सतावर (satawar) अथवा शतावरी (shatawari ) नाम तो सुना ही होगा आपने । यह जड़ी बूटी शतावरी (shatavar) महिलाओं के लिए विशेषकर लाभकारी जड़ी बूटी है। महिलाओं में स्तन्य (दूध) की मात्रा बढ़ाने, मूत्र विसर्जनं के समय होने वाली जलन को कम करने व कामोत्तेजना की कमी को दूर करने व पुरुषों और महिलाओं में बांझपन को दूर करने में किया जाता है। यह रजोनिवृत्ति के लक्षणों में फ़ायदा करता है। इसे महिलाओं की सबसे बढ़िया टोनिक माना जाता है। शतावरी जड़ (shatawari root) तंत्रिका प्रणाली और पाचन तंत्र (गैस्ट्रिक) की बीमारियों के इलाज, ट्यूमर, अल्सर, गले के संक्रमण, ब्रोंकाइटिस और कमजोरी में फायदेमंद होती है। साथ ही भूख न लगने व अनिद्रा की बीमारी में भी फायदेमंद है। अतिसक्रिय बच्चों और ऐसे लोगों को जिनका वजन कम है उनके इलाज में भी शतावरी रामबाण का काम करती है। इसकी गांठ या कंद में रासायनिक घटक ऐस्मेरेगेमीन ए नामक पॉलिसाइक्लिक एल्कालॉइड, स्टेराइडल सैपोनिन, शैटेवैरोसाइड ए, शैटेवैरोसाइड बी, फिलियास्पैरोसाइड सी और आइसोफ्लेवोंस पाए जाते हैं ।(shatawari ki kheti)
सतावर अथवा शतावर की खेती से कमाएँ 6 लाख का मुनाफ़ा (satawar ki kheti)
ये तो बात हुई शतावरी के फ़ायदे (shatawari benefits) के बारे में, kheti kisani में अब बात करते हैं शतावरी कि खेती (satawar ki kheti) से होने वाले फ़ायदे यानी लाभ के बारे में –

आजकल आयुर्वेद के अलावा एलोपैथिक दवाओं के बनाने में शतावरी का इस्तेमाल किया जाने लगा है जिससे घरेलू बाज़ार में इसकी माँग बहुत तेज़ी से बढ़ी है। औषधि पौधों में सिर्फ़ शतावरी का दवाओं हेतु 500 टन उपयोग हमारे देश में होता है। संसार के विभिन्न देशों जैसे – अफ्रीका, श्री लंका, चीन, भारत और हिमालय में यह जड़ी बूटी पाई जाती है। हमारे देश भारत में यह अरूणाचल प्रदेश, आसाम, छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, केरला और पंजाब राज्यों में विशेषकर पाया जाता है।
शतावरी की खेती से होने वाले लाभ की गणना (profit in satawar-
एक एकड़ शतावरी की खेती (satawar ki kheti) से लगभग 150-180 कुन्तल गीली जड़ प्राप्त होती है । ( प्रति पौधा 2.5 से 3 किलोग्राम जड़ ) जो सूखने के बाद लगभग 25-30 कुन्तल रह जाती है । जिसका बाजार मूल्य 30,000 रुपया प्रति कुन्तल होता है। कुल आय = 25 × 30,000/- =7,50,000 एक एकड़ शतावरी की खेती (satawar ki kheti) में लगभग 1,50,000 रूपये आता है । इस तरह से आप शुद्ध लाभ 6,00,000 रूपये तक कमा सकते हैं। शतावरी की खेती (shatawari ki kheti) में 50-60 हज़ार के क़रीब लागत आती है । विभिन्न आयुर्वेदिक दवा कंपनियों जैसे डाबर, पतंजलि, हिमानी, वैद्यनाथ आदि भी सतावर की फसल को सीधा किसानो से या बाज़ार से खरीदती है । कुछ कम्पनियाँ शतावरी की खेती (shatawari ki kheti) बैंक बैंक एग्रीमेंट के साथ कराती हैं। शतावरी की खेती (satawar ki kheti) के बारे में अपनी जिज्ञासा हमें contact@khetikisani.org पर भेजें।
सतावर की खेती से पहले जाने शतावरी के बारे में –
