सरसों की खेती ( sarso ki kheti ) का तिलहनी फसलों में बड़ा स्थान है । तेल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा सरसों वर्गीय फसलों से प्राप्त होता है । अकेले राजस्थान में देश का सबसे बड़ा हिस्सा सरसों की पैदावार होती है । किसानो को सरसों की खेती (mustard crop) से अधिक फ़ायदा हो । इसके लिए सरकार ने सरसों के मूल्य पर 225 रुपये प्रति कुंतल वृद्धि की है । इस समर्थित मूल्य के बाद 4650 प्रति कुंतल सरसों का रेट होगा ।
खेती किसानी डॉट ऑर्ग के एक्सपर्ट के मुताबिक अगर किसान भाई खेती किसानी में उन्नत वैज्ञानिक तकनीक का इस्तेमाल करें तो निश्चित रूप से अधिकतम पैदावार प्राप्त कर सकते हैं । साथ ही फसलों पर कीटों व बीमारियों का प्रकोप भी कम होगा । इस तरह किसान भाई अधिक मुनाफा कमा सकते हैं ।
आज हम सरसों की खेती के बारे में पूरी जानकारी देने वाले हैं । सरसों की जैविक खेती कैसे करते हैं ? इस आर्टिकल में आपको इस संबंध में पूरी जानकारी मिलनेवाली है । इसलिए मॉडर्न सरसों की खेती करने के तरीके के बारे में जानने के लिए पूरा आर्टिकल जरूर पढ़ें ।
उपयुक्त जलवायु –
भारत में सरसों की खेती (Mustard farming) शीत ऋतु में की जाती है| इस फसल को 18 से 25 सेल्सियस तापमान की आवष्यकता होती है| सरसों की फसल के लिए फूल आते समय वर्षा, अधिक आर्द्रता एवं वायुमण्ड़ल में बादल छायें रहना अच्छा नही रहता है| अगर इस प्रकार का मोसम होता है, तो फसल पर माहू या चैपा के आने की अधिक संभावना हो जाती हैं|
भूमि का चयन –
सरसों की खेती रेतीली से लेकर भारी मटियार मृदाओ में की जा सकती है| लेकिन बलुई दोमट मृदा सर्वाधिक उपयुक्त होती है| यह फसल हल्की क्षारीयता को सहन कर सकती है| लेकिन मृदा अम्लीय नही होनी चाहिए|
खेत की तैयारी –
किसानों को sarso ki kheti के लिए खेत की तैयारी सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए, इसके पश्चात दो से तीन जुताईयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से करना चाहिए, इसकी जुताई करने के पश्चात सुहागा लगा कर खेत को समतल करना अति आवश्यक हैं| सरसों के लिए मिटटी जितनी भुरभुरी होगी अंकुरण और बढवार उतनी ही अच्छी होगी|
उन्नत किस्में –
सरसों की खेती हेतु किस्मों का चयन कृषकों को अपने क्षेत्र की परिस्थितियों के अनुसार करना चाहिए| कुछ प्रचलित और अधिक उपज वाली किस्में इस प्रकार है,जैसे-
सिंचित क्षेत्र हेतु हेतु उपयुक्त सरसों की उन्नत क़िस्में –
लक्ष्मी, नरेन्द्र अगेती राई- 4, वरूणा (टी- 59), बसंती (पीली), रोहिणी, माया, उर्वशी, नरेन्द्र स्वर्णा-राई- 8 (पीली), नरेन्द्र राई (एन डी आर- 8501), सौरभ, वसुन्धरा (आरएच- 9304) और अरावली (आरएन- 393) प्रमुख है|
असिंचित क्षेत्र हेतु उपयुक्त सरसों की उन्नत क़िस्में –
वैभव, वरूणा (टी – 59), पूसा बोल्ड और आरएच- 30 प्रमुख है|
विलम्ब से बुवाई हेतु उपयुक्त सरसों की उन्नत क़िस्में-
आशीर्वाद और वरदान प्रमुख है|
क्षारीय/लवणीय भूमि हेतु उपयुक्त सरसों की उन्नत क़िस्में
– नरेन्द्र राई, सी एस- 52 और सी एस- 54 आदि प्रमुख है|
समय पर बुआई वाली सिंचित क्षेत्र की किस्में –
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा. / हक्टे.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
