई और थ्रैशिंग –
सबसे आख़िर वाले चीरे के बाद जब डोडे से द्रव निकलना बंद हो जाता है तब फसल को 20 से 25 दिन के लिए सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है।
पौधो से डोडे तोड़कर इक्कठे किये जाते है और पौधे को दरांती के साथ काट दिया जाता है। इक्कठे किये हुए डोडे खुले मैदान में सुखाये जाते है और लकड़ी की रॉड से पीटकर बीज निकालकर इकट्ठा किया जाता है।
अफीम की उपज –
कच्ची अफीम की पैदावार 50 से 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक होती है। यह कच्ची अफीम ज्यादातर इसके डोडे(कैप्सुल फल) से मिलती है जिसको लेटेक्स के रूप में इक्कठा किया जाता है।
अफ़ीम की खेती में फसल संरक्षण –
रोमिल फफूंद –
जिस खेत में एक बार रोग हो जाए वहां अगले तीन साल तक अफीम नही बोयें. रोग की रोकथाम हेतु नीम का काढ़ा 500 मिली लीटर प्रति पम्प और माइक्रो झाइम 25 मिली लीटर प्रति पम्प पानी में अच्छी तरह घोलकर के तीन बार कम से कम तर बतर कर छिड़काव करे छिड़काव बुवाई के तीस, पचास, एवं सत्तर दिन के बाद करें.
चूर्णी फफूंद –
फ़रवरी में ढाई किलो गंधक का घुलनशील चूर्ण प्रति हेक्टेयर कि डर से छिड़काव करें.
डोडा लट
फूल आने से पूर्व व डोडा लगने के बाद माइक्रो झाइम 500 मिली लीटर प्रति हेक्टेयर 400 या 500 लीटर पानी में मिलाकर तर बतर कर छिड़काव करे
अफ़ीम की खेती से अधिक उपज के लिए खेती किसनी डॉट ऑर्ग टिप्स –
– बीजोपचार कर बोवनी करे ।
– समय पर बोवनी करे, छनाई समय पर करे-
– फफूंद नाशक एवं कीटनाशक दवाएं निर्घारित मात्रा में उपयोग करें ।
– कली, पुष्प डोडा अवस्थाओं पर सिंचाई अवश्य करे ।
– नक्के ज्यादा गहरा न लगाएं ।
– लूना ठंडे मौसम में ही करें ।
– काली मिस्सी या कोडिया से बचाव के लिए दवा छिड़काव 20-25 दिन पर अवश्य करे ।
– हमेशा अच्छे बीज का उपयोग करे ।
– समस्या आने पर तुरंत रोगग्रस्त पौधों के साथ कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से सम्पर्क करे ।