शतावरी का वैज्ञानिक नाम Asparagus racemosus / ऐस्पेरेगस रेसीमोसस) है। लिलिएसी परिवार का यह पौधा हमारे देश में विभिन्न भाषाओं में अलग अलग नामो से जाना जाता है। जैसे संस्कृत में – शतमूली,शतावरी, हिंदी में – सतावर, सतावरी, तमिल में – शहदावरी, अम्मईकोडी, किलावरी, कन्नड़ में – मज्जीगी, गिड्डी, एहेरू बल्ली, तेलुगु में – छल्लागड्डा, पिल्लीगडालु, किलवारी, मलयालम में – शतावली, सतावरी, गुजराती भाषा में – सता सतावरी, इकोलाकान्टो वरी, इकोलाकान्टो, मराठी में सतावारमुल, सतावरी, और बांग्ला में सतामुली के नाम से जानते हैं।
आयुर्वेद में औषधियों की रानी माने जाने वाली शतावरी का पौधा अनगिनत शाखाओं से युक्त काँटेदार लता के रूप में होता है। जो कि 1 से 2 मीटर तक लम्बा होता है। शतावरी के पेड़ की जड़ें गुच्छों के आकर में होतीं हैं। इसके फूल शाखाओं में होते हैं और 3 सैं.मी. लंबे होते हैं। फूल सफेद रंग के और अच्छी सुगंध वाले होते हैं । इसका परागकोष जामुनी रंग का और फल जामुनी लाल रंग का होता है।
शतावरी (shatawari ) की एक प्रजाति ऐसी भी है। जो की काटें रहित होती है। इस शतावरी का वैज्ञानिक नाम – एस्पेरेगस फिलिसिनस है। यह प्रजाति हिमालय में 4 से 9 हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर पायी जाती है।
जलवायु व तापमान(climate and temperature) –
शतावरी की खेती (satawar ki kheti) शीतोष्ण (टैम्परेट) से उष्ण कटिबंधी पर्वतीय क्षेत्र में सफलता पूर्वक उगायी जाती है। शतावरी की खेती के लिए मध्यम तापमान सबसे उपयुक्त माना जाता है। इसकी खेती के लिए उचित तापमान 10 से 50 डिग्री सेल्सियस उपयुक्त माना जाता है। वहीं बुवाई के लिए 30-35 डिग्री सेल्सियस व कटाई के लिए 20-25 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़िया रहता है। वहीं 600-100 मिलीमीटर वर्षा पर्याप्त होती है। समुद्र तल से 800-1500 मीटर तक शतावरी की खेती सफलता पूर्वक उगायी जाती है।
सतावर की क़िस्में (improved varieties shatawari) –
शतावरी की क़िस्में एस्पेरेगस सारमेन्टोसस, एस्पेरेगस कुरिलस, एस्पेरेगस गोनोक्लैडो, एस्पेरेगस एडसेंडेस, एस्पेरेगस आफीसीनेलिस, एस्पेरेगस प्लुमोसस, एस्पेरेगस फिलिसिनस, एस्पेरेगस स्प्रेन्गेरी आदि हैं। इनमें से एस्पेरेगस एडसेन्डेस जिसे सफेद मूसली के रूप में जाना जाता है। वहीं एस्पेरेगस सारमेन्टोसस को महाशतावरी के नाम से पहचाना गया है। महाशतावरी की लता सफ़ेद मूसली के अपेक्षाकृत बड़ी होती है । तथा यह मुख्यतया पर्वतीय क्षेत्रों, हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाती है।
सतावर की एक किस्म एस्पेरेगस आफीसीनेलिस इसका उपयोग सूप तथा सलाद बनाने के काम आती है। बड़े-बड़े शहरों में इस शतावरी की अच्दी मांग है। एस्पेरेगस रेसीमोसम नामक क़िस्म का सर्वाधिक उपयोग औषधियाँ बनाने में किया जाता है।
Shatavari (Asparagus racemosus) –
शतावरी की यह किस्म अफ्रीका, चीन, श्री लंका, भारत और हिमालय में पायी जाती है । इसके पौधे की ऊंचाई 1से 3 मीटर होती है। तथा इसका फूल 3 सेमी0 लंबे होते है। फूल का बाहरी भाग 3 मिमी0 लंबा होता है।
Shatavari (Asparagus sarmentosa Linn.) –
यह किस्म सूदरलैंड, बुरशैल और दक्षिण अफ्रीका में पायी जाती है। इस पौधे की ऊंचाई 2-4 मीटर लंबी होती है और फूल का बाहरी भाग 1 इंच लंबा होता है।
भूमि की जानकारी (bhumi ki jankari) –