पूसा बोल्ड | 110-140 | 2000-2500 | 40 | राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, महाराष्ट्र |
पूसा जयकिसान (बायो 902) | 155-135 | 2500-3500 | 40 | गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान |
क्रान्ति | 125-135 | 1100-2135 | 42 | हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान |
आर एच 30 | 130-135 | 1600-2200 | 39 | हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी राजस्थान |
आर एल एम 619 | 140-145 | 1340-1900 | 42 | गुजरात, हरियाणा, जम्मू व कश्मीर, राजस्थान |
पूसा विजय | 135-154 | 1890-2715 | 38 | दिल्ली |
पूसा मस्टर्ड 21 | 137-152 | 1800-2100 | 37 | पंजाब, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश |
पूसा मस्टर्ड 22 | 138-148 | 1674-2528 | 36 | पंजाब, हरियाणा, राजस्थान |
संकर किस्में-
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा./है.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
एन आर सी एच बी 506 | 130-140 | 1550-2542 | 41 | उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पूर्वी राजस्थान |
डी एम एच 1 | 145-150 | 1782-2249 | 39 | पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान |
पी ए सी 432 | 130-135 | 2000-2200 | 41 | उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान |
असिंचिंत क्षेत्र के लिए किस्में –
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा./है.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
अरावली | 130-135 | 1200-1500 | 42 | राजस्थान, हरियाणा |
गीता | 145-150 | 1700-1800 | 40 | पंजाब, हरियाणा, राजस्थान |
आर जी एन 48 | 138-157 | 1600-2000 | 40 | पंजाब, हरियाणा, राजस्थान |
आर बी 50 | 141-152 | 846-2425 | 40 | दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, जम्मू व कश्मीर |
पूसा बहार | 108-110 | 1000-1200 | 42 | असम, बिहार, उडीसा, पश्चिम बंगाल |
अगेती बुआई तथा कम समय में पकने वाली किस्में-
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा./है.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
पूसा अग्रणी | 110-115 | 1500-1800 | 40 | दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान |
पूसा मस्टर्ड 27 | 115-120 | 1400-1700 | 42 | उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उतराखंड, राजस्थान |
पूसा मस्टर्ड 28 | 105-110 | 1750-1990 | 41.5 | हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, जम्मू कश्मीर |
पूसा सरसों 25 | 105-110 | 39.6 | उत्तरी पश्चिमी राज्य | |
पूसा तारक | 118-123 | 40 | उत्तरी पश्चिमी राज्य | |
पूसा महक | 115-120 | 40 | उत्तरी-पूर्वी व पूर्वी राज्य |
देर से बोई जाने वाली किस्में-
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा./है.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
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एन आर सी एच बी 101 | 120-125 | 1200-1450 | 40 | उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान |
सी एस 56 | 113-147 | 1170-1425 | 38 | पंजाब, हरियाणा, राजस्थान |
आर आर एन 505 | 121-127 | 1200-1400 | 40 | राजस्थान |
आर जी एन 145 | 121-141 | 1450-1640 | 39 | दिल्ली पंजाब, हरियाणा |
पूसा मस्टर्ड 24 | 135-145 | 2020-2900 | 37 | राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू व कश्मीर |
पूसा मस्टर्ड 26 | 123-128 | 1400-1800 | 38 | जम्मू व कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश |
लवणीय मृदा की किस्में-
किस्में | पकाव अवधि (दिन) | उपज (कि.ग्रा./है.) | तेल (प्रतिशत) | पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र |
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सी एस 54 | 135-145 | 1600-1900 | 40 | सभी लवणीयता प्रभावित क्षेत्र |
सी एस 52 | 135-145 | 580-1600 | 41 | सभी लवणीयता प्रभावित क्षेत्र |
नरेन्द्र राई 1 | 125-130 | 1100-1335 | 39 | सभी लवणीयता प्रभावित क्षेत्र |
सरसों की खेती हेतु बुवाई का समय – Sowing Time
बारानी (शुष्क ) क्षेत्रों में सरसों की बुवाई 25 सितम्बर से 15 अक्टूबर के बीच करना अच्छा माना जाता है । सिंचित एरिया में सरसों की बुवाई 5 अक्टूबर से 25 अक्टूबर तक किसान भाई जरूर कर दें । सरसों की बुवाई गेंहू की खेती के साथ mix cropping के रूप में उत्तर भारत में किसान भाई करते हैं ।
बीज की मात्रा – Seed Rate
बुआई के लिए सरसों का अच्छी क्वालिटी का 4 से 5 किलो ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है ।
नर्सरी की तैयारी –
नर्सरी के लिए सब्जी वाले खेत का चुनाव करें, फसल की अवधि के हिसाब से नर्सरी के लिए नर्सरी बेड का छोटा-बड़ा निर्माण करें। जैसे कम दिन वाले किस्मों के लिए अधिक। जिस खेत में नर्सरी बेड तैयार किया जा रहा हो उस खेत में नर्सरी के क्षेत्रफल के प्रति वर्ग मी. में 2 से 2.5 किग्रा. वर्मीकम्पोस्ट, 2 से 2.5 ग्राम कार्बोफ्यूरान मिट्टी में अच्छी प्रकार से मिला लें।नर्सरी बेड की चौड़ाई एक मीटर और लम्बाई सुविधानुसार रखें। यह ध्यान रखें कि नर्सरी बेड जमीन से चार से छह इंच ऊंचा हो दो बेड के बीच एक फिट की नाली बनाएं। नर्सरी में बीज की बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी का होनी चाहिए।अंकुरित बीज को दो इंच कतार से कतार और दो इंच बीज से बीज की दूरी पर और आधा इंच की गहराई पर डालकर रखें। नर्सरी बेड को बीज की बुवाई के बाद वर्मीकम्पोस्ट और पुआल से ढक दें। सुबह- शाम झारी (हजार) से सिंचाई करें। 12 से 15 दिनों में रोपाई के लिए पौध तैयार हो जाती है।
अंतरण – Spacing
सरसों के पौधों के आपस मे सघनता अच्छी पैदावार तय करता है । इसलिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 से 50 की दूरी तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से0मी0 रखें ।
श्री विधि से सरसों की रोपाई करने का तरीक़ा –
जिस खेत में श्री विधि से सरसों की रोपाई करनी हो उस खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए। यदि खेत सूखा है तो सिंचाई (पलेवा सिंचाई) करके जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा बना लें और खरपतवार को हाथ से ही निकालकर खेत से बाहर कर दें।
सरसों की फसल की अवधि के हिसाब से उचित अंतराल पर (कतार से कतार और पौध से पौध) 6 इंच चौड़ा तथा 8 से 10 इंच गहरा गड्ढा कर लें। इसे दो से तीन दिनों के लिए छोड़ दें। एक एकड़ खेत के लिए 50 से 60 कुंतल कम्पोस्ट खाद में चार से पांच किग्रा. ट्राइकोडर्मा, 27 किग्रा. डीएपी, और 13.5 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ पोटाश को अच्छी तरह मिला लें और प्रत्येक गड्ढे में बराबर मात्रा में इस खाद को डालकर एक दिन के लिए फिर छोड़ दें।
रोपाई के दो घंटे पहले नर्सरी में नमी बना कर रख लें सावधानी पूर्वक मिट्टी सहित पोध को नर्सरी बेड से निकालें। नर्सरी से पौध निकालते समय यह ध्यान रखें कि पौध को खुरपा या कुदाल की सहायता से कम से कम एक से दो इंच मिट्टी सहित नर्सरी से निकालें।
पौध को नर्सरी से निकालने के बाद आधा घंटे के अंदर गड्ढे में रोपाई कर दें। रोपाई पहले यह सुनिश्चित कर लें कि प्रत्येक गड्ढे में सावधानी पूर्वक मिट्टी सहित लगा दें। ध्यान रखें कि रोपाई ज्यादा गहराई में ना हो। रोपाई के बाद तीन से पांच दिन तक खेत में नमी बनाकर रखें। ताकि पौधा खेत में अच्छी तरह से लग जाए। जहां मिट्टी भारी हो वहां सूखी रोपाई गोभी की तरह करें और रोपाई के तत्काल बाद जीवन रक्षक सिंचाई करें।
फसल की देखरेख-
रोपाई के 15 से 20 दिन के अंदर पहली सिंचाई की जानी चाहिए। सिंचाई के तीन से चार दिन बाद जब खेत में चलने लायक हो जाए तब तीन से चार कुंतल वर्मी कम्पोस्ट में 13.5 किग्रा. यूरिया मिलाकर जड़ों के समीप देकर कुदाल या खुरपा या वीडर चला दें। दूसरी सिंचाई सामान्यता पहली सिंचाई के 15 से 20 दिन बाद करते हैं, सिंचाई के पश्चात रोटरी वीडर/कोनीबीडर या कुदाल से खेत की गुड़ाई आवश्यक है। आवश्यकतानुसार पौधे पर हल्की मिट्टी भी चढ़ा दें।
फसल की देख रेख (रोपाई के 35 दिन बाद)-
रोपाई के 30 दिन बाद से पोधे तेजी से बड़े होते हैं। साथ ही नई शाखाएं भी निकलती रहती हैं इसके लिए पौधों को अधिक नमी और पोषण की जरूरत होती है। इसलिए रोपाई के 35 दिन बाद आवश्यकतानुसार तीसरी सिंचाई करें। सिंचाई के तीन से चार दिन पश्चात जब खेत में चलने लायक हो जाए। तब 13.5 किग्रा. यूरिया और 13.5 किग्रा. पोटाश को वर्मीकम्पोस्ट में मिलाकर जड़ों के समीप डालकर वीडर या कुदाल से अच्छी प्रकार मिट्टी हल्का कर जड़ों के ऊपर मिट्टी चढ़ा दें।
मिट्टी नहीं चढ़ाने से पौधे के गिरने का डर रहता है और मिट्टी चढ़ाने से पौधे के फैलाव करने मदद मिलती है। जिस प्रकार आलू की फसल में मिट्टी चढ़ाते हैं ठीक उसी प्रकार से कतार से कतार एक फीट ऊंची तक श्री विधि से सरसों की खेती में भी मिट्टी चढ़ाना आवश्यक है। पौधों में फूल आने लगते हैं, फूल आने एवं फलियों में दाने भरने के समय पानी की कमी नही होनी चाहिए अन्यथा उपज में काफी कमी हो जायेगी।
खाद एवं ऊर्वरक – fertilizers and manures
जैविक खेती में खेत में रासायनिक खादों का प्रयोग न करके जीवाश्म युक्त कार्बनिक खाद का उपयोग करना चाहिये । कम्पोस्ट खादों का अधिक से अधिक प्रयोग करें । सरसों की खेती में रासायनिक खादों के उपयोग को भी जान लें । बुआई के समय खेत में 100 किग्रा सिंगल सुपरफॉस्फेट, 35 किग्रा यूरिया और 25 किग्रा म्यूरेट ऑफ पोटाश (MoP) का इस्तेमाल करें ।
उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी परीक्षण की संस्तुतियों के आधार पर किया जाना चाहिए| सिचित क्षेत्रों मे नत्रजन 120 किलोग्राम, फास्फेट 60 किलोग्राम एवं पोटाश 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से अच्छी उपज प्राप्त होती है| फास्फोरस का प्रयोग सिंगिल सुपर फास्फेट के रूप में अधिक लाभदायक होता है| क्योकि इससे सल्फर की उपलब्धता भी हो जाती है, यदि सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग न किया जाए तों गंधक की उपलब्धता की सुनिश्चित करने के लिए 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से गंधक का प्रयोग करना चाहियें| साथ में आखरी जुताई के समय 15 से 20 टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट का प्रयोग लाभकारी रहता है|
असिंचित क्षेत्रों में उपयुक्त उर्वरकों की आधी मात्रा बेसल ड्रेसिग के रूप में प्रयोग की जानी चाहिए| यदि डी ए पी का प्रयोग किया जाता है, तो इसके साथ बुवाई के समय 200 किलोग्राम जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना फसल के लिये लाभदायक होता है तथा अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग बुवाई से पहले करना चाहियें|
सिंचित क्षेत्रों में नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फेट एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय कूंड़ो में बीज के 2 से 3 सेंटीमीटर नीचे नाई या चोगों से दी जानी चाहिए| नत्रजन की शेष मात्रा पहली सिंचाई (बुवाई के 25 से 30 दिन) के बाद टापड्रेसिंग में डाली जानी चाहिए|
सरसों की खेती में थायो युरिया का प्रयोग –
अनुसंधनों एव परीक्षणों के ज्ञात हुआ है कि थायो युरिया के प्रयोग से सरसों की उपज को 15 से 20 प्रतिशत तक बढाया जा सकता है। थायो युरिया में उपस्थित सल्फर के कारण पौधें की आन्तरिक कार्यिकी में सुधर होता है। थायो युरिया में 42 प्रतिशत गंध्क एवं 36 प्रतिशत नत्राजन होती है। सरसों की फसल में 0.1 प्रतिशत थायो युरिया (500 लीटर पानी में 500 ग्राम थायो युरिया) के दो पर्णीय छिड़काव उपयुक्त पाये गये हैं। पहला छिड़काव फूल आने के समय (बुआई के 50 दिन बाद) एवं दूसरा छिड़काव फलियां बनते समय करना चाहिए।
जैविक खाद का प्रयोग –
असिंचित क्षेत्रों में 4-5 टन प्रति हेक्टेयर तथा सिंचित क्षेत्रों में 8-10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद बुआई के एक माह पूर्व खेत में डालकर जुताई कर अच्छी तरह मृदा में मिला दें।
माइक्रो राजा(मैजिक माइको) का सरसों की खेती में प्रयोग –
का प्रयोग करना सरसों की फसल में बहुत ही लाभदायक साबित हुआ है खाद में मुख्य पोषक तत्वों के साथ सूक्ष्म पोषक तत्व भी पाये जाते हैं जिससे पौधें को उचित पोषण प्राप्त होता है। गोबर की खाद से मृदा की जल धरण क्षमता में वृद्धि होती है एवं मृदा संरचना में सुधर होता है। अतः भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाये रखने के लिए जैविक खादों का उपयोग आवश्यक होता है। सरसों की फसल से पूर्व हरी खाद का भी प्रयोग किया जा सकता है। इसके लिए वर्षा शुरू होते ही ढैंचा की बुआई करें व 45-50 दिन बाद फूल आने से पहले मृदा में दबा देना चाहिए। सिंचित एवं बारानी दोनों क्षेत्रों में पी.एस.बी. (10-15 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज) एवं एजोटोबैक्टर से बीजोपचार भी लाभदायक रहता है, इसके नत्राजन एवं फास्फोरस की उपलब्ध्ता बढ़ती है व उपज में वृद्धि होती है।