कार्बनिक जीवांश युक्त व अच्छे जल निकास वाली लाल दोमट से चिकनी मिट्टी व काली मिट्टी से लैटेराइट मिट्टी में शतावरी उगाई जाती है। पौधे की वृद्धि के लिए मिट्टी pH 6-8 बढ़िया माना जाता है। शतावरी की फ़सल (satawar ki kheti) एक उथली जड़ वाली होती है। अतः इस प्रकार की उथली तथा पठारी मृदा के तहत जिसमें मृदा की गहराई 20-30 सें.मी. की है, उसमें आसानी से उगाया जा सकता है।
भूमि की तैयारी (soil preparation) –
दोस्तों सतावरी की खेती (satawar ki kheti) 2 से 3 साल की अवधि की होती होती है। इसलिए ज़ाहिर है की खेत की तैयारी भी अच्छी प्रकार की हो। वर्षा ऋतु (जून-अगस्त) देशी हल या कल्टीवेटर से 2-3 बार खेत की गहरी जुताई करें । 2 टन केंचुआ खाद (vermi compost) या कंपोस्ट खाद या 20-25 टन गोबर की खाद के साथ – साथ 120 किग्रा0 प्रॉम जैविक खाद प्रति एकड़ के हिसाब से जुते हुए खेत में डालकर मिला देनी चाहिए। दूसरी जुताई नवंबर के शुरुआती दिनों में करें ।
सतावर की खेती हेतु नर्सरी (nursery) कैसे बनाएँ –
इसके लिए 100 वर्ग फ़ीट का स्थान एक एकड़ भूमि में शतावरी की खेती (satawar ki kheti) के लिए पर्याप्त होता है। पौधशाला की भूमि की अच्छी प्रकार जुताई कर ढेले फोड़कर समतल बना लें। भूमि का शोधन कर लें। जिससे फफूँदी जनित रोग पौध को ना लगें। पौधशाला में जैविक खाद व कम्पोस्ट डालकर मिट्टी में मिला दें। नर्सरी भूमि से काफ़ी ऊँची होनी चाहिए। इसके दो फ़ायदे होंगे। पहला तो सिंचाई का अतिरिक्त पानी आसानी से निकल जाएगा। और दूसरा शतावरी के तैयार पौध हो आसानी से उखाड़कर दूसरे स्थान पर रोपा जा सकता है। मुख्य रूप से दो प्रजातियों जिनमें पिली या नैपाली सतावर,बेल या देसी सतावर की बुवाई की जाती है। इसके बीज आपको निजी दुकानों व सीमैप से मिल जाएँगे। जिसका बाज़ार मूल्य 1000 रुपए प्रति किलो है । एक हेक्टेयर के खेत में 3-4 किग्रा0 सतावर के बीज डाले जाते हैं। 15 मई के बाद बीज शैय्या (seed bed) में बीज का छिड़काव कर दें। इसके बाद बीज के ऊपर गोबर मिली मिट्टी की हल्की परत चढ़ा दें। जिससे बीज ढक जाएँ। सुबह शाम फ़व्वारे या स्प्रिंकलर्स से हल्की सिंचाई करें। 10 से 15 दिन में बीजों में अंकुरण आ जाता है। ये पौधें 40-45 दिन में रोपाई हेतु तैयार हो जाते हैं। इन्हें आप पालीथीन की थालियों में भी तैयार कर सकते हैं।
पौध की तैयारी कैसे करें (satavari planting) –
वैसे शतावरी की खेती (satawar ki kheti) अधिकतर समतल खेत में की जताई है । अपनी सुविधा के अनुसार जुते हुए खेत में 10 मीटर की क्यारियां बनाकर इसमें 4 और 2 के अनुपात में मिट्टी व गोबर की खाद मिलाकर डालनी चाहिए। इसके बाद 60-60 सेमी0 की दूरी पर 9 इंच की दूरी पर मेड बना देनी चाहिए। जब नर्सरी में पौध 40 दिन के हो जाएँ। तथा अच्छी लम्बाई के हो जाएँ। नर्सरी से सावधानी से उखाड़कर माह जुलाई से अगस्त के बीच रोपाई कर देनी चाहिए। पौधों के उचित विकास के लिए 4.5x 1.2 मीटर फासले का प्रयोग करें । और 20 सेमी0 गहराई में पौध का रोपण करना चाहिए। रोपाई शाम के समय करना बेहद अच्छा रहता है। रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई कर दें।
सिंचाई व जल निकास प्रबंधन (irrigation and water drainage management ) –