सिंचाई व जल निकास प्रबंधन – Irrigation
सरसों की खेती के लिए 1-2 सिंचाई पर्याप्त होती है ।फसल की पहली सिंचाई 35-40 दिन के बाद करें । जरूरत होने पर दूसरी सिंचाई फली में दाना बनते समय करें । फसल पर फूल आने के समय सिंचाई नहीं करनी चाहिए । सरसों की अच्छी फसल के लिए पहली सिंचाई खेत की नमी, फसल की जाति और मृदा प्रकार को देखते हुए 30 से 40 दिन के बीच फूल बनने की अवस्था पर ही करनी चाहिए। दूसरी सिंचाई फलियां बनते समय (60-70 दिन) करना लाभदायक होता है। जहाँ पानी की कमी हो या खारा पानी हो वहाँ सिपर्फ एक ही सिंचाई करना अच्छा रहता है। बारानी क्षेत्रों में सरसों की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए मानसून के दौरान खेत की अच्छी तरह दो-तीन बार जुताई करें एवं गोबर की खाद का प्रयोग करें जिससे मृदा की जल धरण क्षमता में वृद्धि होती है। वाष्पीकरण द्वारा नमी का ह्रास रोकने के लिए अन्तः सस्य क्रियायें करें एवं मृदा सतह पर जलवार का प्रयोग करें।
पौधें का विरलीकरण –
खेत में पौधें की उचित संरक्षण और समान बढ़वार के लिए बुआई के 15-20 दिन बाद पौधें का विरलीकरण आवश्यक रूप से करना चाहिए। विरलीकरण द्वारा पौधें से पौधें की दूरी 10 से 15 से.मी. कर देनी चाहिए जिससे पौधें की उचित बढ़वार हो सकें।
सरसों की खेती में फसल सुरक्षा प्रबंधन –
सरसों की खेती में लगने वाले प्रमुख कीट व उनकी रोकथाम –
चेंपा या माहू –
सरसों में माहू पंखहीन या पंखयुक्त हल्के स्लेटी या हरे रंग के 1.5-3.0 मिमी. लम्बे चुभने एवम चूसने मुखांग वाले छोटे कीट होते है। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ पौधों के कोमल तनों, पत्तियों, फूलो एवम नई फलियों से रस चूसकर उसे कमजोर एवम छतिग्रस्त तो करते ही है साथ-साथ रस चूसते समय पत्तियोपेर मधुस्राव भी करते है। इस मधुस्राव पर काले कवक का प्रकोप हो जाता है तथा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बाधित हो जाती है। इस कीट का प्रकोप दिसम्बर-जनवरी से लेकर मार्च तक बना रहता है।
जब फसल में कम से कम 10 प्रतिशत पौधें की संख्या चेंपा से ग्रसित हो व 26-28 चेंपा/पौधा हो तब डाइमिथोएट (रोगोर) 30 ई सी या मोनोक्रोटोफास (न्यूवाक्रोन) 36 घुलनशील द्रव्य की 1 लीटर मात्रा को 600-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर में छिड़काव करना चाहिए। यदि दुबारा से कीट का प्रकोप हो तो 15 दिन के अंतराल से पुनः छिड़काव करना चाहिए।
इसके प्रबन्धन के लिये-
– माहू के प्राकृतिक शत्रुओ का संरक्षण करना चाहिए।
– प्रारम्भ में प्रकोपित शाखाओं को तोडकर भूमि में गाड़ देना चाहिए।
– माहू से फसल को बचाने के लिए कीट नाशी डाईमेथोएट 30 ई . सी .1 लीटर या मिथाइल ओ डेमेटान 25 ई. सी.1 लीटर या फेंटोथिओन 50 ई . सी .1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर 700-800 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव सायंकाल करना चाहिए।
आरा मक्खी –