शतावरी(satawar ki kheti) में अधिक जलमाँग वाली फ़सल तो नही है। फिर भी शुरुआती दिनों में एक माह में 4 से 6 दिन के अंतर पर सिंचाई करते रहें। इसके बाद हर माह में एक सिंचाई पर्याप्त होती है। सिंचाई के समय ध्यान दें कि पानी पौधों के पास अधिक देर तक ना रुके। इसके लिए सिंचाई की फ़्लड पद्धति (flood irrigation system) का प्रयोग करना चाहिए । कम पानी व बिना सिंचाई के भी शतावरी की खेती की जाती है। ऐसी दशा में उपज पर प्रभावित होती है।
खरपतवार नियंत्रण (weed control) –
फ़सल के शुरुआती दिनों में काफ़ी खरपतवार उग आते हैं। जिनको खुरपी से निराई-गुड़ाई कर बाहर निकाल देना चाहिए। निराई-गुड़ाई करते समय ध्यान रखें कि पौधे व प्रारोह को कोई नुक़सान ना पहुचें। 6 से 8 बार पूरी फ़सल में निराई गुड़ाई करना बेहतर होता है।
शतावर के पौधे को आरोहण हेतु सहारा देना (staking) –
हम जानते हैं कि शतावरी के बेल यानी लता है। अत: इसके समुचित विकास और बढ़वार के लिए उपयुक्त आरोहण सटेकिंग की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके लिए आप मचान बना सके तो बेहतर अन्यथा पौधे के पास 4-6 फ़ीट लम्बे सूखे बाँस या लकड़ी गाड़ दें जिससे सतावर की लताएँ उन पर चढ़कर बढ़ सके। व्यापक स्तर पर रोपण में पौधों को यादृच्छिक पंक्ति में ब्रुश वुड पैग्ड पर फैलाया जाता है। बहुत से किसान सतावर को खेत की बाड़ अथवा फेंसिंग पर लगते हैं।
फ़सल सुरक्षा (crop protection) –
सामान्यत: देखा गया है, सतावर की खेती (shatawari ki kheti) में कीट व रोग ज़्यादा नही लगते हैं।
फ़सल पकने की अवधि (maturity ) –
वैसे तो सतावर के पौध लगाने के 24-40 माह बाद जड़ें परिपक्व हो जाती हैं। किंतु मृदा व मौसमी दशाओं को देखते हुए 24 माह बाद खुदाई करने पर अधिक गुणवत्ता वाली जड़े प्राप्त होती हैं। वहीं कुछ किसानों द्वारा इनकी 40 माह बाद खुदाई करते देखा गया है।
कटाई,प्रसंस्करण एवं उपज (harvesting and processing and yield) –
शतावरी की खुदाई अप्रैल – मई में की जाती है। 24 से 40 माह की फसल हो जाने पर सतावर खुदाई योग्य हो जाती है। जब पौधों पर लगे हुए बीज पक जाएं। खुदाई के पहले खेत में हल्की सिंचाई कर देना चाहिए। इससे मिट्टी मुलायम हो जाएगी और खुदाई करना आसान हो जाएगा। जड़ों को उखाड़ने के बाद उसमें चीरा लगाकर ऊपर का छिलका उतार लिया जाता है। सतावर के कंदों को ट्यूवर्स से अलग करने के लिए इसे पानी में हल्का उबाला जाता है थोड़ी देर बार ठंडे पानी में कंदो को रखते हैं। ऐसा करने से छिलका बड़ी आसानी से उतर जाते हैं। कंदों को छीलने के बाद छाया में सूखा लिया जाता है। कंदों के पूरी तरह सूख जाने के बाद ऐयरटाइट प्लास्टिक के बैग में भरकर बिक्री हेतु भेज देना चाहिये। कंदों की प्रोसेसिंग यानी छिलाई व उबालने, के बाद रंग हल्का पीला हो जाता है। यह देखकर चिंता ना करें ।
उपरान्त वायुरूद्ध बोरियों में पैक करके बिक्री हेतु प्रस्तुत कर दिया जाता है। कन्दों को उबालने, छिलाई पश्चात् सुखाने पर कन्द हल्का पीला रंग का हो जाता है।
एक एकड़ खेत से 150-180 कुन्तल गीली सतावर प्राप्त होती है। जो की छीलने व सुखाने के बाद 15-18 कुन्तल प्राप्त होती है।
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