इस कीट की रोकथाम हेतु मेलाथियान 50 ई.सी. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर में छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर दुबारा छिड़काव करना चाहिए।
पेन्टेड बग या चितकबरा कीट –
इस कीट की रोकथाम हेतु 20-25 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 1.5 प्रतिशत क्यूनालफास चूर्ण का भुरकाव करें। उग्र प्रकोप के समय मेलाथियान 50 ई.सी. की 500 मि.ली. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें।
बिहार हेयरी केटरपिलर-
इसकी रोकथाम हेतु मेलाथियान 50 ई.सी. की 1.0 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें। सरसों के
सरसों की खेती में लगने वाले प्रमुख रोग व उनकी रोकथाम –
सफेद रतुवा या श्वेत किट्ट –
फसल के रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैन्कोजेब (डाइथेन एम-45) या रिडोमिल एम.जेड. 72 डब्लू.पी. फफूँदनाशी के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव 15-15 दिन के अन्तर पर करने के सफेद रतुआ से बचाया जा सकता है।
काला धब्बा या पर्ण चित्ती –
इस रोग की रोकथाम हेतु आईप्रोडियॉन (रोवरॉल), मेन्कोजेब (डाइथेन एम-45) फफूंदनाशी के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देने पर 15-15 दिन के से अधिकतम तीन छिड़काव करें।
चूर्णिल आसिता –
चूर्णिल आसिता रोग की रोकथाम हेतु घुलनशील सल्फर (0.2 प्रतिशत) या डिनोकाप (0.1 प्रतिशत) की वांछित मात्रा का घोल बनाकर रोग के लक्षण दिखाई देने पर छिड़काव करें। आवश्यकता होने पर 15 दिन बाद पुनः छिड़काव करें।
मृदुरोमिल आसिता-
सफेद रतुआ रोग के प्रबंधन द्वारा इस रोग का भी नियंत्रण हो जाता है।
तना लगन –
कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत) फफूंदीनाशक का छिड़काव दो बार फूल आने के समय 20 दिन के अन्तराल (बुआई के 50वें व 70वें दिन पर) पर करने से रोग का बचाव किया जा सकता है।
फसल कटाई –
सरसों की फसल फरवरी-मार्च तक पक जाती है। सरसों की फसल कटाई उचित समय से करना बहुत ज़रूरी है । क्योंकि फसल के अधिक पकने पर फलियों के चटकने की आशंका बढ़ जाती है । जिससे सरसों के दाने खेत में झड़ जाएँगे । सरसों के पौधों के पीले पड़ने एवं फलियां भूरी होने कटाई कर लेनी चाहिए । फसल की उचित पैदावार के लिए जब 75 प्रतिशत फलियाँ पीली हो जायें तब ही फसल की कटाई करें क्योंकि अधिकतर किस्मों में इस अवस्था के बाद बीज भार तथा तेल प्रतिशत में कमी हो जाती है। सरसों की फसल में दानों का बिखराव रोकने के लिए फसल की कटाई सुबह के समय करनी चाहिए क्योंकि रात की ओस से सुबह के समय फलियाँ नम रहती है तथा बीज का बिखराव कम होता है।
गहाई – harvesting
सरसों के बोझ या बंडल को सूखने के उपरांत थ्रेसर से मडाई कर लें । सरसों की लाट डंडो से पीट पीटकर भी दाने निकाले जाते हैं । जब बीजों में औसतन 12-20 प्रतिशत आर्द्रता प्रतिशत हो जाय तब फसल की गहाई करनी चाहिए। फसल की मड़ाई थै्रसर से ही करनी चाहिए क्योंकि इससे बीज तथा भूसा अलग-अलग निकल जाते हैं साथ ही साथ एक दिन में काफी मात्रा में सरसों की मड़ाई हो जाती है। बीज निकलने के बाद उनको साफ करके बोरों में भर लेने एवं 8-9 प्रतिशत नमी की अवस्था में सूखे स्थान पर भण्डारण करें।
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